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Silence towards public movements in Lokshahi can make the movement violent: विमर्श – लोकशाही में जनआंदोलनों के प्रति चुप्पी आंदोलन को हिंसक बना सकती है.

भोजपुरी में नजरअंदाजी के लिये एक शब्द है, महठियाना। यानी चीजें सामने घट रही हैं, सुनाई दे रही है, फिर भी मूँदहू आंख कतहु कुछ नाहीं के भाव से, उसे होते देते रहना, और उससे मुंह चुरा कर, बने रहना, इस शब्द का मूल आशय है। ऐसी नजरअंदाजी, समाज और परिवार में तो कभी कभी चल जाती है, पर सरकार या गवर्नेंस या शासन प्रशासन में नहीं चल पाती है, बल्कि वह ऐसा संकट कभी कभी खड़ा कर देती है जिससे कि अच्छे खासे शासन की उपलब्धियां भी गौण हो जाती हैं, और गवर्नेंस की सारी चर्चा उसकी कमियों पर ही केंद्रित हो जाती है। यह बात मैं पिछले चार महीने से चल रहे तीन कृषि कानूनो के खिलाफ किसानों के आंदोलन के संदर्भ में कह रहा हूँ। आज जब हरियाणा में किसानों पर बर्बर लाठी चार्ज होता है, बूढ़े और बुजुर्ग किसानों की रक्तरंजित घायलावस्था में तस्वीरें अखबारों, सोशल मीडिया में तैरती हुयी दिखती हैं तो, सारा गुस्सा और खीज सरकार पर निकलने लगता है। इस लाठी चार्ज के बारे में तर्क दिया जा सकता है, कि किसानों ने हरियाणा के मुख्यमंत्री को उनके इलाके में जाने से रोका था, तो पुलिस ने कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये बल प्रयोग किया था, और यह चोटें उसी सिलसिले में आयी हैं। अब यहीं यह सवाल उठता है कि, किसानों ने मुख्यमंत्री को क्यों रोका था ? इस पर उन्हें अराजकता फैलाने वाला, कहने वाली जमात, कहेगी कि वे एक नाजायज मांग कर रहे हैं और जबर्दस्ती अपनी मांग मनवाना चाहते हैं और वे हिंसक हो रहे हैं। पर यहीं यह भी सवाल उठता है कि चार माह से धरने पर बैठे, किसानों की बात सुनने और उनकी समस्याओं के हल के लिये सरकार ने क्या प्रयास किये ? और यदि सामुहिक फ्रस्ट्रेशन और हताशा से यह आंदोलन हिंसक हो जाता है तो क्या सरकार को इस दोष से अलग रखा जा सकता है ? मेरा मानना है, नहीं।

