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Will the Congress take a lesson from the election results? क्या चुनाव परिणामों से कांग्रेस सबक लेगी?

एक इन्दिरा गाँधी थी वही जिनसे आरएसएस के चीफ और लाखो सन्घियो ने माफी मांगा था, वही जो दुनिया के…

4 years ago

It’s a tough time: ये कठिन समय है

1918-1919 इन्फ्लूएंजा की महामारी दक्षिण अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, चीन या कभी नहीं पहुंची जापान। प्रथम विश्व युद्ध को गलत तरीके…

4 years ago

Opportunities in disaster, for vultures as well as for humans: आपदा में अवसर गिद्धों के लिए भी मनुष्यों के लिए भी

ऐसे समय में जब सिख समुदाय , सारे गुरुद्वारे , बहुत सी मस्जिदें और मुस्लिम संगठन अपनी क्षमता अनुसार सचमुच…

4 years ago

Oxygen deficiency in Delhi – High court reprimanded the central government: दिल्ली मेंआॅक्सीजन की कमी-हाईकोर्ट की केंद्र सरकार को फटकार, आप आंखें मूंद सकते हैं, लेकिन हम नहीं

 x  दिल्ली हाईकोर्टनेकेंद्रसरकार को कोरोना काल में देश की स्थिति को लेकर फटकार लगाई। दिल्ली कोर्ट ने आज आॅक्सीजन की…

4 years ago

Who is responsible and whose accountability? कौन जिम्मेदार और किसकी जवाबदेही?

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके हैं। कौन जीता? क्या फर्क पड़ता है? हारने वाली हमेशा…

4 years ago

Messages from this election: इस चुनाव के संदेश

इस चुनाव ने कई संदेश दिए है। यूं तो लोकतंत्र मे सभी चुनाव महत्वपूर्ण होते है पर ये चुनाव भारत…

4 years ago

Who is responsible for the deadly side effect of the second wave? दूसरी लहर के घातक दुष्परिणाम की जिम्मेदारी किसकी?

अब जब सुप्रीम कोर्ट सहित अन्य हाई कोर्ट में इस आपदा पर हंगामा मचा तो अदालत में सरकार ने कहा…

4 years ago

We cry, shame or curse! But whom? हम रोएं, शर्म करें या लानत दें! मगर किसे?

भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी रहे पूर्व राजदूत अशोक अमरोही गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल की पार्किंग में पांच घंटे इलाज का इंतजार करते दम तोड़ गये। पिछले दो सप्ताह में कुछ इसी तरह हमने भी अपने 40 प्रियजनों को खो दिया। कुछ रिश्तेदार थे, कुछ मित्र और सहकर्मी। पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में मददगार रहे आईएएस एसोसिएशन के अध्यक्ष दीपक त्रिवेदी का कोरोना से निधन, उस वक्त हुआ, जब हम उन्हें सफल और बेदाग सेवा पूरी करने की बधाई देने के लिए फोन मिला रहे थे। यूपी में जिला जज के पद पर तैनात एक मित्र का लखनऊ के अस्पताल में कोरोना से लड़ रहे एक अन्य जज की मदद के लिए फोन आया। आक्सीजन के संकट से परिवार परेशान था। उन्हें बड़े अस्पताल में आक्सीजन वाला बेड चाहिए था, काफी कोशिशों के बाद जब अस्पताल के निदेशक से बात हुई और सरकारी प्रक्रिया पूरी कराई, तब तक देर हो चुकी थी। उनकी सांसें थम गई थीं। इतना बेवश तो हम कभी नहीं रहे। हमें याद है कि साल के शुरुआती दिनों में भाजपा ने प्रस्ताव पास करके कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कारण देश करोना से जीत गया। इस जश्न में हम सब भूल गये। हमने वह सब किया, जो नहीं करना था। यूपी में पंचायत चुनाव की ड्यूटी करते 700 से अधिक शिक्षक-कर्मचारी मौत के मुंह में चले गये हैं। नतीजतन, कोरोना की दूसरी लहर यूं चली, कि सिर्फ अप्रैल महीने में 45 हजार लोग मौत के मुंह में समा गये। आजकल, रोज सुबह से ही हम सरकारी और निजी अस्पतालों में बेड, आक्सीजन और दवायें उपलब्ध कराने में उलझ जाते हैं। इस दौरान तमाम लोग दम तोड़ देते हैं। कई बार, हमारे पास अफसोस करने के सिवाय कुछ नहीं होता। शब्दों में बात करना आसान है मगर जिस परिवार का कोई सदस्य जाता है, उसकी पीड़ा वही समझ सकता है। जो सत्ता और उनके नायकों का गुणगान करते नहीं थकते थे, आज वो भी बेवश, उन्हें कोस रहे हैं। यूपी, मध्य प्रदेश और दिल्ली के हमारे तमाम डॉक्टर मित्रों ने बताया कि उच्च स्तर से उन्हें निर्देश मिल रहे हैं कि वायरस से लड़ने वाले इंजेक्शन रेमडीसीवर को न लिखें। आक्सीजन और वेंटीलेटर पर मरीज को तब रखें, जब कोई साधन न बचे। इसका नतीजा यह है कि आखिरी वक्त में यह सब उपलब्ध कराने तक कई मरीज दम तोड़ देते हैं। सरकार की नाकामी का ठीकरा डॉक्टरों पर फूटता है। कई जगह लुटा-पिटा तीमारदार अपना मानसिक संतुलन खो देता है। जिससे हिंसक घटनाएं बढ़ी हैं। वायरस और संसाधनों के अभाव से लड़ते अब तक 791 डॉक्टरों ने दम तोड़ दिया। औसतन हर अस्पताल के 30 फीसदी डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ भी कोरोना संक्रमित हैं। सरकार कोरोना से जंग लड़ने के बजाय आंकड़ों का प्रबंधन करने में जुटी है। जब दो लाख से अधिक लोग मर गये, तब सरकार आक्सीजन प्लांट, रेमडीसीवर और कोविड बेड-अस्पताल बनाने की बात करती है। जब तक इनकी व्यवस्था बनेगी, तब तक लाखों लोग मर जाएंगे। हम