Editorial Aaj Samaaj | राजीव रंजन तिवारी | बिहार में विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां चरम पर है। इस बीच लोगों के दिल-ओ-दिमाग में एक सवाल अक्सर कुलांचे मार ही जाता है कि आखिर सुशासन बाबू कर क्या रहे हैं? सुशासन बाबू यानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू के सर्वेसर्वा नीतीश कुमार की कार्यशैली ने लोगों के लिए उन्हें सुशासन बाबू बना दिया। बिहार को लेकर उनके दृष्टिकोण और कामकाज का अंदाज सबको भा गया। नतीजा, लगभग बीस वर्ष से बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं। हर तरह से सक्रिय रहने वाले सुशासन बाबू (sushasan babu) इस चुनाव में क्या सोच रहे है? इस चुनावी गहमागहमी के बीच कमोबेश पूरा बिहार यह जानने की कोशिश कर रहा है।
नीतीश बाबू की गिनती पढ़े-लिखे होशियार नेताओं में की जाती है। बातचीत भी परिमार्जित। अंदाज-ए-बयां भी अनोखा। उनकी परिपक्व शैली सबको भाती है। चाहे वह पटना हो या दिल्ली, हर दिग्गज नेताओं से मधुर रिश्ते रखने में माहिर नीतीश कुमार को सुलझा हुआ सियासतदां माना जाता है। अब नीतीश कुमार किस हालत में हैं, यह कोई स्पष्ट नहीं बता रहा है। हालांकि उनकी पार्टी के नेता दबी जुबान कहते हैं कि नीतीश कुमार थोड़ा अस्वस्थ हैं, लेकिन पूरी तरह से सक्रिय हैं। लेकिन लगता नहीं। इस चुनाव में उनकी सक्रियता पर तमाम तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। आइए समझते हैं नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू की कहानी।
वर्ष 1999 से अस्तित्व में आया जदयू में अब अलग तरह की सियासत चल रही है। 2005 से नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू सत्ता में बना हुआ है। बीच में थोड़े अंतराल के लिए नीतीश कुमार की सरकार हटी, लेकिन फिर भी दो दशकों से बिहार की राजनीति जदयू और नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द ही घूम रही है। इससे पहले राजद प्रमुख लालू प्रसाद लंबे वक्त बिहार की राजनीति के केंद्र में रहे। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद ने 2020 के चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया, जिसमें नीतीश कुमार पिछड़ गए थे। अगर भाजपा का साथ नहीं होती तो शायद नीतीश कुमार को सत्ता भी नहीं मिलती। तेजस्वी अब भी जदयू और भाजपा के लिए चुनौती बने हुए हैं। चुनाव में चाहे राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन की हार हो या जीत हो, लालू और तेजस्वी हर हाल में प्रासंगिक बने रहेंगे, क्योंकि भाजपा के खिलाफ वे मजबूती से डटे हैं। जबकि जदयू के सर्वेसर्वा और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा के आगे इतना झुक चुके हैं कि अब उनकी पार्टी के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा होने लगा है।
राजनीति को करीब से समझने वाले बताते हैं कि भाजपा का इतिहास भी इसकी गवाही देता है कि जो क्षेत्रीय दल उसके मुकाबले मजबूत होता है, उसे गठबंधन में साथ लेकर भाजपा पहले उसे कमजोर करती है। न कर पाए तो उसे भीतर से तोड़ती है या फिर उसका विलय कर लेती है। किसी भी तरह गठबंधन के दल इतने ताकतवर न हो पाएं कि वे अपनी शर्तें भाजपा के सामने रखें, ऐसी रणनीति देखने को मिलती रही है। अटल बिहारी वाजपेयी के काल की भाजपा में ऐसा नहीं था, तब क्षेत्रीय दलों का अपना रसूख और जगह बरकरार थे। अब नए जमाने की भाजपा है, जिसमें हर हाल में बड़ा भाई भाजपा को ही रहना है। बिहार में पिछले 20 वर्षों से भाजपा बड़ा भाई बनने का मौका देख रही थी। चूंकि नीतीश कुमार को शारीरिक तौर पर कमजोर बताने की कोशिश हो रही है, इसलिए राजनीतिक तौर पर जदयू को कमजोर करने का मौका भाजपा के हाथ लग गया है। इस तरह के संकेत सियासी हलकों से मिल रहे हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे में जदयू और भाजपा दोनों ही 101-101 सीट पर चुनाव लड़ रही हैं। जबकि चिराग पासवान की लोजपा (रामविलास) 29 सीटों पर, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) और राष्ट्रीय लोक मोर्चा छह-छह सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। पिछले चुनाव में जदयू ने 115 सीटों और भाजपा ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था। कम सीटों पर नीतीश कुमार का मान जाना खुद जदयू के नेताओं के लिए झटका है, उनके लिए बड़े भाई या छोटे भाई बनने से बड़ा सवाल ये है कि अब जदयू बचेगा या नहीं? सीट शेयरिंग में भाजपा के अलावा केवल चिराग पासवान ही जीते हुए नजर आ रहे हैं, जिन्होंने 30 सीटें मांगी थी और 29 मिल गई हैं। दरअसल, चिराग पासवान इस बार बिहार में कई महीनों से तल्ख़ तेवर अपनाए हुए थे। नीतीश सरकार के कामकाज और राज्य की बिगड़ती क़ानून व्यवस्था का सवाल वो उठाते रहे और बीच-बीच में आम सभाएं कर अपनी ताकत केंद्र और भाजपा को भी दिखाते रहे।
