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Impact of lockdown in states, decrease in corona cases: राज्यों में लॉकडाउन का दिखा असर, कोरोना मामलों में आई कमी, एक दिन में 3.26 नए केस

कोरोना वायरस ने भारत में अपनी दूसरी लहर केदौरान बहुत तबाही मचाईहै। लाखों लोग इस कोरोना वायरस की चपेट मेंआने…

4 years ago

Impact of GSP Plus in Pakistan: पाकिस्तान में जीएसपी प्लस का असर

पाकिस्तान की दशा दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान यूरोपीय संघ की संसद में सर्वसम्मति से…

4 years ago

New strain of corona virus caused most deaths: अधिकांश मौतों की वजह कोरोना वायरस का नया स्ट्रेन

भारत में कोरोना का दूसरा लहर अभी खत्म नहीं हुआ कि तीसरे लहर की आशंका लोगों को परेशान करने लगी।…

4 years ago

Parliamentary investigation of Covid mismanagement required: कोविड कुप्रबंधन की संसदीय जांच जरूरी

दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन के एक साल बाद भारत की स्थिति अधिक खराब दिखती है। यह एक कड़वी सच्चाई…

4 years ago

Lessons are learned from history, not to be proud of! इतिहास से सबक़ लिया जाता है, गर्व नहीं किया जाता!