जैसे खबर लिखने वाले खुद खबर बन रहे हैं। सच लिखने पर मुकदमा और जेल सरकारी बोनस है। हमारी चिकित्सा का इतिहास पांच हजार साल पुराना है। देश में पहला अस्पताल 16वीं सदी में पुर्तगालियों ने गोवा में रॉयल हास्पिटल के नाम से बनाया था। उन्होंने बैसिन, दमन और दीव में भी अस्पताल बनाये। उनके बाद ब्रितानियों ने पहला अस्पताल मद्रास में बनाया था। यहीं से भारत में आधुनिक चिकित्सा की शुरुआत हुई। 1857 में ब्रितानी राज के सत्ता संभालने पर लोक स्वास्थ पर सोचा गया। 1897 में भारतीय स्वास्थ सेवा का शुभारंभ हुआ। स्वराज की लड़ाई जब तेज हुई, तब 1935 में ब्रितानी सरकार ने भारत के लिए हेल्थकेयर एक्ट पास किया। इसके तहत कमेटियां बनाकर स्वास्थ सेवाओं की जरूरतों पर रिपोर्ट मांगी गई। 1946 में पब्लिक हेल्थ सिस्टम बनाने के लिए सर्वे कमेटी बनी। आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सार्वजनिक स्वास्थ सेवाओं पर प्राथमिकता से काम शुरू किया। 1951 की जनगणना बताती है कि 1950 में देश में सिर्फ 50 हजार डॉक्टर और छोटे बड़े 725 अस्पताल थे। देश की कुल 18.33 फीसदी आबादी ही साक्षर थी। हमारी पिछली सरकारों के प्रयासों का नतीजा है कि 70 साल में हमारे देश की 74 फीसदी आबादी साक्षर है। 1947 में भारत की जीडीपी 2.7 लाख करोड़ रुपये थी, जो विश्व का तीन फीसदी थी। सांख्यकी मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2018 में भारत की जीडीपी 147.79 लाख करोड़ रुपये पहुंच चुकी थी, जो विश्व का 7.74 फीसदी है। भारत में अधिकृत डॉक्टरों की संख्या करीब 12 लाख 56 हजार है। सरकारी क्षेत्र के प्राथमिक स्वास्थ केंद्र से लेकर बड़े अस्पतालों, जिनमें सेना और रेलवे के अस्पताल भी शामिल हैं, कुल 32 हजार हैं। निजी क्षेत्र में 70 हजार अस्पताल हैं। देश की आजादी के 70 सालों में जो अस्पताल बने, आज वही हमारी जान बचा रहे हैं। कोविड-19 महामारी को हमारे देश की सरकार ने पहले न गंभीरता से लिया और न ही जरूरी इंतजाम किये। नतीजतन, आज विश्व में हम रोजाना बढ़ते मामलों में 4 लाख केसेज के साथ सबसे ऊपर हैं। हमारे अपने हर रोज बेड, आक्सीजन और दवाओं के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। उधर, वैक्सीनेशन के धंधे में कमाई का काम चल रहा है। अस्पतालों से लेकर सड़कों तक कालाबाजारी का हाल यह है कि परिजनों की जान बचाने के लिए लखनऊ में आक्सीजन सिलेंडर 35 से 50 हजार का मिल रहा है। सरकार ने आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर हमें “राम” भरोसे छोड़ दिया है। एक वक्त था, जब हमारा देश संकट के समय तमाम देशों की मदद करता था। आज हम उन्हीं के आगे झोली फैलाकर मदद मांग रहे हैं। मदद देने वाले देशों में भूटान जैसे सबसे गरीब देश भी शामिल हैं। हमारी सरकार ने इस महामारी के सवा साल में न अपनी गलतियां सुधारीं और न प्राथमिकताएं तय कीं। वह आपदा में अवसर खोजते हुए ऐश ओ आराम के मेगा प्रोजेक्ट पास करती रही। सैन्य हथियार खरीदने की होड़ लग