The plunder of the tribal is also unconstitutional! आदिवासी की लूट तो असंवैधानिक भी है!

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विश्व का सर्वश्रेष्ठ लौह अयस्क बैलाडिला घाटी में है। छाती बस्तर की खुद रही है। विदेशियों की फूल रही है। सरकारी एजेंसियों और ठेकेदारों के घरों में दीवाली है। आदिवासियों के जीवन में भुखमरी, मुफलिसी और लाचारी। आदिवासी का शोषण करना ही उनके जीवन का मकसद बन गया है।
पटवारी से लेकर कलेक्टर, शराब ठेकेदार से लेकर उद्योगपति, हवलदार से लेकर पुलिस कप्तान, पंच से लेकर मंत्री तक आदिवासी इलाकों के लिए जमींदार, रायबहादुर या खान बहादुर की तरह आचरण करते रहे। भू राजस्व संहिता में हर वर्ष संशोधन हुआ लेकिन वनवासियों को उस भूमि का पट्टा नहीं मिला जिस पर वे पुश्तैनी रूप से काबिज हैं। नदियों और झीलों के स्त्रोतों पर सदियों से चला आ रहा अधिकार यक-ब-यक सिंचाई 1931 के मैनुअल के प्रावधानों के बावजूद उद्योगों को प्राथमिकता देता रहा। सफेदपोश शोषक और कुछ आदिवासी दलाल मुखौटे सभ्य कहलाते हैं। राजनीतिक डींग मारी गई थी। छत्तीसगढ़ बनेगा तो वह छोटे राज्यों पंजाब, केरल और हरियाणा वगैरह को पीछे छोड़ देगा। इन राज्यों के उद्योगपति ठेकेदार और व्यापारी छत्तीसगढ़ का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं।
बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों से लेकर राजस्थान और गुजरात जैसे समृद्ध राज्यों के तिजारती छत्तीसगढ़ की खनिज संपदा और अन्य संसाधनोें पर गिद्ध दृष्टि लिए हावी हैं। मैगनीज, फ्लूरोस्पार, डोलोमाइट, कोयला और लौह अयस्क जैसे मुख्य खनि उत्पादों पर गरीब की लुगाई सबकी भौजाई वाला डाका डाला जाता रहा है। अगले वर्षों में छत्तीसगढ़ की इंच इंच धरती के खनि पट्टे बांट दिए जाने की कार्रवाई जारी है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।
वनोपज का बुरा हाल है। तेंदूपत्ता, चार, चिरौंजी, कत्था, तीखुर, लकड़ी वगैरह उद्योग में पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार, गुजरात और राजस्थान से आए लोगों का दबदबा है। राजस्व, वन, पुलिस, खनिज, आबकारी वगैरह विभागों के अधिकारी ठेकेदार बनते रहते हैं। आदिवासी तबाह हो रहे। तेंदूपत्ता संग्रह के लिए सहकारी समितियों का शोशा छोड़ा गया। तिजोरियों चाबियां व्यापारियों के हाथों में हैं। एक किलो चिरौंजी एक किलो नमक के बदले खरीदी गई। वनोपजों के सरकारी ठेकेदार कवि सम्मेलन कराते रहे। छत्तीसगढ़िया कवियों को पांच-पांच हजार रुपए पारिश्रमिक देकर कृतार्थ करते रहे। वनोपजें शरीर से निकाले गए खून की तरह गायब होती जा रही हैं। जंगल माफिया खुले आम जंगल काट रहा है। नेता अधिकारी वसूली में मस्त है। लाखों कीमती पेड़ काट दिए गए। सीबीआई में मुकदमा दर्ज है। वह मुंह पर पट्टी बांधे बैठी है। बस्तर और सरगुजा में वन क्षेत्र घटकर आधा भी नहीं रह गया।
तिकड़मी नौकरशाहों, राजनेताओं और व्यापारियों ने बस्तर के प्राकृतिक शाल वनों को उजाड़कर पाइन वृक्षों को रोपने का कुचक्र जलवायु, भूमि की ग्राह्य-क्षमता, प्रकृति-चरित्र और भौगोलिक अवयवों की अनदेखी करके रचा। यह तो करिश्माई नेतृत्व की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं जिन्होंने बस्तर के तत्कालीन केन्द्रीय मंत्रिमंडल में उनके सहयोगी अरविन्द नेताम और अन्य नेताओं की पहल पर इस परियोजना को कूड़े की पेटी में फेंक दिया। एक के बाद एक मुख्यमंत्री परियोजना की लागत के आर्थिक आंकड़ों को ध्यान में रखकर इसके पक्ष में रहे हैं। सागौन सहित अन्य पेड़ों को आदिवासियों की भूमि से कटवाने का कुचक्र वाला मालिक मकबूजा कांड बदनुमा दाग है। आदिवासियों के असंतोष का हिंसात्मक नकदीकरण नक्सलवाद ने किया। वन कानूनों में तरह-तरह के जंगलों की परिभाषाएं हैं। उनकी तकनीकी प्रकृति को समझना वन अधिकारियों तक के बस की बात नहीं रही। आदिवासी समझ नहीं पाते उन्हें कब और कहां किस वन में रहना या छोड़ना होगा।
