आखिर वेदव्यास जी क्यों हुए उदास

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दोपहर के पश्चात का समय था।
महाभारत के रचयिता वेदव्यास जी ब्रह्म नदी के तट पर बड़े ही उदास, बड़े ही खिन्न बैठे हुए थे। नदी कल-कल स्वरों से बह रही थी।
सामने पर्वत की चोटी पर बिछी हुई बर्फ के ऊपर सूर्य की सुनहरी किरण?ं खेल रही थी।
पर्वत के नीचे वृक्षों पर कल-कंठो से पक्षी गा रहे थे, पर वेदव्यास जी के लिए प्रकृति का वह वैभव बिल्कुल निस्सार था।
वे उदास मुख, विचारों में खोए हुए थे। वेदव्यास जी अपने भीतर घुस कर अपनी उदासी का कारण खोज रहे थे।
वे सोच रहे थे, उनकी तो किसी में कोई आसक्ति नहीं , फिर उनके मन में यह खिन्नता किस बात के लिए?
बहुत खोजने पर भी वेदव्यास जी कुछ खोज नहीं पा रहे थे, बहुत सोचने पर भी कुछ सोच नहीं पा रहे थे।
आखिर उन्होंने सोचा, मन की यह उदासी इस तरह तो दूर होने वाली नहीं, इसे दूर करने के लिए आसन लगा कर बैठ गए।
उन्होंने ध्यान में नेत्र बंद कर लिए।
कितने क्षण बीत पाए थे कुछ कहा नहीं जा सकता।
सहसा नारद वीणा के तारों पर मधुर स्वर-लहरी में प्रभु की प्रार्थना का गान करने लगे।
वेदव्यास का ध्यान टूट गया। उन्होंने नेत्र खोलकर देखा, वीणा बजाते हुए महर्षि नारद खड़े थे। वेदव्यास ने उठकर नारद को प्रणाम किया, उन्हें बैठने के लिए आसन प्रदान किया।
नारद जी ने आसन पर बैठते हुए वेदव्यास की ओर देखा और देखते ही देखते प्रश्न किया- “वेदव्यास जी! आपके मुख-मण्डल पर यह उदासी क्यों? लगता है, आप अत्यधिक चिंतित हैं।
वेदव्यास जी ने नि:श्वास छोड़ते हुए कहा-“हाँ महर्षि, मैं उदास हूँ, बहुत ही चिंतित हूँ।”
नारद जी ने रहस्यमयी दृष्टि से व्यास की ओर देखते हुए पुन: कहा- “उदासी और चिंता का कारण?”
वेदव्यास जी ने चिंतित भरे स्वर में उत्तर दिया “कारन तो मुझे भी नहीं मालूम है महर्षि!कारन जानने का मैंने प्रयत्न किया पर जान न पाया।
नारद ने वेदव्यास की ओर देखते हुए पुन: कहा-“आश्चर्य है? महाभारत सदृश पुनीत महाकाव्य की रचना करने वाले वेदव्यास के मुख पर उदासी!
वेदव्यास जी, आपके द्वारा रचित महाभारत को पढकर कोटि-कोटि मनुष्य चिंताओं से मुक्त हो जाएंगे, पर आप स्वयं चिंताग्रस्त हो उठे हैं, यह कितने विस्मय की बात है।’
वेदव्यास जी ने सोचते हुए उत्तर दिया-‘हाँ महर्षि! मैंने महाभारत महाकाव्य की रचना की है। मैंने आजीवन सदाचरण किया है, पर फिर भी मैं चिन्ताग्रस्त हूँ। मेरी समझ में नहीं आ रहा है महानुने, मैं चिंताग्रस्त क्यों हूँ?
नारद ने कहा-‘आपका महाभारत महाकाव्य हिंसा-प्रतिहिंसा से भरा हुआ है। हो सकता है, उसी हिंसा-प्रतिहिंसा के कारण आपका मन खिन्न हो गया हो।’
वेदव्यास जी बोले-‘हो सकता है मेरी खिन्नता का कारण वही हो। मैं उसके लिए जप करूंगा, नारद जी।’
नारद ने कहा-‘माता सरस्वती ने आपको ग्रन्थ-रचना के लिए भेजा है, जप के लिए नहीं। तप के द्वारा केवल आपका ही कल्याण होगा, पर ग्रन्थ से कोटि-कोटि मनुष्यों का कल्याण होगा।’
नारद जी की बात सुनकर वेदव्यास जी विचारों में उलझ गए। उन्होंने नारद की ओर देखते हुए कहा-‘ग्रन्थ रचना तो मैं कर चुका, महामुने! महाभारत से बढ कर ग्रन्थ मैं अब नहीं लिख सकता।’
नारद ने कहा-‘वेदव्यास जी, आपकी ग्रन्थ रचना अभी अधूरी है।
आपने महाभारत की रचना तो की, पर अभी तक महाभारत के सूत्रधार के चरित्र का गान नहीं किया।
जब तक आप उसके चरित्र का गान नहीं करेंगे, आपकी ग्रन्थ रचना अधूरी रहेगी।
आपने उनके चरित्र का गान नहीं किया, यही आपकी उदासी का कारण भी है।’
यह सुनकर वेदव्यास जी विचारों की तरंगों में डूब गए।
नारद ने वेदव्यास जी के मन को झकझोरते हुए पुन: कहा-‘वेदव्यास जी, महाभारत में आदि से लेकर अंत तक जिस लीला-पुरुष का चरित्र बोल रहा है, प्रत्येक घटना में जिसकी प्रेरणा समाई हुई है और जिसने महाभारत के सभी पर्दों को उदघाटित किया है, उस लीला-पुरुष श्री कृष्ण के चरित्र का गान कीजिए।
उनके चरित्र-गान से ही आपकी खिन्नता दूर होगी, आपको नया जीवन प्राप्त होगा।’
यह कहकर नारद वेदव्यास के मन को झकझोर वीणा बजाते हुए चले गए और वेदव्यास श्रीकृष्ण के चरित्र का गान लिखने लगे।
उन्होंने श्रीमद्भगवत तथा पुराण?ं की रचना की। सचमुच आज वेदव्यास जी के द्वारा लिखे हुए ग्रन्थों से कोटि-कोटि मनुष्यों का कल्याण हो रहा है।
नदियां सूख जाएंगी, पर्वत अपने स्थानों को छोड़ देंगे, पर वेदव्यास जी की वाणी गूंजती ही रहेगी।

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