दुनियाभर में सरकारों के खिलाफ जनता में, असंतोष पनपता रहता है और वह असंतोष, अपनी अपनी तरह से, समय समय पर अभिव्यक्त भी होता रहता है। कभी कभी वह अभिव्यक्ति क्षेत्रीय स्तर पर ही सिमटती रहती है या फिर वह व्यापक भी हो जाती रही है। ऐसे व्यापक आंदोलनो का नेतृत्व करने वाले, भले ही यह दावा करे कि वह ही इस आंदोलन को चला रहा है, और वही स्टीयरिंग व्हील पर बैठा है, पर वास्तविकता यह होती है कि जनता ही ऐसे आंदोलनों के केंद्र में आ जाती है, और कभी कभी वह इतनी आक्रामक हो जाती है कि, आंदोलन का नेतृत्व भी उसकी मांगो और व्यापकता के आगे घुटने टेक देता है। ऐसे आंदोलन भले ही अहिसा की भावना से शुरू किए गए हो, पर वे पूर्ण अहिंसक कभी भी रह नहीं पाते हैं। उदाहरण के लिये महात्मा गांधी का 1921 का असहयोग आंदोलन और 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन का नाम लिया जा सकता है। देश मे महात्मा गांधी के आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के बाद, स्वाधीनता संग्राम में सबसे गुणात्मक परिवर्तन यह हुआ था कि, आज़ादी या होमरूल की बात, जो एलीट वर्ग के ड्राइंग रुमो में चल रही थी, को गांधी जी ने निकाल कर उसे गांव गांव में फैला दिया था। अंग्रेजी शिक्षा में पला बढ़ा और पगा भारतीय एलीट क्लास, जो पुनर्जागरण के लम्बे आंदोलन और यूरोपीय बदलाव की रोशनी से प्रभावित हो अपनी खुदमुख्तारी और आज़ादी, जिसका अर्थ तब तक होमरूल ही था, चाहता तो था, पर उसके लिये, उसके पास, जनता को अपनी इस मुहिम में, अपने साथ जोड़ने का हुनर नही था। वह जनसरोकार की राजनीति से फिलहाल दूर था। हालांकि, तिलक जैसे राजनीतिक व्यक्ति ने स्वतंत्रता की मांग पुरजोर तरीके से की थी, वे जेल भी गए, यातना भी सहे, कुछ आंदोलन भी हुए, जनजागरण के लिये गणपति उत्सव भी उन्होंने आयोजित किये, पर जनता को अंदर तक वे मथ न सके। यह काम गांधी ने किया। यदि कोई एक वाक्य में गांधी का स्वाधीनता संग्राम में योगदान पूछे तो, मेरी समझ मे यही उत्तर होगा कि उन्होंने आज़ादी की इच्छा जगा दी, अंग्रेजों का डर, और ग़ुलाम बने रहने की हीनभावना से लोगो को मुक्त कर दिया और ब्रिटेन जिसके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, वह, एक समय ऐसा भी आया कि, सूरज उसकी दहलीज पर ही डूबने लगा, और यह सब हुआ, आज़ादी के लक्ष्य की पूर्ति के लिये जनता की व्यापक, संगठित, और निडर भागीदारी से।

कभी कभी जो चीजें, सामने घट रही होती है, वे अक्सर न तो उतनी महत्वपूर्ण दिखती हैं और न ही उतनी प्रभावित करती हैं। पर भविष्य में जब इतिहास लिखा जाता है, तो, आज का वर्तमान, भविष्य में अतीत के रूप में अलग ही दिखता है। समकालीन आंदोलनों, घटनाओं, और जनता पर उसके असर का अध्ययन अधिकाश प्रत्यक्षदर्शी समीक्षक या सरकारे या नेता नहीं कर पाते हैं, और यही कारण है कि वे उन जन आंदोलनों के प्रति या तो उदासीन बन जाते हैं, या उसका समाधान, कानून व्यवस्था के तयशुदा फॉर्मूले से करने लगते हैं। दीवार पर लिखी इबारत वे समय रहते पढ नहीं पाते हैं और इस मुगालते में मुब्तिला रहते हैं कि वक़्त इस आंदोलन को तोड़ देगा, और लोग ऊब कर टूट जाएंगे तथा इन सब मामलो में राजनीतिक रूप से धुरंधर लोग भी बजाय राजनीतिक दृष्टिकोण के आंदोलन की मांगों और जनता की समस्या को हल करने के बजाय, नौकरशाही पर भरोसा करते हैं, और फिर जो होता है उसे अखबार और जनता दमन कहती है, तथा सरकार उसे सख्त प्रशासन। पर इससे, न तो आंदोलन टूटता और न ही बिखरता है, बल्कि वह प्रत्यक्ष रूप से भले ही बिखरा हुआ दिखे पर अंदर अंदर और मज़बूत होता जाता है तथा सबसे बड़ी बात यह होती है कि, आंदोलन जो अपनी कुछ मांगो के लिये शुरू हुआ था, उन मांगो में सरकार का अंत या सत्ता का बदलाव भी जुड़ जाता है। आज चार महीने से चल रहा किसान आंदोलन, इसी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है।

