Editorial Aaj Samaaj | राजीव रंजन तिवारी | देश में सियासत आजकल जलेबी की तरह घूम रही है। कभी उल्टी, कभी सीधी, कभी आड़ी तो कभी तिरछी। समीक्षक-विश्लेषक भ्रमित हैं। सोच रहे हैं कि आखिर यह जलेबी नुमा सियासत सीधी कब होगी। पर, लगातार बनते-बिगड़ते हालात को देखकर इसकी उम्मीद कम ही है। फिलहाल, एक बार फिर जोर परिवारवाद पर है। दरअसल, बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाला है। भले बात बिहार की हो, पर चर्चा पूरे देश में है। चर्चा के केंद्र में राजद नेता तेजस्वी यादव हैं। इसे लेकर दो तरह बातें हो रही हैं। एक तो यह कि क्या तेजस्वी यादव को जनता का प्यार मिलेगा अथवा वे अपनी असरदार परिवारवादी परंपरा के सहारे सियासी सोपान चढ़ेंगे। आइए, परिस्थितियों को समझते हैं।
देश में सियासी घरानों और चुनावी कामयाबियों की पेचीदा तथा विरोधाभासी दुनिया अक्सर आम लोगों को भ्रमित करती रहती है। लेकिन इसमें भ्रम-संशय की कोई आवश्यकता नहीं है। कारण भी स्पष्ट है, नेता का बेटा नेता ही बनेगा। अब इसकी बारीकी को महसूस करने के लिए सिर्फ इतना ही समझना है कि क्या नेता का बेटा जनता के प्यार से नेता बनेगा अथवा अपनी असरदार परिवारवादी परंपरा की वजह से नेता बनेगा। यदि इस बारीकी को ठीक से समझ लिया जाए तो मन में घुमड़ने वाली बहुत सारी मानसिक सियासी जटिलताएं खत्म हो जाएंगी। बिहार को लेकर भी पूरे देश में यही चर्चा है। लोग यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या लालू प्रसाद का पुत्र होने के नाते तेजस्वी आगे बढ़ रहे हैं अथवा उन्हें जनता का प्यार भी मिल रहा है।
राजद नेता तेजस्वी यादव को लेकर उनके समानांतर विरोधी विभिन्न सभाओं में यह बताने-जताने की कोशिश कर रहे हैं कि लालू-राबड़ी का परिवार बिहार की राजनीति में काफी आगे बढ़ चुका है। लोग सवाल करते हैं कि यदि लालू प्रसाद सामाजिक न्याय के पुरोधा हैं तो क्या उन्हें अपनी बिरादरी के किसी व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए। जबकि उनकी बिरादरी में भी अनेक लोग हैं, जो तेजस्वी यादव से बेहतर हैं। खैर, अगर नवंबर 2025 में राजद नेता तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनने का जनादेश मिल जाता है तो उन्हें एक ही परिवार से राज्य का तीसरा मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त होगा। लालू प्रसाद ने बिहार में 1990 से 1997 तक दो बार बतौर मुख्यमंत्री काम किया। उनकी पत्नी और तेजस्वी यादव की मां राबड़ी देवी ने 1997 से 2005 के बीच तीन बार मुख्यमंत्री बनीं।
लालू परिवार के सियासी उन्नयन के सूक्ष्म बिंदुओं को समझाते हुए राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रोफेसर नवल किशोर कहते हैं कि तेजस्वी यादव का मुख्यमंत्री बनने में किसी तरह का अड़चन और संशय नहीं है। उनका स्पष्ट कहना है कि बिहार में जिस तरह की सियासी हवा बह रही है, वह यही बता रही है कि तेजस्वी यादव के अलावा राज्य में कोई अन्य विकल्प है ही नहीं। प्रोफेसर नवल किशोर का कहना है कि बिहार की अधिसंख्य आबादी का सर्वाधिक प्यार तेजस्वी यादव को मिल रहा है। इसका प्रमाण है, उनकी सभाओं में स्वतःस्फूर्त उमड़ने वाली भारी भीड़। भीड़ में पहुंचने लोग तेजस्वी की एक झलक पाने के लिए बेताब दिखते हैं। कहते हैं कि बिहार में इंडिया गठबंधन की ताकत इस वक्त चरम पर है। हर तरफ इंडिया गठबंधन की ही बात है।
