Editorial Aaj Samaaj: देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पेश की थी सादगी की मिसाल

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Editorial Aaj Samaaj: शरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पेश की थी सादगी की मिसाल
Editorial Aaj Samaaj: शरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पेश की थी सादगी की मिसाल

Editorial Aaj Samaaj | अरविंद कुमार सिंह |राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि मैं मैं चाहता हूं कि भारत का प्रथम राष्ट्रपति एक किसान हो। इसलिए क्योंकि भारत गांवो का देश है। संयोग से गांव और गिरांव के हमदर्द और दिल से किसान डॉ राजेंद्र प्रसाद भारत के राष्ट्रपति बने। हालांकि इसे देखने के लिए गांधीजी जीवित नहीं थे, पर पहले भारत गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति के रूप में राजेंद्र बाबू ने जो परंपराएं कायम की जो मानदंड स्थापित किए, जैसा सादगी भरा जीवन उन्होंने जिया, उसकी आज भी मिसाल दी जाती है। अंतरिम राष्ट्रपति रहने के बाद वे लगातार दो बार देश के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और इतनी लंबी लकीर खींची कि वहां तक कोई और नहीं पहुंच सका है।

अरविंद कुमार सिंह

महान नायक राजेंद्र प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी और विद्वान थे। आज उनकी 141वीं जयंती है, 1963 में उनका निधन हो गया था पर वे अपने कामकाज से लोगों की स्मृतियों में बने हुए हैं। महान स्वाधीनता सेनानी और राष्ट्र निर्माता राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष और तीन बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। चोटी के नेताओं के साथ काम करते हुए उन्होंने अपनी प्रतिभा से एक अलग पहचान बनायी। जीवन भर वे गांधी पथ के समर्पित यात्री रहे। पर वे गांव और किसानो के हितैषी थे। 1946 में भारत की अंतरिम सरकार में उनके व्यापक अनुभवों के आधार पर ही उन्हें कृषि और खाद्य मंत्री बनाया गया था। भारत के पहले कृषि मंत्री के रूप में उन्होंने अधिक अन्न उपजाओ योजना के लिए एक ठोस रणनीति बनाई।

राष्ट्रपति पद से विदाई के मौके पर राजेद्र प्रसाद के सम्मान में दिल्ली में लाल किले पर एक विशाल रैली हुई थी जिसमें 12 मई, 1962 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि भारतीय गणतंत्र के 12 साल राजेंद्र युग के नाम से याद किए जाएंगे। वास्तव में राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति काल में इतिहास रचा गया था। वैसे तो अंग्रेजी राज में राष्ट्रपति भवन का नाम वायसराय का निवास था।

लोगों को लगता था कि ब्रिटेन के राजमहल, अमेरिकी राष्ट्रपति से लेकर ब्रुनेई के सुल्तान से भी बड़ा महल 340 कमरों वाला राष्ट्रपति छोटे नगर जैसा है। पर राजेंद्र बाबू ने इसे सादगी का केंद्र बनाया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद 24 जनवरी 1950 को सर्वसम्मति से भारत के अंतरिम राष्ट्रपति इस विचार से बनाए गए थे कि संविधान विशेषज्ञ होने के कारण वे संविधान के बेहतर संरक्षक साबित होंगे।

संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में उनका कामकाज ऐतिहासिक था। सभापीठ से तमाम अहम मुद्दों पर उन्होंने लंबी चर्चाओं के बाद बेहतर राह निकालने का प्रयास किया। 1950 में अंतरिम राष्ट्रपति बनने के बाद वे 1952 और 1957 में दो बार राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। कुल 12 साल तीन महीने और 17 दिन वे राष्ट्रपति भवन में रहे पर राष्ट्रपति भवन की राजसी भव्यता को उन्होंने सादगी का प्रतीक बना दिया। राष्ट्रपति के रूप में अपना 10 हजार रुपए मासिक वेतन को आधे से भी कम करा दिया। परिवार के सदस्यों, मेहमानों और मित्रों पर होने वाले व्यय को वे सरकारी खर्चों में डालना पसंद नहीं करते थे।  राष्ट्रपति भवन में तमाम व्यस्तताओं के बाद भी वे नियमित चरखा कातते थे।