वर्तमान किसान आंदोलन, आज़ादी के बाद का सबसे लंबा और व्यवस्थित आंदोलन है जो किसानों की एक बेहद जायज मांग कि, उन्हें उनके फसल की उचित कीमत मिलनी चाहिए, को दृष्टिगत रख कर शुरू हुआ है। इसके पहले देश मे जेपी आंदोलन (1974 -76), मंडल आयोग के विरोध और समर्थन में हुआ आंदोलन (1990-91) और रामजन्मभूमि आंदोलन (1989-92) भी हुए हैं, पर वर्तमान किसान आंदोलन इन सबसे अलग है। जेपी आंदोलन, पहले भ्रष्टाचार और फिर इमरजेंसी के खिलाफ हुआ, मंडल आन्दोलन, ओबीसी आरक्षण की सिफारिशों को लागू करने के विरोध और समर्थन में हुआ, और रामजन्मभूमि आंदोलन का उद्देश्य ही अलग था, वह आस्था पर आधारित था। पर इन तीनो आंदोलनों का एक परिणाम यह हुआ कि, तीनो आंदोलनों के कारण तत्कालीन सरकारें गिरी। तीनो ही आंदोलनों में थोड़ी बहुत हिंसा हुयी, लेकिन जेपी आंदोलन में हिंसा कम हुयी, मंडल आंदोलन में हिंसा हुयी और अयोध्या आंदोलन में तो देश भर में, साम्प्रदायिक दंगे ही भड़क उठे थे। एक और आंदोलन का उल्लेख किया जा सकता है, 2012-13 का अन्ना आन्दोलन। पर वह उपरोक्त तीन आंदोलनों की तुलना में कम व्यापक था। जबकि किसान आंदोलन, व्यवस्थित, शांतिपूर्ण और बेहद संगठित रूप से चल रहा है। यह आंदोलन अपनी संगठनात्मक क्षमता और 40 किसान संघो के सामुहिक और परिपक्व नेतृत्व के काऱण न केवल देश भर में धीरे धीरे फैलता जा रहा है, बल्कि दुनियाभर के देशो और संयुक्त राष्ट्र संघ का भी इस आंदोलन से ध्यान खींचा है। आज चार माह से अधिक हो जाने पर भी आंदोलन न तो थका हुआ लग रहा है और न ही भटक रहा है। सरकार की सबसे बडी समस्या एक यह भी है।

अब एक नज़र आंदोलन की क्रोनोलॉजी पर डालते हैं। जून में तीन कृषि कानूनों पर सरकार अध्यादेश लाती है और तब देश मे कोरोना के कारण जगह जगह बंदी रहती है और सितंबर में रविवार के दिन राजसभा में उपसभापति, सारी संसदीय मर्यादाओं को ताख पर रख कर, मत विभाजन की मांग के बावजूद, मत विभाजन न करा कर, ध्वनि मत से तीनों कानून विपक्ष के पुरजोर विरोध के बाद, पारित घोषित कर देते हैं। सरकार को तब तक अंदाज़ा नहीं था, यह तीन कृषिकानून उसके लिये बवाले जान बनने जा रहे हैं। यह अंदाजा शायद किसी को भी नहीं था कि सरकार के लिये, यह एक आत्मघाती कदम सिद्ध हो सकता है। पंजाब में इसे लेकर आंदोलन की शुरुआत हुयी और सरकार को लगा कि यह आंदोलन पंजाब के समृद्ध किसानों का है और हरियाणा में नही प्रवेश करेगा। लेकिन यह आंदोलन मज़बूत होता रहा और किसानों ने 26 नवम्बर 2020 को दिल्ली कूच का कार्यक्रम रखा। पंजाब की सीमा दिल्ली से सीधे नहीं मिलती है, बीच मे हरियाणा पड़ता है। हरियाणा सरकार ने भारत सरकार को बताया कि यह आंदोलन हरियाणा में कमज़ोर पड़ जायेगा। पर जब दिल्ली कूच का अभियान शुरू हुआ तो पंजाब और हरियाणा ने मिल कर इस आंदोलन को औऱ मज़बूत और संगठित कर दिया। 26 नवम्बर को सिंघू, और टिकरी सीमा पर किसानों के जत्थे आने लगे और दिल्ली की सीमा सील थी तो वे, वहीं बैठ गए। सरकार ने हरियाणा और पंजाब को आपस मे लड़ाने के लिये सतलज यमुना नहर का विवादित मुद्दा उठाया, पर सरकार की यह विभाजनकारी चाल भी असफल सिद्ध हो गयी। सरकार तब भी इसी मुगालते में रही कि, किसान ऊब कर चले जायेंगे।