इतिहास बहुत विचित्र होता है। उसमें बहुत-से अगर-मगर होते हैं। किंतु उसकी गति को पकड़ना सहज नहीं है। न उस पर गर्व कर सकते हैं न उसे किनारे लगा सकते हैं। वह हमारे सामने सदैव खड़ा रहेगा। एक अच्छा शासक वह है, जो इतिहास से कुछ सीखता है। कोई भी इतिहास तब प्रेरणा देगा, जब उसके प्रति हम एक वैज्ञानिक रवैया अपना कर उसे पढ़ें। न तो उस पर गर्व करें न शर्म। भारतीय शासकों की दिक़्क़त यह है कि या तो वे उस पर गर्व करते हैं अथवा शर्म और इसी वजह से किसी भी संकट के आने पर उनके हाथ-पाँव फूल जाते हैं। क्योंकि गर्व या शर्म उन्मादी भाव हैं। इनमें किसी भी तरह की सापेक्ष इतिहास दृष्टि नहीं है। अगर आज की मोदी सरकार 1918 के स्पेनिश फ़्लू के समय को समझ लेती तो यह नौबत न आती जो आज दिख रही है। कुल सौ साल पहले जो महामारी आई थी, उसके सबक़ याद रखने थे और सीख लेनी चाहिए थी कि आख़िर क्या वजह थी कि उस महामारी में क़रीब पाँच करोड़ लोग मारे गए थे। इसके बाद भी प्लेग व चेचक जैसी महामारियाँ फैलीं और उनसे निजात पाया गया। यह तो कोई तर्क नहीं हुआ कि भारत की आबादी बहुत ज़्यादा है, इसलिए अफ़रा-तफ़री फैली। आबादी तो चीन की हमसे भी अधिक है, उन्होंने कैसे क़ाबू पाया? इन सब बातों पर गौर करना था।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भावनाओं के जिस रथ पर सवार होकर आए थे, उससे उनके चाहने वालों ने मान लिया कि यही असली हिंदू हृदय सम्राट हैं। किंतु इन स्व-घोषित हिंदू हृदय सम्राट तो कभी भी हिंदू शासकों से ही सबक़ नहीं ले पाए। देश की दो बड़ी हिंदू रियासतें- कच्छ और मणिपुर, विदेशी हमलों के समय भी तन कर खड़ी रहीं। लेकिन उनके शासकों ने कैसे महामारियों का सामना किया, यह गौर करने वाली बात है। दोनों छोटी और बियाबान में आबाद रियासतें रहीं। लेकिन रणनीतिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण। एक सुदूर पश्चिम में अरब सागर के तट पर नमक के रेगिस्तान में खड़ी रह कर भारत पर होने वाले हमलों को झेलती थी दूसरा राज्य उत्तरपूर्व के मैदानों से। एक बार 1819 में कच्छ में 7.2 रिक्टर स्केल का भूकंप आया और पूरा कच्छ बर्बाद हो गया। तब वहाँ के महाराजा ने अपने वज़ीर फ़तेह मोहम्मद को कहा, कि कच्छ को फिर खड़ा करो। एक वर्ष के भीतर ही तबाह हो चुका कच्छ पुनः पूर्ववत हो गया। वहाँ के सौदागर फिर से अरब और अफ़्रीका के ज़ांबिया तक अपने जहाज़ भेजने लगे। इसी तरह 1918 में जब स्पेनिश फ़्लू फैला तो मणिपुर के बालक महाराजा चूड़चंद्र सिंह ने सफलतापूर्वक इसे फैलने से रोका था। अब देखिए, इन मोदी सम्राट को, जो कोविड का सामना बस ताली और थाली बजवा कर करते रहे। ऐसे में लोग अगर बच रहे हैं तो अपने भाग्य से। सरकार का उसमें कोई इक़बाल नहीं है।  अंग्रेज जब भारत आए तब हिंदुस्तान में मुग़ल वंश का सूर्य अस्त हो रहा था। बादशाह आलमगीर औरंगज़ेब ने ही मुग़ल सल्तनत को अटक से कटक तक और कश्मीर से सुदूर दक्षिण तक फैला दिया था। किंतु आग जितना फैलती है, उतने ही अधिक अपने शत्रु पैदा करती है। परिधि बढ़ाने के चक्कर में औरंगज़ेब ऐन आगरा के आसपास न देख सका, जहाँ जाट विद्रोह कर रहे थे और न ही पंजाब को जहाँ के सिख स्वतंत्र होने के लिए कसमसा रहे थे। ऊपर से मराठा आग की तरह पूरे देश में फैलने को व्यग्र थे। इसके अलावा अफ़ग़ान और पठान भी स्वतंत्र रियासतें क़ायम करने को आतुर थे। उधर पुर्तगालियों और डच के बाद अब फ़्रेंच व अंग्रेज भी हिंदुस्तान को बाज़ार बनाना चाहते थे। यह मौक़ा मिला 1757 में जब रॉबर्ट कलाइव ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को प्लासी की लड़ाई में हरा दिया और एक संधि के तहत बंगाल की दीवानी अपने हाथों में ले ली। तब तक मुग़ल बादशाह बहुत कमजोर हो गए थे। औरंगज़ेब की मृत्यु 1707 में हो गई थी। इस बीच दिल्ली की गद्दी पर जो भी बैठा वह नाम का ही शासक था। जब प्लासी का युद्ध हुआ दिल्ली पर बादशाह शाहजहाँ तृतीय था। लेकिन तब तक अंग्रेज दिल्ली से बचते रहे। इसके बाद मराठे, अफ़ग़ान तथा पठान बढ़ने लगे। 