Editorial Aaj Samaaj | राकेश सिंह | अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 19 सितंबर 2025 को एक बड़ा फैसला लिया, जिसमें एच-1बी वीजा के लिए कंपनियों को हर साल 100,000 डॉलर (करीब 83 लाख रुपये) की फीस देनी होगी। यह पुरानी फीस से 10 गुना से भी ज्यादा है, क्योंकि पहले एच-1बी वीजा की फीस सिर्फ 215 डॉलर से लेकर कुछ हज़ार डॉलर तक होती थी। यह बदलाव 21 सितंबर 2025 से लागू हो जाएगा। इसका सबसे ज़्यादा असर भारतीयों पर पड़ेगा, क्योंकि एच-1बी वीजा धारकों में 71 प्रतिशत भारतीय हैं।

राकेश सिंह, प्रबंध संपादक, आईटीवी नेटवर्क।

एच-1बी वीजा क्या है?

एच-1बी वीजा एक स्पेशल वीजा है जो अमेरिकी कंपनियों को विदेशी स्किल्ड वर्कर्स को हायर करने की अनुमति देता है। खासकर आईटी, इंजीनियरिंग और टेक फील्ड में। हर साल अमेरिका में लाखों भारतीय इस वीजा पर जाते हैं, जैसे टीसीएस, इंफोसिस और एचसीएल जैसी कंपनियां अपने कर्मचारियों को अमेरिका भेजती हैं। लेकिन अब यह फीस इतनी ज़्यादा हो गई है कि कंपनियां कई बार सोचेंगी। उदाहरण के लिए, अगर कोई कंपनी एक भारतीय वर्कर को एच-1बी वीजा पर रखना चाहे, तो उसे हर साल 100,000 डॉलर अतिरिक्त खर्च करने पड़ेंगे। भारतीय आईटी कंपनियों ने 2025 में कुल 13,396 एच-1बी वीजा स्पॉन्सर किए थे, जिसकी पुरानी फीस करीब 13.4 मिलियन डॉलर थी, लेकिन अब यह 1.34 बिलियन डॉलर हो जाएगी। यानी, कंपनियों का प्रॉफिट 10 प्रतिशत तक कम हो सकता है।

भारतीयों पर क्या असर पड़ेगा?

सबसे पहले वीजा मिलना मुश्किल हो जाएगा। कंपनियां अब सिर्फ बहुत हाई-स्किल्ड और जरूरी वर्कर्स को ही स्पॉन्सर करेंगी, क्योंकि फीस इतनी महंगी है। युवा भारतीय इंजीनियर्स और आईटी प्रोफेशनल्स, जो अमेरिका में अच्छी सेलरी और करियर की उम्मीद करते हैं, उनके लिए दरवाजे बंद हो सकते हैं। माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियां अपने विदेशी कर्मचारियों को चेतावनी दे रही हैं कि 24 घंटे में फैसला लें, क्योंकि फीस बढ़ने से जॉब्स पर खतरा है। भारतीय आईटी इंडस्ट्री में शॉर्ट-टर्म में हलचल मचेगी, मार्जिन पर प्रेशर आएगा और कंपनियां लोकल अमेरिकी वर्कर्स को ज़्यादा हायर कर सकती हैं। हालांकि, कुछ एक्सपर्ट्स कहते हैं कि भारतीय कंपनियां पहले से ही एच-1बी वीजा पर निर्भरता कम कर रही हैं, एआई और लोकल हायरिंग की वजह से। इसलिए लॉन्ग-टर्म में असर कम हो सकता है। लेकिन फिलहाल, हजारों भारतीय परिवारों की अमेरिका जाने का सपना टूट सकता है, क्योंकि वीजा प्रोसेस अब और महंगा और कॉम्पिटिटिव हो जाएगा।

ट्रम्प की क्या योजना है?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का कहना है कि एच-1बी वीजा का दुरुपयोग हो रहा है। यह अमेरिकी वर्कर्स की जॉब्स छीन रहा है। वे इसे नेशनल सिक्योरिटी थ्रेट मानते हैं, क्योंकि कंपनियां सस्ते विदेशी वर्कर्स को हायर करके अमेरिकियों को निकाल देती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ आईटी कंपनियां एच-1बी वर्कर्स लाकर अमेरिकी कर्मचारियों को लेऑफ कर रही हैं। ट्रम्प की पॉलिसी में एक गोल्ड कार्ड वीज़ा भी है, जहां 1 मिलियन डॉलर (करीब 8.3 करोड़ रुपये) इन्वेस्ट करने वाले विदेशियों को तेज़ी से वीज़ा मिलेगा और 2 मिलियन डॉलर पर और भी तेज़। उनका मकसद अमेरिकी जॉब्स को प्रोटेक्ट करना है और अमीर इन्वेस्टर्स को आकर्षित करना।

भारत सरकार क्या करेगी?

भारत सरकार इस फैसले से चिंतित है, क्योंकि एच-1बी वीजा भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच पहले से ही ट्रेड और इमिग्रेशन पर बातचीत चल रही है। भारत एच-1बी वीजा प्रोग्राम को सुरक्षित रखने के लिए काम कर रहा है और ट्रम्प 2.0 में यह रिश्तों पर स्ट्रेन डाल सकता है। विदेश मंत्रालय शायद अमेरिका से डिप्लोमेटिक स्तर पर बात करेगा और भारतीय आईटी इंडस्ट्री के हितों की रक्षा करेगा। कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं कि भारत अनडॉक्यूमेंटेड भारतीयों पर ट्रम्प की सख्ती के खिलाफ भी आवाज उठाएगा। लेकिन ट्रम्प की प्रोजेक्ट फायरवॉल पॉलिसी से परमिट्स भी प्रभावित हो सकते हैं।

संवाद और विवाद दोनों एक साथ

डोनाल्ड ट्रम्प और नरेंद्र मोदी के बीच अच्छे रिश्ते हैं। दोनों के बीच ट्रेड डील्स पर चर्चा हो रही है। लेकिन यह फीस बढ़ोतरी भारतीयों को निशाना बनाती हुई लगती है। यह अमेरिका की अमेरिका फर्स्ट पॉलिसी का हिस्सा है, लेकिन भारत जैसे सहयोगी देशों के साथ टेंशन बढ़ा सकती है। एक्सपर्ट्स कहते हैं कि भारत को अपनी आईटी इंडस्ट्री को डाइवर्सिफाई करना चाहिए। जैसे कनाडा या यूरोप में ऑप्शन्स तलाशें। कुल मिलाकर, यह बदलाव भारतीय टैलेंट के लिए चुनौती है, लेकिन अगर सरकार सही कदम उठाए तो संभावित नुकसान को कम किया जा सकता है। बहरहाल, यह फैसला अमेरिकी इकोनॉमी को भी प्रभावित करेगा। क्योंकि टेक कंपनियां विदेशी टैलेंट पर निर्भर हैं। लेकिन ट्रंम्प का फोकस अमेरिकी जॉब्स पर है। भारतीयों को अब वीजा के लिए ज्यादा तैयारी करनी होगी और कंपनियां लागत कम करने के नए तरीके ढूंढेंगी। यह देखना होगा कि भारत और अमेरिका के रिश्ते इस झटके से कैसे उबरते हैं। (लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रबंध संपादक हैं।) 

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