क्या हैं पर्व का महत्व
Shardiya Navratri, (आज समाज), नई दिल्ली: शारदीय नवरात्र की शुरुआत 22 सितंबर से हो चुकी है। शारदीय नवरात्र एक अक्टूबर को समाप्त होंगे। इसी अवधि में दुर्गा पूजा का पर्व भी मनाया जाता है जिसकी धूम खासकर पश्चिम बंगाल में देखने को मिलती है। इस पावन अवधि में साधक व्रत करते हैं और देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना करते हैं।

यह पर्व शक्ति उपासना का महान उत्सव है, जिसकी जड़ें अकाल बोधन की कथा से जुड़ी हैं। क्या आप जानते हैं कि शारदीय नवरात्र की शुरूआत कैसे और कब हुई? यदि नहीं तो चलिए हम बताते हैं।

शारदीय नवरात्र का आधार

त्रेतायुग में जब भगवान श्रीराम रावण का वध करने के लिए लंका पहुंचे, तब देवताओं ने उन्हें मां दुर्गा की आराधना करने का परामर्श दिया। वैसे तो नवरात्रि चैत्र मास और आश्विन मास में आती है, लेकिन उस समय दक्षिणायन काल था, जब देवता योग निद्रा में रहते हैं। इस दौरान पूजा करना शास्त्रों के अनुसार संभव नहीं था।

श्रीराम ने मां दुर्गा का किया अकाल बोधन

विजय प्राप्त करने के लिए श्रीराम ने मां दुर्गा का अकाल बोधन किया, मतलब उन्हें उनके निर्धारित समय से पूर्व जगाया। उन्होंने शुद्ध हृदय और गहन श्रद्धा के साथ मां दुर्गा की उपासना की और मां दुर्गा ने प्रसन्न होकर श्रीराम को विजय का आशीर्वाद दिया। इसके परिणामस्वरूप दशमी के दिन रावण का वध हुआ और इस दिन को विजयदशमी या दशहरा कहा जाने लगा।

शारदीय नवरात्र की शुरूआत

इसी घटना से प्रेरित होकर शारदीय नवरात्र की शुरूआत हुई। माना जाता है कि जब-जब जीवन में कोई बड़ा संकट आता है, तब मां दुर्गा की आराधना करने से शक्ति, साहस और विजय प्राप्त होती है। इसलिए आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली नवरात्र को विशेष रूप से मां दुर्गा की उपासना का पर्व माना जाता है।

सांस्कृतिक और सामाजिक पहलू

भारत के अलग-अलग राज्यों में शारदीय नवरात्र को विविध परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है। बंगाल में यह दुर्गा पूजा के रूप में विशेष धूमधाम से मनाई जाती है, जहां भव्य पंडाल और प्रतिमाओं की स्थापना होती है। गुजरात और महाराष्ट्र में गरबा और डांडिया का आयोजन इस पर्व का सांस्कृतिक रंग बढ़ा देता है।

वहीं, उत्तर भारत में रामलीला और दशहरा के माध्यम से श्रीराम की लीला और रावण-वध की गाथा प्रस्तुत की जाती है। इन सभी परंपराओं के माध्यम से नवरात्र न केवल भक्ति और आराधना का समय है, बल्कि सांस्कृतिक एकता और सामूहिक उत्सव का प्रतीक भी बन जाती है।