यदि राजद प्रवक्ता प्रोफेसर नवल किशोर की बातों पर पूर्णतया यकीन कर लिया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि तेजस्वी यादव अपनी असरदार परिवारवादी परंपरा के सहारे आगे नहीं बढ़ रहे हैं। बिहार में उन्हें जनता का प्यार भी मिल रहा है। समीक्षक इसके इसके पीछे एक कारण जरूरत बताते हैं कि लालू प्रसाद ने राज्य में जिस सामाजिक न्याय आंदोलन का बीजारोपण किया था, वह अब फलने-फुलने लगा है। समाज का वह तबका, जो खुद को वंचित समझता था, उस तबके के बच्चे बड़े हो गए हैं। वे अब इस बात को समझने लगे हैं कि बिहार में उन्हें अथवा उनके परिवार को जो सम्मान मिला या मिल रहा है, उसकी पृष्ठभूमि लालू प्रसाद ने ही तैयार की थी। फलस्वरूप युवाओं की एक बड़ी आबादी इस सोच के साथ तेजस्वी यादव के साथ खड़ी है। वह आबादी चाहती है कि तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचें। इसके लिए उनके समर्थक लगातार काम कर रहे हैं।
सबके बावजूद राजद नेता तेजस्वी यादव इस वक्त बिहार में कड़े मुकाबले में उलझे हुए हैं। हालांकि तुलनात्मक सर्वे के मुताबिक 35 प्रतिशत प्रतिभागियों की राय में तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री के लिए पसंदीदा उम्मीदवार हैं। इस प्रकार राजद के तेजस्वी यादव, जदयू के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लगातार बढ़त बनाए हुए हैं। इस अंतर में जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर बदलाव ला सकते हैं। वजह स्पष्ट है, प्रशांत किशोर खुद 17 प्रतिशत लोगों के पसंदीदा मुख्यमंत्री चेहरा हैं। जदयू और भाजपा और इंडिया गठबंधन यानी राजद-कांग्रेस-वाम के बीच वोट शेयर का अंतर मुश्किल से चार फीसदी है। यह देखते हुए कि भाजपा को कुछ शहरी सीटों से बड़े अंतर से जीत मिलने की संभावना जताई जा रही है। यदि भाजपा अपने मंसूबे में सफल हो जाती है तो वोट शेयर के आधार पर सीटों की भविष्यवाणी करना भ्रामक और गलत हो सकता है।
अब बात करते हैं सियासी परिवारवादी परंपरा की। समकालीन भारतीय राजनीति सियासी घरानों से अटी पड़ी है। नेहरू-गांधी, बादल, सिंधिया, मुलायम सिंह यादव, अब्दुल्ला, मुफ्ती, गौड़ा, पासवान, पटनायक, करुणानिधि और अन्य। गांधी अनौपचारिक तौर पर देश का पहला परिवार माना जाता है जिसने देश को तीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी दिए। इसी परिवार से अन्य अहम राजनीतिक शख्सियतों में सोनिया गांधी, मेनका गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और वरुण गांधी आते हैं। इसके अलावा, नेहरू-गांधी घराने से ही विजया लक्ष्मी पंडित और फिरोज गांधी भी सांसद रहे हैं। लेकिन नेहरू-गांधी परिवार से कोई भी कभी मुख्यमंत्री नहीं बना। देश के बड़े राज्य, जैसे कि यूपी और बिहार के मुख्यमंत्री के कार्यालय को प्रधानमंत्री के उच्च कार्यालय के बाद दूसरा बड़ा कार्यालय समझा जाता है। कई मायनों में कश्मीर के अब्दुल्लाओं को लालू-राबड़ी के ग्रुप समकक्ष में देखा जा सकता है अगर तेजस्वी यादव इस एलीट क्लब से जुड़ते हैं तो।
इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं तो पता चलता है कि अभिनेता से नेता बनने वालों की भी कमी नहीं रही है। उनमें भी परिवारवादी परंपरा की झलक साफ दिखती है। अभिनेताओं से नेता बनने की कड़ी में देओल परिवार ने लोकसभा के लिए निर्वाचित तीन सांसदों को भेजा। अभिनेता धर्मेंद्र को 2004 लोकसभा चुनाव में बीकानेर से भाजपा के टिकट पर कामयाबी मिली। उनकी पत्नी हेमा मालिनी मथुरा से सांसद हैं। धर्मेंद्र की पहली पत्नी प्रकाश के बेटे सनी देओल 2019 में पंजाब की गुरदासपुर लोकसभा सीट से सांसद चुने गए थे। बच्चन परिवार के भी तीन सदस्य संसद के सदस्य रहे। कवि हरिवंश राय बच्चन, अमिताभ बच्चन और जया बच्चन। इनमें सिर्फ अमिताभ 1984 में इलाहाबाद से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। बाकी दोनों ने राज्यसभा में नुमाइंदगी की। दत्त परिवार से भी तीन सदस्य संसद में पहुंचे। सुनील दत्त, नरगिस दत्त और उनकी बेटी प्रिया दत्त। इनमें सुनील दत्त और प्रिया दत्त लोकसभा के सदस्य रहे।