लेकिन किसान न ऊबे, न थके और न टूटे। सरकार का आकलन गलत निकला। पंजाब हरियाणा के आंदोलन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी जुड़ गया और शुरुआत में जो आंदोलन केवल पंजाब के कुछ जिलों का ही था, वह पंजाब, हरियाणा को समेटते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान तक फैल गया और इसका प्रचार देश भर में होंने लगा। किसान कानूनो को लेकर कृषि वैज्ञानिकों के भी अलग अलग धड़े बन गए और कुछ लोगो ने इन कानूनो को किसानों के हित मे बताया तो कुछ ने इसे किसानों को बरबाद कर देने वाला कहा। उन कानूनो के गुणदोष पर बहुत कुछ कहा जा चुका है और अब भी कहा जा रहा है, यहाँ कानूनो की मेरिट पर बात करना विषयांतर होगा। सरकार ने जब देखा कि किसान आंदोलन को परंपरागत मीडिया की नजरअंदाजी के बाद भी देश, विदेश में व्यापक समर्थन मिल रहा है तब सरकार ने बातचीत का सिलसिला जारी रखा और कुल दर्जन भर बात चली। लेकिन सरकार किसानों को यह समझा नहीं पायी कि किस तरह से यह कानून उनके हित है। एक तरफ सरकार बात करती रही और दूसरी तरफ सरकार के समर्थक किसानों को खालिस्तानी, अलगाववादी, और आढ़तियों का आंदोलन कह कर बदनाम करते रहे, पर सोशल मीडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले शौकिया और कुछ पेशेवर पत्रकारों ने जो ज़मीनी हक़ीक़त इस आंदोलन के बारे में सामने लाकर रखी, उस कारण, जनता में सरकार, दरबारी मीडिया और सत्तारूढ़ दल के लोग, आम जन को गुमराह नहीं कर पाए। सरकार ने इन कानूनों में, कुछ संशोधन की बात रखी, सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला गया, पर किसान अपनी प्रमुख मांगो, तीनो कृषिकानून की वापसी और एमएसपी पर एक नये कानून की मांग पर डटे रहे और आज भी वे इसी मांग पर डटे हैं।

