जीवन जीने का विज्ञान है भगवत गीता
Bhagavad Gita, (आज समाज), नई दिल्ली: भगवत गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का विज्ञान है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य के स्वभाव, उसके कर्म और जीवन के उद्देश्य को सरल शब्दों में समझाया है। गीता के सोलहवें अध्याय दैवासुर सम्पद्विभाग योग में श्रीकृष्ण ने मनुष्य के भीतर मौजूद दिव्य और आसुरी गुणों का वर्णन करते हुए तीन ऐसे दोष बताए हैं, जिन्हें उन्होंने सीधा विनाश का कारण कहा है। ये हैं काम, क्रोध और लोभ। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये तीनों दोष मनुष्य की बुद्धि, चरित्र और जीवन को अंदर से खोखला कर देते हैं। इसलिए जो व्यक्ति इनसे बच गया, वह जीवन में सफलता, शांति और सम्मान प्राप्त करता है।
विनाश की ओर ले जाने वाले तीन महापाप
सोलहवें अध्याय के श्लोक संख्या 21 में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से तीन ऐसे दुगुर्णों के बारे में बताया है, जिन्हें मनुष्य की आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन द्वार कहा गया है। ये तीन महापाप इंसान की जिदगी को पूरी तरह से बर्बाद कर देते हैं और उन्हें जीवन के उच्च लक्ष्यों से भटका देते हैं।
अत्यधिक वासना और इच्छा
- बबार्दी का कारण: जब मनुष्य की इच्छाएं असीमित हो जाती हैं, तो वह उन्हें पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। यह उसे अनैतिक कार्य करने, दूसरों का शोषण करने और अपने कर्तव्यों को भूलने के लिए प्रेरित करता है।
- परिणाम: यह दुर्गुण व्यक्ति को हमेशा अतृप्त रखता है। इच्छाएं पूरी न होने पर दु:ख और क्रोध उत्पन्न होता है, और पूरी होने पर और अधिक इच्छाएँ जन्म लेती हैं। इस प्रकार, मनुष्य कभी भी शांति और संतोष प्राप्त नहीं कर पाता।
गुस्सा
- बबार्दी का कारण: क्रोध बुद्धि का नाश कर देता है। गीता के ही दूसरे अध्याय में कहा गया है कि क्रोध से मूढ़ता (विवेकहीनता) आती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रम (सही-गलत की पहचान खत्म) होता है, और स्मृति भ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि के नाश होने पर मनुष्य का पतन निश्चित है।
- परिणाम: क्रोध में व्यक्ति ऐसे निर्णय ले लेता है या ऐसे वचन बोल देता है जिसके कारण उसके संबंध, स्वास्थ्य और करियर सब बर्बाद हो जाते हैं। यह न केवल दूसरों को हानि पहुंचाता है, बल्कि स्वयं व्यक्ति की मानसिक शांति को भी नष्ट कर देता है।
लालच
- बबार्दी का कारण: लोभी व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ के बारे में सोचता है। वह धन इकट्ठा करने में इतना व्यस्त हो जाता है कि न्याय, धर्म, और दया जैसे मानवीय गुणों को त्याग देता है। लालच उसे चोरी, धोखा, और अन्याय जैसे पाप कर्मों की ओर धकेलता है।
- परिणाम: लालच व्यक्ति को कृपण (कंजूस) और स्वार्थी बना देता है। वह दूसरों की मदद नहीं कर पाता और हमेशा अभाव की भावना में जीता है, भले ही उसके पास कितना भी धन क्यों न हो। यह सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को कमजोर कर देता है।
श्लोक
- एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर:। आचरत्यात्मन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥
भावार्थ: सोलहवें अध्याय के श्लोक संख्या 22 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे कुन्तीपुत्र! जो मनुष्य इन तीन नरक के द्वारों से मुक्त हो जाता है, वह अपने कल्याण के लिए आचरण करता है और फलस्वरूप परम गति को प्राप्त होता है।