जानकार मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी अभी चिराग पासवान जैसे युवा नेताओं की दरकार है, जो राहुल या तेजस्वी के सामने खड़े हो सकें। चिराग पासवान ने पिछले चुनाव में अकेले 135 सीट पर चुनाव लड़ा था और सिर्फ एक सीट पर जीत दर्ज की थी, वो विधायक भी बाद में जदयू में शामिल हो गए। इस तरह चिराग पासवान के पास सीटें एक भी नहीं हैं, लेकिन लोकसभा में उनके पांच सांसद हैं और अभी उन्हें अपने चाचा को कमजोर करते हुए लोजपा के दूसरे गुट को खत्म करके एकछत्र राज भी करना है। इसलिए उन्हें भाजपा की जरूरत है और भाजपा को उनकी। हालांकि चिराग पासवान को अन्य घटक दलों के हालात देखकर इतना सावधान रहना चाहिए कि कल को उनका हश्र भी शिवसेना, अकाली दल जैसा न हो जाए। वैसे जीतन राम मांझी की हम पार्टी को भी बीते विधानसभा चुनाव से एक सीट कम मिली, पिछली बार सात सीटों पर मांझी ने उम्मीदवार खड़े किए थे, इस बार वो छह सीटों पर लड़ेंगे। इस बात से वो नाखुश हैं, लेकिन शायद भाजपा के सामने इन्होंने भी हथियार डाल दिए हैं।
राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा के आरएलएम का भी यही हाल है। लेकिन इन सबकी स्थिति सत्ता में मामूली भागीदारी की ही रही है, जबकि नीतीश कुमार की स्थिति सत्ता पर काबिज होने वाली थी, जो अब शायद न रहे। एनडीए अगर जीतेगा तब भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन पाएंगे, इसकी संभावनाएं कम हैं। इसी साल फरवरी में मंत्रिमंडल विस्तार में जदयू के एक भी नेता को जगह नहीं मिली, सारे नेता भाजपा के ही थे। उस वक़्त ख़ुद को तसल्ली और मीडिया के सवालों को शांत करने के लिए जदयू के प्रवक्ता बार-बार दोहराते थे कि पार्टी विधानसभा चुनावों में भाजपा से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी, चाहे एक ही सीट ज़्यादा क्यों न हो। लेकिन अभी तो बराबरी का मामला सामने आया है। वैसे जदयू के बड़े भाई का ओहदा 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान ही चला गया था, तब जदयू 16 सीटों पर लड़ी थी और भाजपा 17 सीटों पर। जबकि 2019 में जदयू और भाजपा दोनों ही 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। 2009 में जदयू बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीट में से 25 सीट लड़ी थी और भाजपा ने 15 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन वह जदयू की मजबूती का दौर था। अब भाजपा से हाथ मिलाकर जदयू ने अपनी सारी शक्ति उसे सौंप दी है। नीतीश कुमार ने तो सत्ता का सेवन छक कर किया है, मगर अब उनके साथी व कार्यकर्ता सब अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं।
रणनीतिकार यह सवाल कर रहे हैं कि यदि नीतीश कुमार खुद फैसले लेने में सक्षम होते तो शायद इस तरह की परिस्थितियां नहीं बनती। दरअसल, कुछ सार्वजनिक कार्यक्रमों और बिहार विधानसभा के सत्र में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाषण और प्रतिक्रियाओं को लेकर सोशल मीडिया पर उनकी सेहत को लेकर चर्चा होने लगी। हालांकि राज्य सरकार और जदयू के साथ-साथ बीजेपी ने इसे ख़ारिज किया। कहा गया कि नीतीश कुमार बिल्कुल ठीक हैं और सरकार का नेतृत्व करने में सक्षम हैं। टिकट बंटवारे और सीटों के आबंटन को लेकर नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे जदयू के कुछ कार्यकर्ता पार्टी कार्यालय के भीतर ही खुलकर ये कहते सुनाई दे रहे हैं कि नीतीश कुमार की सेहत ठीक नहीं है। मतलब यह कि जब वे (नीतीश) ठीक रहते हैं तो पार्टी में चीज़ें सही होने लगती हैं लेकिन जैसे ही स्वास्थ्य बिगड़ता है, पार्टी पर उनकी कमान भी ढीली पड़ने लगती है। नतीजतन, पार्टी के कुछ नेता मनमानी करते हैं, जो पार्टी की सेहत के लिए ठीक नहीं है।
दूसरी ओर, कुछ लोग इन बातों को अफ़वाह बताते हैं। कहते हैं कि नीतीश कुमार बिल्कुल फिट हैं और गठबंधन में सीटों के बंटवारे से लेकर टिकट देने तक सारे फ़ैसले वही कर रहे हैं। ऐसे में सच्चाई क्या है, किसके दावे में कितनी प्रमाणिकता है। यह सबसे बड़ा सवाल है। इसका जवाब भी स्पष्ट रूप से नहीं मिल पा रहा है। फलस्वरूप नीतीश कुमार यानी सुशासन बाबू को दिल से चाहने वाले यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर नीतीश कुमार इस चुनाव को लेकर क्या सोच रहे हैं। वजह स्पष्ट है। बिहार के लोगों को नीतीश कुमार से निजी तौर पर काफी अपेक्षा है। इसमें कोई शक नहीं कि नीतीश के कार्यकाल में बिहार में कुछ इस तरह के काम हुए हैं, जिसे सदा याद रखा जाता है। बहरहाल, देखते हैं आने वाले समय में क्या सामने आता है। (लेखक आज समाज के संपादक हैं।)
यह भी पढ़ें : Editorial Aaj Samaaj: पूजा, ये तूने क्या किया