Why is the special blue ink of election?: क्यों स्पेशल है चुनाव वाली नीली स्याही?

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अंबाला। भरतीय लोकतंत्र में चुनाव एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका संचालन पूरी तरह पारदर्शी होता है। सबसे अधिक चर्चा वोटिंग के दौरान वोटर की अंगुली पर लगने वाली नीली स्याही की होती है। यह स्याही इतनी गहरी होती है कि कई दिनों तक इसका निशान नहीं जाता है। आइए आज जानते हैं इस नीली स्याही के बारे में..

-भारत में सिर्फ दो कंपनियां हैं जो वोटर इंक बनाती हैं- हैदराबाद के रायडू लैब्स और मैसूर के मैसूर पेंट्स ऐंड वॉर्निश लिमिटेड।
-इन कंपनियों के परिसर में इंक बनाते वक्त स्टाफ और अधिकारियों को छोड़कर किसी को भी जाने की इजाजत नहीं है।
– वोटिंग में इस्तेमाल होने वाली इंक में सिल्वर नाइट्रेट होता है जो अल्ट्रावॉइलट लाइट पड़ने पर स्किन पर ऐसा निशान छोड़ता है जो मिटता नहीं है।
-साल 2014 में हुए चुनावों में चीफ इलेक्शन कमिश्नर ने सिल्वर नाइट्रेट की मात्रा 20-25 प्रतिशत बढ़ा दी थी ताकि वह लंबे समय तक लगी रहे।
-हैदराबाद की कंपनी अफ्रिका के रवांडा, मोजांबीक, दक्षिण ऐफ्रिका, जांबिया जैसे देशों में इंक आपूर्ति करती है। साथ ही, विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ मिलकर पल्स पोलियो प्रोग्राम के लिए भी काम करती है। वहीं, मैसूर की कंपनी यूके, मलेशिया, टर्की, डेनमार्क और पाकिस्तान समेत 28 देशों में भेजती है।
-चुनाव आयोग ने 1962 में कानून मंत्रालय, राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला और राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम के साथ मिलकर मैसूर पेंट्स के साथ लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में पक्की स्याही की आपूर्ति के लिए अनुबंध किया था।
-चुनाव आयोग ने इस बार के लोकसभा चुनावों से पहले 33 करोड़ रुपये की कीमत पर पक्की स्याही की 26 लाख बोतलों का आॅर्डर दिया है।

मैसूर के राजा ने बनवाया था इसे
चुनाव के दौरान फर्जी मतदान रोकने में कारगर औजार के रुप में प्रयुक्त हाथ की उंगली के नाखून पर लगाई जाने वाली स्याही सबसे पहले मैसूर के महाराजा नालवाड़ी कृष्णराज वाडियार द्वारा वर्ष 1937 में स्थापित मैसूर लैक एंड पेंट्स लिमिटेड कंपनी ने बनायी थी। वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद मैसूर लैक एंड पेंट्स लिमिटेड सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बन गई। अब इस कंपनी को मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड के नाम से जाता है। कर्नाटक सरकार की यह कंपनी अब भी देश में होने वाले प्रत्येक चुनाव के लिए स्याही बनाने का काम करती है

तीसरे आम चुनाव में पहली बार हुआ था प्रयोग
चुनाव के दौरान मतदाताओं को लगाई जाने वाली स्याही निर्माण के लिए इस कंपनी का चयन वर्ष 1962 में किया गया था और पहली बार इसका इस्तेमाल देश के तीसरे आम चुनाव किया गया था। इस स्याही को बनाने की निर्माण प्रक्रिया गोपनीय रखी जाती है और इसे नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी आॅफ इंडिया के रासायनिक फामूर्ले का इस्तेमाल करके तैयार किया जाता है। यह आम स्याही की तरह नहीं होती और उंगली पर लगने के 60 सेकंड के भीतर ही सूख जाती है।

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