गई। सार्वजनिक स्वास्थ सेवाओं को मजबूत नहीं बनाया। किसान अपने हक के लिए पिछले छह माह से आंदोलनरत हैं मगर आपदा में अवसर देखते पूंजीपतियों के हित में कृषि कानूनों में बदलाव कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट सहित दूसरी अदालतें महामारी के डर से पिछले एक साल से न्याय को अपने घरों में कैद किये हैं। वो संविधान में मिले, नागरिक अधिकारों की संरक्षक हैं मगर उसके लिए सरकार से बोलने को तैयार नहीं। वह मेडिकल इमरजेंसी की बात करती है, लेकिन हक दिलाने में डरती हैं। सत्ता के हक में फैसले देने को तत्काल प्रकट हो जाती हैं मगर नागरिकों के लिए नहीं। दूसरी संवैधानिक संस्थायें भी अपने कर्तव्य नहीं निभातीं। वो सरकार की ढाल बनकर नागरिकों के ही सामने खड़ी हो जाती हैं। यही कारण है कि विशेषज्ञों की रिपोर्ट के विपरीत हरिद्वार और मथुरा कुंभ आयोजित होता है। देश को चुनाव के नाम पर महामारी के जाल में झोंक दिया जाता है। चुनाव जीतना प्राथमिकता है, वोट देने वाला नागरिक नहीं। कोविड संक्रमण का यह बड़ा कारण बना है। देश की स्वास्थ सेवाओं और व्यवस्थाओं पर सरकार के स्तर पर कोरा झूठ बोला जा रहा है। नतीजतन, लाखों परिवारों में मातम छाया है। करोड़ों परिवार अस्पतालों के धक्के खा रहे हैं। आज करीब 40 लाख एक्टिव केसेज हैं। करीब इतने ही लोग अपनी जांच रिपोर्ट के इंतजार में हैं। हमारे देश में निजी और सरकारी अस्पतालों में सिर्फ 19 लाख बेड हैं। जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा को छोड़कर बाकी किसी राज्य में सरकारी अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पताल अधिक हैं। मरते मरीजों के कारण अंतिम संस्कार के लिए भी 10 से 20 घंटे की वेटिंग है। यहां भी आपदा में अवसर तलाशते लोग 20 हजार से 50 हजार सुविधा शुल्क लेकर अंतिम संस्कार कर रहे हैं। दवाओं से लेकर जीवनरक्षक सामान तक की कालाबाजारी हो रही है। हालात और हकीकत देखने से, यही लगता है कि जिस सरकार को हमने बड़ी उम्मीदों से चुना था, उसे नागरिकों के जीवन से कोई सरोकार नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों के स्वास्थ बजट इसका प्रमाण हैं। राज्य और केंद्र का स्वास्थ बजट मिलाकर करीब ढाई लाख करोड़ का है। इसमें डेढ़ लाख करोड़ रुपये पेंशन, वेतन, भत्तों और अन्य खर्चे में खप जाता है। सेहत के लिए सिर्फ एक लाख करोड़ रुपये बचता है। यह सब देखकर भी हम मौन हैं। केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल के भतीजे ने प्रधानमंत्री को कड़ी चिट्ठी लिखी, तो बरेली के मृत भाजपा विधायक के पुत्र ने यूपी के सीएम को पत्र लिख हकीकत बयां की। लोग दलीय भक्ति में अपनों को मरते देख रो रहे हैं। अगर यही नया भारत है, तो निश्चित रूप से देश का भविष्य अंधकारमय है। ऐसे में हम रोएं, शर्म करें या लानत दें, मगर किसे? सरकार को, आपको या खुद को! क्योंकि यह व्यवस्था और सरकार हमने ही तो बनाई है। जय हिंद! (लेखक प्रधान संपादक हैं।) ajay.shukla@itvnetwork.com

