Mujhe kabar nahi mandir hai ya maszid…: मुझे खबर नहीं मंदिर जले हैं या मस्जिद… मेरी निगाह के आगे तो सब धुंआ है मियां…

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शायर डॉ. राहत इंदौरी ने जब इन पंक्तियों को लिखा होगा तो उनके मन में क्या चल रहा होगा यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन आज जब रामजन्म भूमि मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और इसके बाद जिस तरह हिंदुस्तानियों ने संयम और सद्भाव का परिचय दिया, उसने एक नई इबारत जरूर लिख दी है। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देकर न्याय की गरिमा बढ़ाई है, वहीं दूसरी तरफ भारत के लोगों ने आपसी प्रेम दिखाकर लोकतंत्र का मान बढ़ा दिया है। पूरे देश को पता है जब मंदिर या मस्जिद जलते हैं तो आम लोगों को सिर्फ धुुंआ ही नजर आता है। पर सियासतदानों के लिए जलते हुए मंदिर और मस्जिद बहुत उपयोगी होते हैं। शनिवार के पूरे दिन के घटनाक्रम पर गभीर मंथन करते हुए यह विचार आया कि हमें सियासती बाजीगरों से दूर रहने की ही जरूरत है।
अयोध्या मामले में जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी कर ली थी उसी दिन के बाद से पूरे देश में सांप्रदायिक माहौल को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। सभी राज्य अलर्ट मोड में आ गए थे। सबसे अधिक चिंता उत्तर प्रदेश को लेकर थी। फैसले के एक दिन पहले मुख्य न्यायाधीश ने भी यूपी के उच्च अधिकारियों को बुलाकर सुरक्षा व्यवस्था के पूरे निर्देश दिए थे। पर भारतीयों ने कहीं से भी इस बात का अहसास नहीं होने दिया था कि वो परेशान हैं। वो सामान्य तरीके से थे। फैसला आने के बाद भी लोगों ने इसे बेहद सामान्य तरीके से लिया। बधाई के पात्र हैं सोशल मीडिया के शूर वीर भी। इन शूर वीरों ने भी जिस संयम और सौहार्द का परिचय दिया वह एक नजीर बन गई है। भारतीय सोशल मीडिया आज तक इतना संयमित कभी नहीं रहा, जितना फैसला आने के बाद रहा। यही असली भारतीयता है। इसी आपसी भाईचारे ने हम भारतीयों को आज तक जिंदा रखा है। तमाम आक्रांताओं ने हिंदुस्तान को बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, लेकिन वे न तो हिंदुस्तान को खत्म कर सके और न यहां के लोगों के अंदर के हिंदुस्तानियत को। इसमें भी दो राय नहीं कि सियासती लोगों ने अपने र्स्वाथों के कारण हिंदू-मुस्लिम के रूप में राजनीतिक रोटी को सेंकना जारी रखा। यही कारण है कि वैमनस्य भी बढ़ा। पर जिनके बीच वैमनस्व बढ़ा उन्हीं लोगों ने इसे दूर भी किया। वो कहते हैं न कि…
…हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है,
हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई
रहती है।
गिले-शिकवे जरूरी हैं अगर सच्ची
मुहब्बत है,
जहां पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है।
अयोध्या में राम मंदिर बनने का रास्ता साफ हो गया है। लंबे विवादों और तमाम सुलह के प्रयासों के बाद आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसने भी राजनीति के कर्णधारों को करारा तमाचा मारा है। राम मंदिर पिछले करीब चार दशकों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहा है। शायद ही ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी हो जिसने इस मुद्दे का राजनीतिक फायदा नहीं उठाया हो। खासकर 1992 के बाद राम मंदिर मुद्दे ने भारतीय राजनीति की धारा को ही बदल कर रख दिया था। सियासी सियारों ने अपनी राजनीति को धार देने के लिए हिंदू मुस्लिमों के बीच एक ऐसी विचारधारा को जन्म दे दिया था जिसमें लोग अपने विवेक का इस्तेमाल करना भूल गए थे। बहुत कुछ खोने के बाद जब इस भूल का अहसास हुआ तो हर तरफ न तो मंदिर जलते दिख रहे थे और न मस्जिद जलते, सिर्फ धुंआ ही दिख रहा था।
इस धुंए में लोगों ने अपने आप को देखा। अपनों को देखा। गंगा-यमुनी तहजीब देखी। फिर जाकर अहसास हुआ कि हम कहां हैं। हम क्या कर रहे हैं। शनिवार का दिन भी कुछ ऐसा ही था। शायद यही कारण था कि लोकतंत्र अपने सच्चे मायनों में सामने था। न्यायतंत्र अपनी जगह सही था और लोकतंत्र के छाते के नीचे हर कोई सिर्फ एक हिंदुस्तानी था। यह देखना कितना सुखद है। राम की जीत हुई और सियासी रावणों का आज अंत हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया है कि आज के बाद किसी भी राजनीतिक दल के पास राम मंदिर मुद्दा नहीं होगा। कोई भी दल मंदिर मस्जिद के नाम पर राजनीति चमकाने से पहले चार बार सोचेगा। अगर किसी ने मंदिर मस्जिद के नाम पर बांटने की कोशिश भी की तो हमें एक हिंदुस्तानी बनकर उन्हें करारा जवाब देना होगा। जैसा अभी दिया है।
मंदिर मस्जिद के नाम पर धार्मिक भावनाओं को भड़काने, देश की अखंडता, एकता, समरसता पर कुठाराघात करने वालों को हिंदुस्तानियों जो करारा जवाब दिया है वह एक नजीर बन गई है। फैसला चाहे जो आता, लेकिन उस फैसले से पहले ही तमाम हिंदू और मुस्लिम पक्षकारों ने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि किसी भी कीमत पर सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने नहीं दिया जाएगा।
जरा मंथन करिए और सोचिए कि जिस राम मंदिर की वर्षों से सेवा करने वाला एक मुसलमान है। जिस पुरातत्व विभाग के रिपोर्ट को आधार बनाकर कोर्ट ने अपना फैसला दिया है उस रिपोर्ट को बनाने वाला एक मुस्लिम अधिकारी है। मुस्लिम पक्ष का मुकदमा लड़ने वाला वकील एक हिंदू है। ऐसे हिंदुस्तान में सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वालों की क्या हैसियत। यह हमारी और आपकी ही जिम्मेदारी है कि इस तहजीब और सद्भाव को बनाएं। सियासत का मूल मंत्र ही है कि लड़वाओ और शासन करो। हमेशा से ऐसा ही होता आ रहा है। पर जब-जब एक आम आदमी ने अपनी अक्ल से काम लिया है ऐसे सियासतदानों को करारा जवाब ही मिला है।
फैसले के बाद जिस तरह ओवैसी जैसे नेताओं ने तीखे बोल से प्रतिक्रिया दी और लोगों को भड़काने का काम किया वो बेहद निंदनीय है। पर लोगों ने जिस समझदारी का परिचय दिया उसका कोई मोल नहीं। मंथन करें कि क्यों नहीं इस अनमोल समझदारी को हर एक हिंदुस्तानी हमेशा दिल में रखे। हमें समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र का आधार राजनीति है, पर राजनीति का आधार सांप्रदायिक नहीं हो सकता। अंत में चलते-चलते मेरे परम प्रिय शायर मुनव्वर राणा की इन चार पंक्तियों को जरूर पढ़ें और हमेशा गुनगुनाते रहें कि..
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है,
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है।
तवायफ की तरह अपने गलत कामों
के चेहरे पर,
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है।

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