Udake Guranu miliyej khamb bikede hone bajari: उड़के गुरानूं मिलिए जे खंब बिकदे होण बजारी!

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जब-जब देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच विभाजन रेखा तीव्र होती दिखती है, मुझे मध्य काल का भक्ति-युग याद आता है। जब कबीर, नानक, रविदास से लेकर मीरा, सूर और तुलसी ने इन सबसे परे, सब पीड़ित जनों को अपने साथ लिया। जहां, कबीर, नानक, रविदास और मीरा ईश्वर की खोज में सच्चे गुरु की तलाश में लीन हो गए। और उन्होंने गुरु को ज्यादा परम पद पर बिठाया, वहीं सूर और तुलसी ने गुरु को भगवान तक पहुंचने का साधन बनाया। आज भी देश को ऐसे ही भक्तों की तलाश है, जो इस घृणा से दूर कर हमें आपस में हेल-मेल से रहने का सलीका बताए। कुछ भी हो, अपने देश को आज बुद्ध, कबीर, नानक और रविदास की आवश्यकता है। ऐसे ही संत आज रास्ता दिखा सकते हैं। और परस्पर हेल-मेल वाली राजनीतिक विचारधारा भी।
ऊपर के शीर्षक का भावार्थ यह है, कि सच्चे गुरु से मिलने की ऐसी हुड़क लगी है कि हम उड़कर गुरु के पास चले जाते यदि पंख बाजार में मिलते होते। किसी भक्त कवि की इस रचना में कितनी आकुलता और व्यग्रता है और यही एक सच्चे भक्त की पहचान है। भारत का मध्यकाल किसी क्रांतिकारी बदलाव से तो नहीं भरा है पर यहां पर भक्ति की वह रसधारा बही जिसने समाज में ऐसी क्रांति मचा दी जिसमें विध्वंस तो नहीं हुआ और न सरकारें बदलीं पर समाज के अंदर समरसता की वह बयार चली कि जातिपात, सामाजिक रूप से ऊंच नीच की खाई पट गई। और धर्मों के बीच की अलगाव लाती दीवारें टूट गर्इं। निर्गुण हो या सगुण भक्ति पर दोनों ने एक काम किया कि समर्पण की भावना ऐसी बलवती कर दी कि मनुष्य अपना जीवन अपने आराध्य के प्रति समर्पित करने लगा। और इसी हुड़क में वह यह मानने लगा कि अब उसका मन तो बस अपने आराध्य अपने गुरु और अपने ईश्वर में तल्लीन हो गया है। यह भक्तिकाल की विशेषता है जिसमें नानक, दादू, जगजीवन जैसे निर्गुण संत मिले और कबीर जैसे समाज सुधारक जिन्होंने किसी को नहीं बख्शा। उनके निशाने पर हिंदू भी रहे और मुसलमान भी। कबीर उस दौर के इतने सशक्त और सामाजिक रूप से इतने आदृत कवि थे कि खुले आम कह रहे थे कि अरे इन दोउन राह न पावा। यह भक्तिकाल का ही कमाल था कि उनकी इस ललकार का जवाब न दिल्ली सुल्तान सिकंदर लोदी दे पा रहा था न बड़े-बड़े कट्टर धर्माचार्य व मुल्ला-मौलवी।
अगर यह कहा जाए कि भक्ति काल ने मनुष्य को विद्रोही बनाया तो थोड़ा अजीब-सा लगता है क्योंकि भक्ति के अंदर समर्पण छिपा है अपने आराध्य के प्रति। लेकिन अगर गौर किया जाए तो पता चलता है कि भक्ति के अंदर एक विद्रोह छिपा है बनी-बनाई लकीर के खिलाफ जाने के लिए। भक्ति कहीं न कहीं आदमी को सिंबल भी देता है कि कोई एक गुरु है जो गोविंद से भी बड़ा है और वह हमें रास्ता दिखाता है। वह गुरु चाहे निगुसाधुओं का हो अथवा सगुण साधुओं का। सगुणों के गुरु बल्लभाचार्य थे तो निर्गुण संप्रदाय के कबीर, नानक आदि। हर एक ने समाज को बदलने के उद्यम किए और समाज की जंग लगी मर्यादाओं को तोड़ने में पहल की। गुरु नानक अपनी हर साखी में एक नई बात कहते हैं जो तत्कालीन समाज की जड़ता को तोड़ती है। और यही कारण है कि कालांतर में जिस सिख समाज की नींव पड़ी उसके मूल में गुरु नानक की वह भावना थी कि जिसमें कहा गया था कि हिंदुस्तानी समाज में जड़ता न टूटी तो वह भविष्य के अनुकूल नहीं बन पाएगा। जब वे तेहरान में थे तब ही उन्होंने बाबर की धमक सुन ली थी। इसीलिए वे कहते हैं खुरासान खसमाणा कीया हिंदुस्तान डराया, उनकी यह वाणी भविष्य का संकेत थी।