अब आंदोलन का स्वरूप बदलने लगा है। पहले यह आंदोलन जहां दिल्ली सीमा, ग़ाज़ीपुर, सिंघू, टिकरी औऱ शाहजहांपुर स्थानों पर केंद्रित था, वहीं यह अब जगह जगह महापंचायतों के रूप में फैल गया है। इन महापंचायतों में भारी संख्या में किसान एकत्र हो रहे हैं। इस समागम ने धार्मिक मतभेद भी खत्म कर दिए है, जो कुछ सालों से समाज मे पनप गए थे। यह इस आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि है। लोग अपनी साझी समस्याओं के बारे में चर्चा कर रहे हैं, और किसान नेता उन्हें क़ानून के बारे में सारी बात समझा रहे हैं और उन्हें यह भी बता रहे हैं कि सरकारी मंडी के बराबर निजी मंडी कैसे सरकार की मंडी को चलन से बाहर कर देगी और कॉरपोरेट पूरे कृषि बाजार पर हावी हो जाएंगे। कैसे जमाखोरी को अब वैध बना दिया गया है, और कैसे कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसानों के लिये अदालती उपचार के रास्ते पर कीलें ठोंक दी गयी है। किसानों के युवा संताने अब होरी मार्का गांव के भोले भाले किसानों की छवी से काफी आगे आ चुके है। उनके पास दुनियाभर के किसानों और खेती के आंकड़े हैं, दुनियाभर में किसानों को क्या क्या सरकारे सब्सिडी दे रही है, यह उनकी मोबाइलों में भरा पड़ा है। उनके सवालात सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों को भी लाजवाब कर दे रहे हैं। देविंदर शर्मा, पी साईनाथ, योगेंद्र यादव जैसे विश्लेषक किसानों को इन कानूनो की भयावहता से अवगत करा रहे हैं। खेती सदैव से, घाटे का काम रही है। किसान को उसके उपज की उचित कीमत कम ही मिलती रही है। कभी उत्तम खेती कहा जाने वाला यह कर्म अब, आकाशवृत्ति सरीखा व्यवसाय बन गया है। सरकारों ने भी जबानी जमाखर्च के अतिरिक्त, किसानों के लिए कुछ खास नही किया और आज किसान जब आर पार के संकल्प के साथ अपने अधिकारों के लिये डट कर खड़ा है तो सरकार की यह चुप्पी एक आपराधिक खामोशी है। समस्या से मुँहचोरी करना है, महठियाना है।

इधर हाल में घटी कुछ घटनाएं जो किसान आंदोलन को हिंसक रूप लेते हुए दिख रही हैं, विशेषकर हरियाणा की कुछ घटनाएं, वे सरकार के लिये चिंताजनक हों या न हों, पर वे, आंदोलन के लिये परेशानी का कारण बन सकती हैं। पिछले चार महीने से हरियाणा सरकार के मंत्री और विधायक अपने अपने क्षेत्रों में जा नहीं पा रहे हैं। वे हेलीकॉप्टर से भी अपना दौरा नहीं कर पा रहे हैं, उन्हें जनता का जबरदस्त प्रतिरोध झेलना पड़ रहा है। यह कहना उचित है कि, किसानों को हिंसा का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। पर जब हम यह शांति का पैगाम उन्हें दें तो चार महीनों की घटना, जिंसमे सरकार और सत्तारूढ़ दल का क्या दृष्टिकोण रहा है उनकी मांगों के बारे में, उनकी समस्याओं के संदर्भ में, उन्हें किस प्रकार से खालिस्तानी, अलगाववादी कह कर लांछित किया गया है, कैसे दुष्प्रचारवादी आईटी सेल ने उन्हें उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है, कैसे मंत्रियों तक ने उनके आंदोलन और उनकी जायज मांगो का मज़ाक़ उड़ाया है, और कैसे उनके खातों की केवल इस लिये जांच, ईडी और आयकर द्वारा करायी गयी है, इन सब पर भी एक नज़र डाल लेनी चाहिए। उत्तेजित होकर हिंसक हो जाना एक मानवीय इंस्टिंक्ट है, और किसान आंदोलन हो या कोई भी जनआंदोलन, इस बेसिक इंस्टिंक्ट से मुक्त नहीं रहता है। जब आदमी या समूह उत्तेजित और हिंसक होता है तो वह परिणाम नहीं देखता है, यह बात अलग है कि परिणाम सुखद होता भी नहीं है। इस आंदोलन की मानसिकता को अच्छी तरह से समझते हुए मेघालय के गवर्नर सतपाल मलिक ने यह बात बहुत साफ साफ कही है कि, किसान खाली हांथ नहीं जाने वाले हैं। यदि गए तो फिर इसे लम्बे समय तक नहीं भूलने वाले हैं। सतपाल मलिक आंदोलन के ही क्षेत्र से आते हैं और वे वहां की मानसिकता से अच्छी तरह वाकिफ हैं।

