Break the sticks of hatred to throw greed: नफरत की लाठी तोड़ो लालच का खंजर फेंको

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बिना किसी संकोच के नफरत के खिलाफ जंग लड़नी होगी। समाज में अमन और चैन कायम करने के लिए लालच और स्वार्थ छोड़ने होंगे। नफरत की तारीफ नहीं की जा सकती। यदि नफरत के खिलाफ आवाज उठ रही है तो उसमें मीन-मेष निकालने के बजाय समस्या की जड़ तक पहुंचने की कोशिश करनी होगी। हम चर्चा कर रहे हैं मॉब लिंचिंग के खिलाफ 49 हस्तियों द्वारा पीएम मोदी को लिखे खत का। इस मामले का स्याह पक्ष यह है कि नफरत के खिलाफ आवाज उठाने वालों की आलोचना करने के लिए बॉलीवुड की 62 अन्य हस्तियों ने भी खुला पत्र लिखा है। मेरे ख्याल से यह परिपाटी ठीक नहीं है। अब समझ में नहीं आ रहा है कि किसे नफरत का पोषक और किसे इसका विरोधी बताएं। दरअसल, दोनों पक्ष नफरत पर अपना-अपना तर्क दे रहा है। पर सवाल यह है कि क्या नफरत की भी अलग-अलग परिभाषा हो सकती है? शायद नहीं। यह स्पष्ट होना चाहिए कि नफरत के बीज चाहे कोई भी बोए, उसका कड़ा विरोध होना चाहिए। यहां धर्म-जाति से कोई मतलब रखना ठीक नहीं। खैर, फिलहाल यह मामला लगातार गमार्ता जा रहा है। यह भी कह सकते हैं कि आज के हालात में जो कुछ भी हो रहा है, उसे देख गुस्सा भी आ रहा है। लोकतंत्र बचाने को नफरत की दीवारें तोड़नी होंगी। इसके लिए समवेत प्रयास करने होंगे।
जरा सोचिए, जंगल में पशु रहते हैं और समाज में मनुष्य। यही समाज और जंगल के बीच का मूल अंतर है। कहा जा सकता है कि जंगल के कानून अलग हैं, समाज के कानून अलग हैं। प्राय: ये देखा गया है कि जंगल में भूख के कारणवश ही एक पशु, दूसरे पशु का भक्षण करता है वरना जंगल में शांति ही वास करती है। हालांकि जंगल और समाज की तुलना करना बहुत मुश्किल काम है, मगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जो हो रहा है वो ये कहने के लिए काफी है कि अब समाज जंगल बन रहा है। समाज में रह रही भीड़ एक दूसरे के खून की प्यासा हो रही है और लगातार इंसानियत को शर्मिंदा किए जा रही है। मीडिया के जरिए हम लगातार यहीं सुन रहे हैं कि जरा- जरा सी बात पर लोग अपना आपा खोकर एक-दूसरे को मौत के घाट उतारे जा रहे हैं। अब ये सुनना हमारे लिए एक आम सी बात है कि भीड़ द्वारा लगातार धर्म का सहारा लिया जा रहा है और लोगों को मारकर मानवता को शर्मसार किया जा रहा है। हो सकता है उपरोक्त बातें को पढ़कर आप सोचने पर मजबूर हो जाएं कि आखिर ऐसा क्या हो गया जो हमें आज अचानक ही जंगल और समाज की याद आ गई। क्यों हम इसके इर्द-गिर्द बातें का ताना बाना बुन रहे हैं। तो अखलाक से लेकर पहलू खां और डॉक्टर नारंग से लेकर जुनैद तक कई ऐसी बातें हैं जो ये बताने के लिए काफी है कि अब भारत भीड़ के द्वारा गर्त के अंधेरों में जा रहे हैं। यह अपने आप में दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे भी ज्यादा चिंतनीय तो यह है कि जो इसका विरोध कर रहा है, उसके विरोधी भी सक्रिय हो गए हैं।
पिछले दिनों देश के 49 बौद्धिकों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी। चिट्ठी लिखने वालों की सात पुश्तों की खबर ली जा रही है। उनके बारे में ऐसी-ऐसी बातें बताई जा रही हैं, जो वे खुद भी अपने और अपने खानदान के बारे में नहीं जानते होंगे। इस पूरी बहस का लब्बोलुआब यह है कि ये चिट्ठी लिखने वाले अवार्ड वापसी गैंग के सदस्य हैं और इनका तो खानदानी काम ही नरेंद्र मोदी की सरकार का विरोध करना है।
पर, क्या सच में ऐसा है? क्या चिट्ठी लिखने वालों को अवार्ड वापसी गैंग का सदस्य बता कर उनकी चिट्ठी में उठाई गई चिंताओं को खारिज किया जा सकता है? इस चिट्ठी में मॉब लिंचिंग को लेकर चिंता जताई गई है। यह चिंता सिर्फ रामचंद्र गुहा या अनुराग कश्यप या स्वरा भास्कर की नहीं है, सरकार की भी होनी चाहिए। पर सरकार चिंतित नहीं है। बीते दिनों सरकार ने संसद में इस बारे में एक बयान दिया। यह अलग बात है कि उसके बयान में इसे एक बड़े खतरे के तौर पर स्वीकार करने और उससे निपटने का भाव नहीं था। देश के 49 बौद्धिकों की चिट्ठी में दो चिंताएं बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं। पहली चिंता मॉब लिंचिंग यानी भीड़ की हिंसा की है और दूसरी चिंता जय श्री राम के धार्मिक नारे का इस्तेमाल हथियार के तौर पर किए जाने की है। चिट्ठी लिखने वालों की चिंता मूलत: सामाजिक विभाजन और तनाव की है। इनसे पहले देश के जाने-माने उद्योगपति आदि गोदरेज ने भी एक चिट्ठी लिखी थी और उन्होंने इसी प्रवृत्ति का जिक्र किया था। पर उनकी चिंता मूलत: आर्थिक थी। उन्होंने कहा था कि मॉब लिंचिंग की घटनाओं का बहुत खराब संदेश दुनिया के देशों में जा रहा है और इससे निवेश प्रभावित हो सकता है।