1760 में शाहजहाँ तृतीय की मौत के बाद शाहआलम गद्दी पर बैठा, जो कठपुतली शासक ही रहा। इस बीच ईरान के शासक नादिर शाह दिल्ली में क़त्ल-ए-आम कर चुका था। अहमदशाह अब्दाली भी कई बार दिल्ली को लूट चुका था। मगर हिंदुस्तान का बादशाह मराठों, सिखों, अफ़ग़ान और पठानों से घिरा हुआ था। इनमें सबसे अधिक शक्तिशाली थे मराठे, जो सुदूर तमिलनाडु के तंजौर से लेकर लाहौर और फिर पूरब में अवध तक चले आते। मगर ये मराठे 14 जनवरी 1761 में पानीपत की लड़ाई हार गए। अफगनिस्तान के दुर्रानी शासक अहमद शाह अब्दाली ने इस लड़ाई में मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ को हरा दिया। इस युद्ध में हार ने मराठा साम्राज्य के पतन की दास्ताँ लिख दी।  अंग्रेज यह देख रहे थे और प्लासी युद्ध के सात साल बाद उन्होंने 1764 में बक्सर की लड़ाई छेड़ दी। इसमें बंगाल के नवाब मीर क़ासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा बादशाह शाह आलम द्वितीय और काशी के राजा बलवंत सिंह की सम्मिलित सेनाएँ थीं। लड़ाई में अंग्रेजों की जीत हुई। अंग्रेजों ने बादशाह शाह आलम को पकड़ लिया। यह हिंदुस्तान के इतिहास पर सबसे बड़ा कलंक था क्योंकि कुछ भी हो हिंदुस्तान के बादशाह की एक प्रतीकात्मक इज़्ज़त थी। किंतु मराठों की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे बादशाह को छुड़ा सकें। नतीजा यह हुआ कि बंगाल के बाद अब ओडीसा, बिहार की दीवानी भी अंग्रेजों को देनी पड़ी तथा इलाहाबाद और कड़ा जहानाबाद का 40 हज़ार वर्ग किमी का इलाक़ा भी। इसके बाद क्या हुआ, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। लेकिन यहाँ तक की सारी घटनाएँ इस बात की गवाही देती हैं की इस देश के इतिहास में सत्ता की लड़ाइयाँ तो थीं, परंतु इसमें धार्मिक उन्माद या धर्म के तौर पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की भावना न रहती, वर्ना मराठे पेशवाओं और अहमदशाह अब्दाली के साथ युद्ध में इब्राहीम गार्दी पेशवा की तरफ़ से न लड़ता न सिख योद्धा अब्दाली को रसद भिजवाते। यह सबक़ सीखना था।  मगर सबक़ यह लिया गया कि औरंगज़ेब धर्मांध था अथवा पेशवाओं को हरवाया गया क्योंकि दिल्ली दरबार यह चाहता था। इस तरह की बातें एक समाज को नीचे की तरफ़ धकेलती हैं। जहाँ विज्ञान नहीं होता, समाज को आगे की तरफ़ ले जाने की ललक नहीं होती। धर्म पर थोथा दंभ किया जाता है। इसे सबसे पहले गांधी जी ने समझा था, कि इस देश को समूचा बनाए रखना है तो सबसे पहले अंग्रेजों की विभाजनकारी नीतियों का जवाब देना होगा। और हमें अपनी कमियाँ दूर करनी होंगी। अस्पृश्यता निवारण या ख़िलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने के कारण बार-बार बहुसंख्यक हिंदुओं के विरोध को उन्होंने झेला पर डटे रहे। बहुसंख्यकों के विरोध के बावजूद वे सबके निर्विवाद नेता बने रहे। इसी तरह नेहरू जी ने भी कई बार झुक कर समझौते किए, क्योंकि उस वक्त देश को बचाने के लिए आवश्यक था। उन्होंने वे नीतियाँ अपनाईं, जिसके चलते वे अक्सर हिंदू विरोधी नज़र आते हैं किंतु कई बार किसी समाज के हित के लिए उसका विरोध झेलना पड़ता है। नेहरू जी ने महामारियों के लिए वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति पर ज़ोर दिया और इतिहास से यह सीखा कि दिखने में बड़ा देश दिखते हुए भी यह देश बहुत कमजोर था। सबको साधने के लिए कई बार आपको लोकधारा के विरुद्ध आचरण करने पड़ते हैं। अगर नरेंद्र मोदी में यह साहस होता तो वे अपने हिंदू इतिहास से ही सबक़ ले लेते! (लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान परशुराम का जन्म त्रेता युग में भगवान विष्णु के छठे अवतार के रूप में भार्गव…

4 years ago

Poison speeches’ cannot shake the roots of the nation’s harmony:विष वमन’ देश के सद्भाव की जड़ों को नहीं हिला सकता

पूरा देश इस समय सरकार की जिस लापरवाही व गैर जिम्मेदारी का परिणाम भुगत रहा है यह किसी से छुपा…

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The real India groans due to the pandemic! महामारी की मार से कराहता असली भारत!

हिंदी हृदय प्रदेश का असली भारत घोर संकट के दौर से गुजर रहा है। सूबे के शहरों में सरकारी आंकड़े…

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Friendship with life: दोस्ती जिÞंदगी से

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