किसान आंदोलन किसी राजनीतिक दल का आंदोलन नहीं है और न ही यह किसी राजनैतिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित है। यह आंदोलन सरकार के उस वादाखिलाफी के खिलाफ है जिसे सरकार ने 2014 में किया था, कि वह स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करेगी। सरकार का वादा तो अब भी वही है, पर उसे लागू करने का इरादा सरकार का अब भी नहीं है। यदि स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशे, अनुचित हैं तो, उसके विकल्प ढूंढने की जिम्मेदारी भी सरकार की ही है। पिछले 6 सालों में सरकार की जो आर्थिक नीतियां रही हैं, वे पूरी तरह से पूंजीपतियों के पक्ष में झुकी रही है। चाहे, 2014 में सरकार ने सत्ता संभालते ही, भूमि अधिग्रहण बिल लाया हो, या नोटबन्दी की हो, या सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की नीति हो, या नए श्रम कानून रहे हों या यह तीनों कृषिकानून हों, सबका यदि अध्ययन किया जाय तो हर कानून का लाभ पूंजीपतियों को साफ मिलता दिख रहा है और इन कदमो का असर जनता पर विपरीत ही पड़ा है। नोटबन्दी से मध्यम व्यापार, एमएसएमई तबाह हो गए, जीएसटी की जटिलता से, व्यापारी परेशान है, सब कुछ निजी क्षेत्रों को बेच दो के सन्निपात से, देश की सार्वजनिक कम्पनियां औने पौने दाम में बेची जा रही हैं, नए श्रम कानून, श्रमिको को पूंजीपतियों का ग़ुलाम बना कर रख देने वाले हैं और अब यह नए तीनो कृषिकानून, देश की कृषि संस्कृति को ही बरबाद करने की साज़िश के रूप में सामने आये हैं।

लेकिन, किसान इस खतरे को भांप गए और वे, अपने अस्तित्व, अस्मिता और भविष्य को बचाने के लिये सड़को पर उतर आए और अब उनका यह आंदोलन एक व्यापक जनजागरण का स्वरूप ले रहा है। विपक्ष भी उनके साथ खड़ा है, और अब यह आंदोलन एक समवेत प्रतिरोध का रूप ले चुका है। सरकार की चुप्पी भले ही एक रणनीति के तहत हो, पर वह चुप्पी उसके प्रशासनिक अक्षमता की ही मानी जायेगी। किसानों की मांग जायज है। सरकार ने अपने कानून में कमियां भी मानी हैं, सरकार कुछ संशोधन के लिये राजी भी थी, पर वे संशोधन क्या थे न तो सरकार ने सार्वजनिक किए और न ही उन पर कोई कार्यवाही भी की। सरकार यदि कानून होल्ड पर रखने को राजी है, तो फिर उन्हें रद्द करके किसानों की सहमति और संसद की स्टैंडिंग कमेटी से राय लेकर दुबारा पारित करने में क्या समस्या है ? जैसी छिटपुट हिंसक घटनाएं हरियाणा में घट रही हैं, वैसी घटनाएं आगे और न हों, इसके लिये जरूरी है कि, सरकार अपनी चुप्पी और मूदहुँ आंख कतहुं कुछ नाही की नीति छोड़े, मोहनिद्रा से बाहर आये और जनरव को सुने तथा इसका समाधान निकाले। जैसी एकजुटता औऱ संकल्प किसान संघो में दिख रहा है, उससे एक बात तो फिलहाल तय है कि, यह आंदोलन थक कर बिखरने वाला नहीं है। अब यह सरकार को तय करना है कि वह रेत में सिर घुसाए रहेगी या इसका समाधान करेगी।

(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

( विजय शंकर सिंह )

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