चाहे इतिहासकार रामचंद्र गुहा हों या उद्योगपति आदि गोदरेज दोनों अपनी-अपनी चिंता में एक खास किस्म के सामाजिक विभाजन, टकराव और तनाव को समझ रहे हैं पर हैरानी की बात है कि सरकार इसे नहीं समझ पा रही है। या समझने के बावजूद इसकी अनदेखी कर रही है। यह अनदेखी बहुत खतरनाक हो सकती है। हो सकता है कि कुछ लोगों को इसमें अपना राजनीतिक फायदा दिख रहा हो पर वह फायदा क्षणिक है। दीर्घावधि में देश के सामाजिक ताने बाने को बहुत नुकसान पहुंचाने वाला है। इस मामले में सत्ता से जुड़े लोगों की चुप्पी भी कम खतरनाक नहीं है। वे न तो आदि गोदरेज की चिट्ठी पर कुछ बोलते हैं और न देश के जाने-माने बौद्धिकों की चिंता पर चुप्पी तोड़ते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने वाले अन्ना हजारे ने भी उनको अनेक चिट्ठियां लिखीं पर उन्होंने उनका कभी भी जवाब नहीं दिया। वे ट्विटर पर बहुत सक्रिय हैं और छोटी-छोटी बातों पर प्रतिक्रिया देते रहते हैं। पर मॉब लिंचिंग, धार्मिक नारे लगा कर लोगों के साथ मारपीट किए जाने, धार्मिक भावनाओं को आहत करने, भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रही आवाजों को न तो सुनते हैं और न उन पर प्रतिक्रिया देते हैं।
मॉब लिंचिंग के विरोधियों के विरोध में लिखे गए पांच दर्जन से ज्यादा चिट्ठियों में कहा गया है कि कुछ लोग अंतरराष्ट्रीय रूप से भारत की छवि खराब करने के लिए गलत नैरेटिव चला रहे हैं। ये लोग तब चुप रहते हैं जब नक्सल हमले में सीमांच तबकों, आदिवासियों की मौत हो जाती है। जब कश्मीर में अलगाववादी स्कूलों को जला देते हैं। तब ये मौन रहते हैं। इस ओपन लेटर में ऐसी कई सारी घटनाओं का जिक्र करते हुए लिखा गया है कि लोकतंत्र के ये तथाकथित रक्षक दक्षिणपंथी लोगों के मारे जाने पर मौन रहते हैं। ये लोग अलगाववादी और आतंकी घटनाओं के वक्त आतंकियों के प्रवक्ता की तरह बयानबाजी करते हैं। इन पत्रों में प्रधानमंत्री मोदी के सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास की भी तारीफ की गई है। मॉब लिंचिंग और नफरत के खिलाफ आवाज उठाने वालों के खिलाफ इस तरह की बातें लिखना बेशक उनके मनोबल को तोड़ने जैसा है। मेरा मानना है कि चाहें वह कोई भी हो, यदि नफरत फैला रहा है तो उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।
चाहें वह किसी भी जाति-धर्म का क्यों न हो। लेकिन इस तरह से नफरत की परिभाषा को अपने अनुकूल गढ़ने की सोच ठीक नहीं है। वजह स्पष्ट है, यदि नफरत इसी तरह से पलता-बढ़ता रहेगा तो वह किसी को भी अपनी जद में ले सकता है। नफरत न बढ़े, इसके लिए समवेत प्रयास किए जाने चाहिए, न कि अपने मनमुताबिक इसकी परिभाषाएं गढ़कर इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बहरहाल, यह कह सकते हैं कि सबसे बड़ी जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार को चाहिए कि वह अनावश्यक बातों में उलझने के बजाय नफरत फैलाने वालों और मॉब लिंचिंग को बढ़ावा देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का प्रवाधान करें ताकि नकारात्मक सोच वालों के मन में कानून का डर पैदा हो। फिलहाल, लोकतंत्र को बचाना सबसे जरूरी है। इसके लिए हमें नफरत की लाठी तोड़नी होगी, लालच के खंजर फेंकने होंगे। तब जाकर शायद हालात बदले। वरना, समस्याएं इसी तरह मुंह बाए खड़ी रहेगी।

राजीव रंजन तिवारी
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(लेखक आज समाज के समाचार संपादक हैं)

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