भक्ति काल के कवियों की यही विशेषता है कि उन्होंने अपने शिष्यों को आमजनता को सच्चाई से रू-ब-रू किया। उस समय चूंकि आम जनता को कुछ सूझ नहीं रहा था। शासन के नाम पर लूट मची थी और आम जनता को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी शिकवा-शिकायतें किससे करे। देशी नरेश अपना राजकाज खो चुके थे और जो विदेशी आए थे वे न तो आम जनता की भाषा समझते थे न उनकी परेशानियां। नतीजा यह था कि देशी जनता एक तरफ तो स्थानीय स्तर पर अपने सामंतों से दबी थी और उनके विरुद्घ वह कहे भी तो किससे। शासन के नाम पर जिनका शासन था वह दिखते नहीं थे और आमजन से उनका कोई संवाद नहीं था। ऐसे में पहले तो कबीर ने सबको ललकारा और विद्रोह का बिगुल बजाया और वह भी भक्ति के नाम पर फिर तो एक-एक कर तमाम ऐसे गुरु आए जिन्होंने सामाजिक मान्यताओं के खिलाफ खड़ा होने का साहस किया। यहां तक कि सगुण संप्रदाय के तुलसी भी अपने समय का वर्णन करते समय कह ही देते है कि अब क्या किया जाए। कविता वली में वे कहते हैं कि कहां जाई का करी। यह उनकी वेदना है और जिसकी शिकायत वे राजा राम से करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अकेले राजा राम ही मौजूदा पीड़ा से दुख से लोगों को उबार सकते हैं। सूरदास, मीरां आदि कवियों की कविताओं में भी यही विद्रोही तेवर दिखाई देते हैं। भले उनके समक्ष उनका शत्रु साक्षात न दिखता हो पर दुख तो था ही। यही आम जन की पीड़ा को उकेरने के भाव ने भक्ति मार्ग को प्रशस्त किया। मगर यही बात भक्ति काल की विशेषता है। वहां पर आमजन हैं और वे अपने गुरुओं से ऐसे एकरूप हो चुके हैं कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता यह वे अच्छी तरह समझते हैं। इस काल के एक बड़े कवि रैदास के बारे में उनके भगत लिखते हैं कि गुरु मिलया रैदास दीन्हीं ज्ञान की घूटी। यानी सच्चे गुरु रैदास ने उन्हें ज्ञान की घूंटी पिलाई। और कबीर तो लिखते ही हैं कि गुरु का दरजा गोविंद भगवान से ऊंचा है क्योंकि वह गुरु ही है जिसने उन्हें गोविंद की पहचान कराई।
निर्गुण संप्रदाय में गुरु का बड़ा महत्त्व है। गुरु के महत्त्व के बाबत कई भजन लिखे गए जिसकी एक बानगी है कि यदि बाजार में पंख मिलते तो भक्त उन पंखों को लगाकर उड़ते हुए अपने गुरु से मिल आता। गुरु महिमा का यह बखान शायद भारतीयों के अलावा अन्य किसी धर्मों में इतना नहीं हुआ और इसकी वजह है कि भारत में जन्मे धर्मों में हम अपने भगवान से साक्षात संवाद करते हैं। उसकी कथाएं सुनते हैं और उसके बालपन को महसूस करते हैं। उसके साथ इस तरह का तादात्मय सिर्फ यहीं संभव है इसलिए यहां अपने आराध्य से एकरूपता स्थापित करना बहुत जरूरी है फिर वह चाहे गुरु के रूप में हो या भगवान के अवतार के रूप में। भक्त के अपने आराध्य के साथ एकरूप हो जाने से उसमें अपने आराध्य की मौजूदगी का अहसास होता है।
लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
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