1989 में अमेरिकी राजनीतिविज्ञानी फ्रांसिस फुकुयामा ने घोषणा की कि उदार लोकतंत्र के आखिरी विजय ने पूर्वी और मध्य यूरोप में उथल पुथल मचा दी और इसीलिए “द एंड आॅफ हिस्ट्री” नाम की उनकी किताब को यह शीर्षक मिला। तीन दशक बाद इस साल म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में उन्होंने खुले आम यह स्वीकार किया कि उनके सारे पूवार्नुमान सच नहीं साबित हुए.
आज यूरोप और अमेरिका के बीच तनाव है, पश्चिमी देश और रूस के रिश्ते आपसी अविश्वास की भेंट चढ़ रहे हैं। इन्हीं सब के बीच अमेरिका चीन का रिश्ता जिस हाल में है उसे पहले ही नया शीत युद्ध कहा जाने लगा है। अगर किसी को इस बात में कोई शंका है कि दुनिया “द एंड आॅफ हिस्ट्री” से बहुत दूर है तो उसे दुनिया में हथियारों पर हो रहे खर्च पर एक नजर डालनी चाहिए। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी सिपरी के मुताबिक पिछले साल हथियारों की बिक्री में हुआ इजाफा दस सालों में सबसे बड़ा था। अमेरिका अब भी इसमें सिरमौर बना हुआ है और भूरणनीति में उसका शत्रु चीन उससे ठीक पीछे है. रूस अब इस कतार में चौथे नंबर पर उनसे बहुत दूर चला गया है।
30 साल पहले जब शीत युद्ध तात्कालिक रूप से खत्म हुआ तो उस वक्त को “उम्मीदों की बड़ी अनुभूति” कहा गया था लेकिन इन नंबरों के आधार पर अब वो उम्मीदें कल्पना से परे हैं। उस वक्त माहौल उम्मीदों और आकांक्षाओं के बोझ से भारी था. अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में बड़ी बड़ी योजनाएं पेश की गईं। उस वक्त सोवियत संघ के राष्ट्रपति रहे मिखाईल गोबार्चोव ने एक “साझा यूरोपीय घर” के रूप में अपनी दूरदर्शिता को सामने रखा जिसमें सारे लोग एक समान सुरक्षा की भावना को महसूस कर सकें। साल 1990 के नवंबर में 34 राष्ट्रप्रमुखों ने कांफ्रेंस आॅन सिक्योरिटी एंड कॉपोर्रेशन इन यूरोप में हिस्सा लिया और पेरिस चार्टर पर दस्तखत कर बड़े शानदार तरीके से एलान किया कि यूरोप का विभाजन अब एक पुरानी बात हो गई। पेरिस की उस कांफ्रेंस में जर्मन चांसलर हेल्मुट कोल के सलाहकार थे होर्स्ट तेल्चिक। एक इंटरव्यू में तेल्चिक ने हस्ताक्षर वाले पल को याद किया, “गोबार्चोव खड़े हुए और कहा, ‘हमारा काम है तानाशाही से लोकतंत्र और नियोजित अर्थव्यवस्था से बाजार वाली अर्थव्यवस्था की ओर जाना.’ इन सिद्धांतों को चार्टर में शामिल किया गया।”
इस शुरूआती उत्साह का अब बहुत कम ही अवशेष बचा है. उस वक्त पश्चिमी जर्मनी के विदेश मंत्री रहे हांस डिट्रीष गेंशर ने एक लेख में कहा था, “ऐसा लगा कि कुछ लोग विभाजन से उबरने में दिलचस्पी नहीं ले रहे थे, केवल इतना चाह रहे थे कि विभाजन की रेखाएं मध्य यूरोप से पूर्वी यूरोप की तरफ चली जाएं। रूस को पूरब की तरफ नाटो के विस्तार करने के राजनीतिक फैसले ने जितना चिढ़ाया उतना और किसी फैसले ने नहीं। यह काम 1990 में शुरू हुआ था। जब जर्मनी के एकीकरण के लिए गोबार्चोव और कोल शर्तें तय कर रहे थे तो गोबार्चोव साफ तौर पर इस बात पर रजामंद हुए कि एक सार्वभौम देश के रूप में जर्मनी नाटो का सदस्य रह सकता है बस शर्त इतनी होगी की नाटो के किसी सैनिक को भूतपूर्व पूर्वी जर्मनी के इलाके में तैनात नहीं किया जाएगा। चांसलर के सलाहकार तेल्चिक ने कहा कि और ज्यादा पूर्व की तरफ विस्तार के बारे में गोबार्चोव और कोल ने बात भी नहीं की थी, “1990 की गर्मियों में किसी को यह अंदाजा नहीं था कि वार्सा संधि संगठन 9 महीने बाद खत्म हो जाएगा और उसके छह महीने बाद खुद सोवियत संघ ही नहीं बचेगा।”