25 जनवरी 1960 की रात वे मां समान अपनी बड़ी बहन भगवती देवी के निधन पर भारी शोक में डूबे थे। पर 26 जनवरी की परेड में सलामी लेने के दौरान वे सामान्य दिखे और कर्तव्य पालन किया। वहां से लौट कर अपनी बहन का शव लेकर वे यमुना तट पर पहुंचे थे। ऐसा था उनका समर्पण। वे नाज़ुक स्वास्थ्य के बावजूद वे देश भर में घूमते थे और साल में 150 दिन रेलगाड़ी से सफर कर लोगों का दुख दर्द सुनते थे। संवैधानिक मामलों पर उनका तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ विचार भेद भी था।

नेहरूजी के साथ उनके कई पत्राचार भी हुए पर दोनों नेताओं के बीच बेहतरीन संबंध कायम थे। हर सोमवार नियमित रूप से पंडित जवाहर लाल नेहरू उनसे मिल कर सारे जरूरी मसलों पर चर्चा करते थे। 1962 में राजेंद्र बाबू को भारत रत्न से सम्मानित किया गया था और पंडित नेहरू की ही सलाह पर उनके सम्मान में 13 मई, 1962 को डाक टिकट जारी कर एक नयी परंपरा आरंभ की गयी थी। राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने जो परंपराएं स्थापित कीं, आगे राष्ट्रपति उसी लकीर पर आगे बढे। राष्ट्रपति बनने के बाद भी उन्होंने जनता के बीच अपनी सक्रियता को विराम नहीं दिया।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर, 1884 को बिहार के सारन जिले (अब सीवान) के जीरादेई गांव में बाबू महादेव सहाय के प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। 1902 में कोलकाता के मशहूर प्रेसीडेंसी कालेज में प्रवेश करने के बाद  वे सिस्टर निवेदिता और सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसी बड़ी हस्तियों के संपर्क में आए। 1904 में एफए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद सर जगदीश चंद्र बसु और डा.प्रफुल्ल चंद्र राय जैसी हस्तियां से उन्होंने विज्ञान की शिक्षा हासिल की थी। कानून में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने वाले वे देश के तब गिने-चुने लोगों में थे। 1916 में पटना हाईकोर्ट की स्थापना के बाद बहुत जल्दी चोटी के वकील भी बने, पर गांधीजी की अपील पर उन्होंने सन् 1921 में उन्होने वकालत छोड़ कर खुद को आजादी की लड़ाई में झोंक दिया। उसे पहले चंपारण सत्याग्रह में उन्होने गांधीजी का काफी सहयोग किया और 1934 में बिहार के भूकंप राहत में तो उनकी प्रेरक भूमिका की सराहना शीर्ष नायकों ने भी की थी।

डा.राजेंद्र प्रसाद हिंदी, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी भाषा के अच्छे ज्ञाता और बड़े लेखक भी थे। 1920 के दशक में हिंदी साप्ताहिक देश तथा अंग्रेजी पाक्षिक सर्चलाइट का संपादन भी उन्होंने किया था। चंपारन सत्याग्रह, इंडिया डिवाइडेड, एट द फीट आफ महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद: आत्मकथा और बिहार जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें उन्होंने लिखीं, जो उनकी विद्वता के साथ उनके व्यापक अनुभवों को दर्शाती है। 1962 में जब राष्ट्रपति भवन से उनका कार्यकाल पूरा हुआ तो उन्होने अपनी कर्मभूमि बिहार में लौटने का फैसला किया। अपनी विदाई के अवसर पर उन्होंने कहा था कि मुझे यहां रहते हुए न तो विशेष प्रसन्नता अनुभव होती थी, न ही छोडऩे पर दुख या विषाद हो रहा है। मैं सदाकत आश्रम से यहां आया था, और आज वहीं जा रहा हूं।

राजेंद्र बाबू का राष्ट्रपति के रूप में विदाई के बाद उनके सम्मान में ऐतिहासिक रामलीला मैदान पर विशाल रैली हुई थी। जब वे दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो रहे थे तो उस समय उनको विदाई देने भारी जनसमुद्र उमड़ पड़ा था। दिल्ली की तडक़- भडक़ की जगह उन्होंने जीवन के आखिरी दिन पटना के सदाकत आश्रम में ही बिताए पर वहां भी वे तटस्थ दर्शक की भांति नहीं बैठे रहे। अपने विचारों को लगातार व्यक्त करते रहे। सदाकत आश्रम में ही उन्होंने 28 फ़रवरी, 1963 को उन्होने आखिरी सांस ली था। भारत सरकार ने 3 दिसंबर 1984 को डा. राजेंद्र प्रसाद की जन्म शताब्दी के मौके पर डाक टिकट जारी किया। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)