Editorial Aaj Samaaj | दीपिका लाठर सिंह| इस साल की महाशिवरात्रि बीत चुकी है और इस दौरान कांवड़ यात्रा ने उत्तर भारत के भक्तों के बीच गहरी आस्था और उत्साह जगाया। हर साल की तरह लाखों श्रद्धालु गंगा जल लेकर अपने शिवालयों की ओर प्रस्थान करते हैं, जो तप, त्याग और भक्ति का प्रतीक है। लेकिन इस बार यात्रा के दौरान कुछ ऐसी घटनाएं और सामाजिक प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं, जिन्होंने इस पावन परंपरा के स्वरूप और भावार्थ पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

सदियों से शिव भक्तों की आस्था का प्रतीक रही है कांवड़ यात्रा

कांवड़ यात्रा सदियों से शिव भक्तों की आस्था का प्रतीक रही है। जल लेकर अपने भोलेनाथ के मंदिर में जलाभिषेक करना और कठिनाइयों को सहकर यात्रा पूरी करना भक्ति और तपस्या का रूप है। लेकिन आज की युवा पीढ़ी में इसे भक्ति से ज्यादा ‘शक्ति प्रदर्शन’ और ‘इवेंट’ की तरह देखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इस बार कांवड़ यात्रा के दौरान तेज डीजे, बाइक रैलियां, भगवा झंडों के साथ सड़कों पर जमावड़ा और कई जगहों पर सार्वजनिक अनुशासन की कमी देखने को मिली। इस वजह से आम जनता को असुविधा हुई, यातायात बाधित हुआ, और प्रशासन की व्यवस्था चुनौतीपूर्ण साबित हुई।

श्रद्धालु पूजा के बजाय शोर-शराबे और भिड़ंत में उलझे

कई बार श्रद्धालु पूजा के बजाय शोर-शराबे और भिड़ंत में उलझे नजर आए। इस तरह की घटनाएं यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि कहीं यह यात्रा भक्ति से अधिक प्रदर्शन का माध्यम तो नहीं बन रही। इस साल हरियाणा और आसपास के राज्यों से कई स्थानों पर कांवड़ियों की आपस में और कांवड़ियों तथा स्थानीय लोगों के बीच मारपीट की घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं। कहीं सड़कें जाम रहीं, कहीं दुकानदारों से अनावश्यक विवाद हुए। कुछ स्थानों पर जबरन दुकानें बंद करवाई गईं या

सोशल मीडिया पर जातिगत टिप्पणियों का प्रवाह

एंम्बुलेंस की आवाजाही बाधित हुई। ऐसे मामलों में ज्यादातर युवा शामिल थे, जो सोशल मीडिया पर अपनी ‘धार्मिक यात्रा’ के वीडियो वायरल कर अपनी मौजूदगी दर्ज कराना चाहते थे। कभी-कभी ये वीडियो आपसी विवाद और गलतफहमियों को और बढ़ावा देते दिखे। इस बार एक और नकारात्मक पहलू यह रहा कि सोशल मीडिया पर कांवड़ यात्रा को लेकर जातिगत टिप्पणियों का प्रवाह देखने को मिला। कुछ लोग यह बताने लगे कि इस यात्रा में कौन-कौन सी जाति के लोग शामिल हैं, और इस पर राजनीतिक या सामाजिक बहसें छिड़ गईं। यह प्रवृत्ति बेहद चिंताजनक है क्योंकि शिव की भक्ति का सार ही समावेश और एकता है।

शिवभक्ति में जाति, वर्ग आदि की कोई सीमा नहीं

शिव की पूजा में जाति, वर्ग, या सामाजिक पहचान की कोई सीमा नहीं होती। जब धार्मिक आयोजन जाति आधारित टिप्पणी और भेदभाव का मंच बन जाते हैं, तो समाज में विभाजन और कटुता बढ़ती है। इसके खिलाफ समाज के सभी वर्गों को आवाज उठानी होगी। फिर भी पूरी यात्रा को नकारात्मक कहना उचित नहीं होगा। कई जगहों पर कांवड़ सेवा शिविरों ने नि:शुल्क भोजन, चिकित्सा, और सुरक्षा व्यवस्था का उत्कृष्ट काम किया। कुछ श्रद्धालु सादगी और संयम के साथ यात्रा करते दिखे, बिना शोर-शराबे के, केवल शिव भक्ति में लीन। यह वही भावना है जो कांवड़ यात्रा की असली आत्मा है।

ट्रैफिक कंट्रोल और सफाई में सहयोग

युवा स्वयंसेवकों ने भी प्रशासन के साथ मिलकर ट्रैफिक कंट्रोल और सफाई में सहयोग दिया, जो काबिले तारीफ है। कांवड़ यात्रा को सिर्फ धार्मिक उत्सव के तौर पर नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए। प्रशासन को चाहिए कि वह कड़ी सुरक्षा, साफ-सफाई, और यातायात व्यवस्था सुनिश्चित करे ताकि श्रद्धालु सुरक्षित और आरामदायक यात्रा कर सकें।साथ ही, धार्मिक और सामाजिक नेताओं को युवाओं को भक्ति का सही मायना समझाने पर जोर देना चाहिए कि भक्ति का मतलब शक्ति प्रदर्शन या शोहरत नहीं, बल्कि संयम, सहिष्णुता और सेवा है।

कुछ ऐसे सवाल भी छोड़े जिनका जवाब देना जरूरी

इस साल की कांवड़ यात्रा ने कई सकारात्मक पहलू तो दिखाए, लेकिन कुछ ऐसे सवाल भी छोड़े हैं जिनका जवाब देना जरूरी है। सवाल है कि क्या भक्ति के इस पावन आयोजन को युवा ह्यधार्मिक इवेंटह्ण के रूप में देखने लगे हैं? क्या सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने इसे जाति और पहचान के संघर्ष का मंच बना दिया है? क्या हम कांवड़ यात्रा को उसकी मूल भावना से दूर होते देख रहे हैं? महाशिवरात्रि तो बीत चुकी है, पर इन सवालों का जवाब हमें मिलकर, समाज और प्रशासन के सहयोग से देना होगा। तभी यह यात्रा फिर से अपनी पुरानी पवित्रता और सम्मान हासिल कर पाएगी।

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