इतिहासकार अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और उनके विदेश मंत्री जेम्स बेकर के उस वादे को भी याद करते हैं जिसमें उन्होंने गठबंधन में एक समेकित पूरे यूरोप के सुरक्षा ढांचे की बात की थी. हरेक अमेरिकी नेता इस बात से बिल्कुल वाकिफ था कि पूरब की तरफ पश्चिमी सैन्य गठबंधन के विस्तार को रूस 1990 के सहयोगी भावना से धोखे के रूप में देखेगा। 1997 में एक खुले पत्र में 40 से ज्यादा पूर्व सीनेटरों, सरकारी अधिकारियों, राजदूतों, निशस्त्रीकरण और सैन्य मामलों के जानकारों ने बुश के उत्तराधिकारी बिल क्लिंटन को सलाह दी थी कि नाटो का पूरब की तरफ विस्तार गैर लोकतांत्रिक विपक्ष को मजबूत करेगा और सुधार करने वाली ताकतों को कमजोर करेगा। आज तेल्चिक मानते हैं, “नाटो, यूरोपीय नेताओं और अमेरिका को पुतिन को न्यौता देना चाहिए, आइए साथ बैठ कर सारी आपत्तियों पर चर्चा करते हैं।” लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। शायद पश्चिमी देशों और अमेरिका के माथे पर उनकी जीत कुछ ज्यादा जल्दी सवार हो गई। इतिहासकार जाराउष कहते हैं, “साल 2000 तक के एक निश्चित दौर के लिए अमेरिका अकेला सुपरपावर बच गया। रूसियों के सामने उनकी अपनी समस्याएं थी और साम्यवाद इतिहास बन गया।” जाराउष कहते हैं कि नेता साम्यवाद के आधुनिक स्वरूप का आकलन करने में नाकाम हो गए, खासतौर से चीन में।
लंबे समय तक यह देश पश्चिम के लिए एक बड़े बाजार और सस्ते वर्कशॉप के रूप में देखा जाता रहा। बीते 30 साल में ना केवल चीन को इससे बड़ा फायदा हुआ बल्कि जर्मन कंपनियों ने भी इसका खूब मुनाफा कमाया। तब दलील यह दी गई कि जब चीन का मध्यवर्ग आखिरकार उभरेगा तो वह कानून के शासन और लोकतंत्र की मांग करेगा। ऐसा हुआ नहीं. शी जिनपिंग के चीन के राष्ट्रपति और कम्युनिस्ट पार्टी का प्रमुख बनने के बाद चीन घरेलू मोर्चे पर दमनकारी और अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर आक्रामक रुख को मजबूत करता जा रहा है। उदाहरण के लिए अब शिनजियांग या हांगकांग और दक्षिण चीन सागर या ताइवान की तरफ देख सकते हैं. बर्लिन के राजनीतिविज्ञानी एबरहार्ट जांडश्नाइडर बहुत उम्मीद नहीं रखते है. उनका कहना है, “अगर 1.4 अरब कीआबादी वाला कोई देश 38 सालों तक 10 फीसदी या उससे ज्यादा का विकास दर हासिल कर लेता है तो इसके बाद यह देश अपने आर्थिक ताकत को राजनीतिक प्रभाव और आकिरकार सैन्य ताकत में बदलने में सक्षम हो जाता है।”
शी जिनपिंग ने अपने देश के लिए बहुत महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए हैं। वह पीपुल्स रिपब्लिक आॅफ चायना को 2049 में उसके सौंवे स्थापना दिवस पर एक परिपक्व आधुनिक समाजवादी ताकत बनाना चाहते हैं जिसके पास अपने नियम बनाने और अंतरराष्ट्रीय मामलों की दशा दिशा तय करने के साथ ही आर्थिक और तकनीकी रूप से नेतृत्व करने की क्षमता होगी। चीन मामलों के विशेषज्ञ सेबास्टियन हाइलमान का कहना है कि चीन दुनिया को लेकर अपनी महत्वाकांक्षा के बारे में पूरी तरह स्पष्ट सोच रखता है उसे नेतृत्व करना है। हाइलमान ने कहा, “निश्चित रूप से यह पहले से सुपरपावर रहे अमेरिका के हितों के खिलाफ है।” हाइलमान का अनुमान है कि दुनिया दो ध्रुवों में विभाजित हो रही है और यह सेना या राजनीति ताकत के आधार पर नहीं है बल्कि तकनीक के आधार पर है, “हमें भविष्य में तकनीक की एक नई रेंज की उम्मीद करनी होगी जिसके अलग मानक और काम होंगे. मैं ऐसे तकनीकी जगत की बात कर रहा हूं जिनमें पूरी तरह से अलग मानकों, कंपनियों और नियमों का बोलबाला होगा।
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