वन संरक्षण की आड़ में औद्योगिक गतिविधियों का गोपनीय संबंध अधिकारियों से जुड़ता रहा। जंगल छिने, जल के स्त्रोत छिने, वन उत्पादन छिने, कृषि योग्य भूमियां भी नहीं मिली और नए उद्योगों में नौकरियां भी आदिवासियों के लिए नदारद रही। उदाहरण के लिए टाटा स्टील कंपनी के बस्तर में लग सकने वाले कारखाने का छत्तीसगढ़ सरकार के साथ किया गया करारनामा यदि ध्यान से पढ़ा जाता। प्रकट होता कि 10 से 15 हजार करोड़ रुपए की लागत से लगने वाले कारखाने में बमुश्किल 100 स्थानीय अकुशल श्रमिकों को नौकरी मिल पाती। संविधान में आदेश है। सुप्रीम कोर्ट ने हिदायतें दी हैं। पांचवी अनुसूची से प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में देश के किसी भी कानून को लागू करने के पहले सुनिश्चित किया जाए। आदिवासियों के प्राकृतिक, पुश्तैनी और पारंपरिक अधिकारों में कटौती नहीं हो। बड़े कारखाने बस्तर में नहीं लाए जाएं, तो छत्तीसगढ़ के विकास पर क्या विपरीत असर पड़ेगा? ये कारखाने गैर आदिवासी क्षेत्रों में नहीं लगाए जा सकते? देश में नए किस्म का वैश्वीकृत विकास हो रहा है। उससे बस्तर में भी नए अरबपति पूंजीवादी डाकू पैदा होंगे। उनमें तथा देश के सबसे गरीब और लाचार आदिवासियों के बीच सामंतवादी रिश्ता कायम होगा।
जिसने भारत को सदियों से कलंकित किया। जिस प्रथा को संविधान ने खत्म किया। विस्थापितों की पुनर्वास नीति का मुख्य मानवीय आधार तो वह होना चाहिए। उनकी जमीनें छिनने के बाद बराबर मूल्य और पैदावार की जमीनें मिलें कि उन्हें बिल्कुल आर्थिक नुकसान नहीं हो। क्या बस्तर में भी यही नहीं हो रहा है? सामूहिक प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के अधिकारों की प्राथमिकता और वरीयता तथा निरंतरता को कायम रखने से नक्सलवाद को निरुत्साहित किया जा सकता है।
स्टील कारखाने, विशेष आर्थिक क्षेत्र, नैनो कार का उत्पादन और गोल्फ कोर्स का निर्माण जैसे कृत्य लोक प्रयोजनों की परिभाषा में नहीं आते। आदिवासी जीवन से वे असफल योजनाएं हटा लेनी चाहिए जिनका प्रत्यक्ष फायदा बल्कि ब्लैकमेल करने का अवसर अन्य किसी तत्व मसलन नक्सलियों को मिल सके। केंद्रीय योजना आयोग ने राष्ट्रीय खनिज नीति, 2007 के पुनरीक्षण के लिए समिति गठित की थी। समिति की रिपोर्ट प्रस्तुत हुई। उस पर विचार भी किया गया। सरकार ने निर्देश दिए वन क्षेत्रों में खनिज नीति के अनुसरण में की जा रही कार्यवाही में अतिरिक्त सावधानी और सतर्कता बरती जाए। अधिकतर खदानें उन अनुसूचित क्षेत्रों में हैं जो पांचवी अनुसूची से प्रभावित हैं। साथ ही पर्यावरण तथा परिवेश को न्यूनतम क्षति पहुंचाई जाए।
आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जीवन को क्षरण से बचाया जा सके। छत्तीसगढ़ राज्य के बनने के बाद बारी-बारी से राज्य और केंद्र में सत्ता में आने वाली पार्टियों ने निजी उद्योगपतियों के सामने हथियार डाले। उद्योगपति उसे नहीं कहते जो दीमकों या चूहों की तरह धरती के नीचे से रत्नों को निकाल ले जाए। राज्य सरकार को चुनौती है कि अपनी खनिज नीति के अनुसरण में की जाने वाली कार्यवाहियों का श्वेत पत्र प्रकाशित कर अपनी नीयत स्पष्ट करे।

कनक तिवारी

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। )

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