अब्दुल्ला परिवार ने जम्मू-कश्मीर को तीन मुख्यमंत्री दिए लेकिन ये तीन पीढ़ियों में फैले हुए हैं। शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला इस परिवार से मुख्यमंत्री बने। इसके अलावा फारूक के बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह को भी जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में ताज पहनने का एक बार मौका मिला। फारूक अब्दुल्ला की मां बेगम अकबर जहां अब्दुल्ला दो बार श्रीनगर से लोकसभा सांसद रहीं। देश में ऐसे कई राज्य रहे जहां पिता-पुत्र या पिता-पुत्री दोनों को मुख्यमंत्री के तौर पर काम करने का मौका मिला। मसलन, बीजू पटनायक-नवीन पटनायक (ओडिशा), मुलायम सिंह यादव-अखिलेश यादव (यूपी), मुफ्ती मोहम्मद सईद-महबूबा मुफ्ती (जम्मू और कश्मीर), फारूक अब्दुल्ला-उमर अब्दुल्ला और वाईएस राजशेखर रेड्डी-जगन मोहन रेड्डी (आंध्र प्रदेश)।
यदि दक्षिण भारत के प्रमुख राज्य तमिलनाडु की बात की जाए तो कलैगनार (करुणानिधि) परिवार ने कई राजनेता दिए। एम करुणानिधि के बेटे स्टालिन 2021 में तमिलनाडु विधानसभा जीतकर लालू प्रसाद या फारूक अब्दुल्ला के करीब आ चुके हैं। उनके बेटे उदयगिरि भी राजनीति में तेजी से आगे बढ़ कर भावी मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल हो चुके हैं। अपने जीवनकाल के दौरान एम करुणानिधि ने अपने तीन बेटों एमके मुथु, अलागिरी और स्टालिन को राजनीतिक मैदान पर आगे बढ़ाया। वो अपनी बेटी कनिमोझी के जन्म को अपने लिए भाग्यशाली मानते थे क्योंकि 1969 में वे अचानक मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुंच गए थे। एक पटकथा लेखक करुणानिधि चाहते थे कि उनका अभिनेता पुत्र मुथु एमजीआर का मुकाबला करे। लेकिन मुथु, जो अक्सर एमजीआर की तरह कपड़े पहनते थे, असली एमजीआर प्रशंसक बन गए और यहां तक कि अन्नाद्रमुक में ही पाला बदल कर पहुंच गए।
जब भी देश में परिवारवाद की बात होती है तो सिंधिया परिवार की भी खूब चर्चा होती है। राजमाता विजयाराजे सिंधिया और उनके बेटे माधवराव सिंधिया के बीच घरेलू लड़ाई ने बेटी वसुंधरा को राजनेता के तौर पर उभरने में मदद की। माधवराव 1972 में जनसंघ छोड़ कांग्रेस में शामिल हो गए। वह कहते थे कि 1970 में ऑक्सफोर्ड से लौटने के बाद जनसंघ में शामिल होना एक भारी गलती थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया (माधवराव सिंधिया के पुत्र) कांग्रेस का हाथ छोड़कर भाजपा में हैं और केंद्र सरकार में मंत्री हैं। राजमाता और माधवराव सिंधिया की तरह ही ज्योतिरादित्य और यशोधरा के मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने की संभावना कम है। यूं कहें कि पूरे देश में अनेक सियासी घराने हैं, जहां परिवारवाद को पुष्पित-पल्लवित किया जा रहा है। बहरहाल, मौजूदा बिसात पर अब सबकी नजरें राजद के नेता तेजस्वी यादव पर टिकी हुई हैं। देखना यह है कि तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाते हैं अथवा नहीं। (लेखक आज समाज के संपादक हैं।)
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