4 years ago

Aapase na ho paega modee jee!”आपसे न हो पाएगा मोदी जी!”

एम आसैपंडी नोएडा के सेक्टर 51 स्थित केंद्रीय विहार में रहते थे। वे कोरोना पॉज़िटिव हो गए। शुरू में तो घर पर इलाज चलता रहा किंतु 26 तारीख़ से उन्हें साँस लेने में तकलीफ़ हुई। सेक्टर 39 के कोविड सेंटर में उन्हें भर्ती कराने के काफ़ी प्रयास किए गए। लेकिन हर बार नहीं का उत्तर मिला। सीएमओ दीपक जौहरी ने एक बार भी उनकी बात नहीं सुनी तो हार कर उनके सभी परिचितों ने स्थानीय विधायक पंकज सिंह को संपर्क करने की कोशिश की, पर बार-बार फ़ोन करने के बाद भी उनका फ़ोन नहीं उठा। मालूम हो कि पंकज सिंह केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे हैं, रसूखदार हैं। वे कहीं भी उन्हें भर्ती करा सकते थे। मगर उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों की तनिक भी चिंता नहीं है। आसैपंडी अगले रोज़ नहीं रहे। मात्र 54 वर्ष में एक व्यक्ति अपनी कच्ची गृहस्थी को छोड़ कर चला गया। लेकिन उनके जन-प्रतिनिधि, ज़िला प्रशासन और प्रदेश शासन को उनकी कोई चिंता नहीं है। और उनकी ही क्यों नोएडा और ग़ाज़ियाबाद में सैकड़ों लोग रोज़ कोविड के चलते मर रहे हैं। इतनी अधिक संख्या में कि श्मशान में भी जगह नहीं मिल रही है। मगर सरकार चलाने वाले बेफ़िक़्र हैं। यह अकेले नोएडा का मामला नहीं है। ग़ाज़ियाबाद के विधायक और सांसद ग़ायब हैं। ग़ाज़ियाबाद ज़िले में साहिबाबाद के विधायक सुनील शर्मा और सांसद वीके सिंह सिवाय शादी-विवाह के और कहीं नहीं दिखते। एक भी कोरोना-ग्रस्त मरीज़ों की मदद के लिए आगे बढ़ कर नहीं आए। जब ऐन केंद्र सरकार की नाक के नीचे बैठे भाजपा जन-प्रतिनिधियों का यह हाल है तो दूर-दराज इलाक़ों की भला क्या बात की जाए। इसीलिए अब सभी को लग रहा है, कि किसे चुन लिया। और तो और ख़ुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दिल्ली प्रांत की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य राजीव तुली ने इस महामारी के समय भाजपा नेताओं, सांसदों और विधायकों की अनुपस्थिति पर हमला किया है। आज के इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर है कि श्री तुली ने अपने एक ट्वीट में लिखा है कि “जब दिल्ली में चारों तरफ़ आग लगी है, तब क्या किसी ने दिल्ली भाजपा नेताओं को देखा?” यह गंभीर मामला है। इससे साफ़ प्रतीत होता है कि आरएसएस को भी अब लग रहा है कि भाजपा जनता के बीच अपनी साख खोती जा रही है। भाजपा के लिए प्राण-प्रण से जुटे वे जो लोग हर-हर मोदी और घर-घर मोदी का नारा लगाने में तत्पर थे, वे भी अब कह रहे हैं कि “तुमसे न होगा मोदी जी!” एक प्रधानमंत्री और उसके मुख्यमंत्रियों की यह नाकामी उस व्यवस्था की पोल खोलती है जो ख़ुद पिछले सात वर्षों में भाजपा ने गढ़ी है। हर जगह संवेदन-शून्य लोगों की नियुक्ति से यही होगा। पब्लिक मशीन नहीं होती। वह एक जीता-जागता समाज है। अगर वह किसी को सिर पर चढ़ा कर लाती है तो उसे दूर फेंकना भी उसे अच्छी तरह पता है। पूरे देश से जब आक्सीजन के लिए हाहाकार मचने लगा तो अब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री कह रहे हैं कि आक्सीजन की कमी दूर करने के लिए 500 प्लांट लगेंगे या रेमडसिविर इंजेक्शन की कमी दूर करेंगे। सवाल उठता है, कि पिछले सवा साल में मोदी सरकार चुनाव लड़ती रही, जन विरोधी क़ानूनों को पास करती रही, मंदिर का शिलान्यास करती रही लेकिन कोरोना की दवाओं अथवा कोरोना वैक्सीन के भरपूर उत्पादन बढ़ाने का ख़्याल नहीं आया? कोरोना को भारत में प्रकट हुए 15 महीने बीत चुके हैं। इस बीमारी से लड़ने के लिए हर आमो-ख़ास ने पीएम केयर फंड में मदद भी की पर इस फंड का ईमानदारी से इस्तेमाल नहीं हुआ। क्या ज़रूरत थी पाँच राज्यों में चुनाव कराने की, उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव के लिए तमाम सरकारी कर्मचारियों को झोंक देने की। इनमें से 135 कर्मचारी मारे गए, लेकिन सरकार ने चुनाव नहीं रोका। क्या ज़रूरत थी हरिद्वार में होने वाले कुंभ में लोगों की भीड़ जुटने देने की? सत्य बात तो यह है कि जब कोरोना पर लगभग क़ाबू पा लिया गया था तब इस तरह की ढील बरतने की भूल कर सरकार ने स्वयं इस बीमारी को न्योता है। और जिस दूसरी लहर को पहली लहर के पलटवार करने जैसी बात कर सरकार ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ रही है, वह और भी हास्यास्पद और सरकार की संवेदन हीनता को दिखाता है। वह यह नहीं मान रही कि उसकी अपनी ग़लतियों से कोरोना की दूसरी लहर आई है। दिसंबर के तीसरे हफ़्ते से ही कोरोना के ब्रिटेन स्ट्रेंच की सूचनाएँ आने लगी थीं। कनाडा, अमेरिका और रूस व चीन ने ब्रिटिश उड़ानों की आवाजाही पर रोक लगा दी थी लेकिन भारत सरकार की नींद जनवरी में तब टूटी जब दिल्ली में कई लोग इस स्ट्रेंच से ग्रस्त मिले। तब तक ये लोग देश के कई हिस्सों में घूम कर अपनी बीमारी दे आए थे। इसके बाद होली के अवसर पर सरकार को लॉक डाउन लगा देना था ताकि लोग रंग खेलने के बहाने भीड़ न बढ़ाएँ। किंतु सरकार का ध्यान इस तरफ़ नहीं गया क्योंकि उसको चुनाव कराने थे। बंगाल में ममता बनर्जी को घेरना था। उसे यक़ीन था कि ममता बनर्जी अकेली पड़ गई हैं और यही समय उनको घेरने का है। हरिद्वार कुम्भ सभी को शाही स्नान की छूट दे कर सरकार हिंदू वोटों को अपने पाले में लान चाहती थी। इसी के साथ उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों को कराया गया, ताकि पता चल सके कि प्रदेश में मतदाता का मूड़ कैसा है। अगले वर्ष ही वहाँ विधानसभा चुनाव है और उत्तर परदेश में नरेश टिकैत के किसान आंदोलन से सरकार चिंतित थी। साफ़ ज़ाहिर है कि मोदी सरकार के लिए जनता नहीं चुनाव जीतना उसकी वरीयता में है। इसीलिए उसके जन-प्रतिनिधि भी अपने क्षेत्र की जनता की तकलीफ़ों से आँख मूँदे बैठी रहती है। ऐसे में इस सरकार से क्या उम्मीद की जाए! उधर पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदम्बरम ने मोदी सरकार को उखाड़ फेकने का आह्वान किया है। परंतु लोकतंत्र में किसी सरकार को कैसे उखाड़ा जा सकता है, इसका कोई प्लान उनके या उनकी पार्टी पास नहीं है। इसका अर्थ है कि कांग्रेस के पास भी कोई स्पष्ट लाइन नहीं है। उसके नेता भी सड़क पर उतर कर ग़ुस्से को जन आंदोलन में बदलने का आह्वान नहीं कर रहे हैं। क्योंकि कांग्रेस और भाजपा में कोई साफ़ बँटवारा नहीं है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना ही है कि भाजपा एक अनुदार व घनघोर दक्षिणपंथी पार्टी है तथा कांग्रेस वाम व दक्षिणपंथी शक्तियों का घालमेल। जब वह विपक्ष में होती है, तब तो वह थोड़ा लेफ़्ट चलती है और जनवादी शक्तियों का साथ देती लगती है, मगर सत्ता में आते ही वह भी राइट चलने लगती है। अर्थात् उसका मॉडरेट या उदारवादी चेहरा भी टिकाऊ नहीं है। ऐसे में जनता सिर्फ़ मरने को विवश है। कोई भी आगे आकर सटीक निदान नहीं तलाश रहा। मेरा स्पष्ट मानना है कि इस स्थिति में सिर्फ़ वामपंथी शक्तियाँ ही सही रास्ता खोज सकती हैं। किंतु उनके पास कोई लोकप्रिय राजनीतिक दल या मंच नहीं है। आज भारत के लोकतंत्र को जिस चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया गया है, वहाँ किसी भी राजनीतिक दल को जनता के बीच तक पहुँचने के लिए अकूत धन चाहिए। वामपंथी पार्टियों के पास धन का स्रोत सिर्फ़ जनता है। और वह कितना भी चंदा दे पूँजीपतियों द्वारा दिए गए चंदे के मुक़ाबले नमक बराबर भी नहीं हो सकता। पूँजीपति उसी राजनीतिक दल को चंदा देते हैं, जो सरकार बनने पर उसके हितों की रखवाली करें और उन्हें दोनों हाथों लूटने का अवसर दें। मगर वे भूल जाते हैं, कि यह भारत देश अपनी तमाम ख़ामियों के बावजूद विवेक नहीं खोता, वह कुछ समय के लिए दब भले जाए। कांग्रेस यदि लेफ़्ट को साथ लेकर लड़ाई लड़ती है तो वह एक नए मक़ाम पर होगी और वही एक रास्ता है।

4 years ago

Utterkatha-The outcry does not stop in UP! : उत्तरकथा : यूपी में नहीं थम रहा हाहाकार !

उत्तर प्रदेश में जहां देखिए जान बचाने की जंग है, रोजाना बुरे समाचार हैं और चारों ओर ऑक्सीजन, अस्पताल में…

4 years ago