paisa kam, baaten jyaada… ati sarvatr vajaryet: पैसा कम, बातें ज्यादा… अति सर्वत्र वजर्येत्

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अति दानात बलिर्वधो ह्यति मानात सुयोधन
अति लौल्यात रावणो हन्त: अति सर्वत्र वजर्येत्
संस्कृत के इस सुभाषित का अर्थ मौजूदा दौर में भी समीचीन है। इन दो पंक्तियों में कहा गया है कि अत्यधिक दानशील होने के कारण राजा बलि ने स्वयं को बंदी बनने दिया, अत्यधिक अभिमानी होने के कारण सम्राट दुर्योधन व अस्थिर मन व गर्व के कारण महाबली रावण का नाश हो गया, अत: किसी भी प्रवृत्ति या परिस्थिति में अति से बचना चाहिए। यह सुभाषित किसी भी प्रकार के आधिक्य पर नियंत्रण की सीख देता है। मौजूदा राजनीतिक परिवेश में जिस तरह आर्थिक मंदी के दौर में राजनीतिक विमर्श सिर्फ वाद-विवाद पर केंद्रित हो गया है, वहां ज्यादा बातें संकट पैदा कर रही हैं।  एक ओर पूरा देश आर्थिक मंदीका शिकार है, सरकार बार-बार सामने आकर मंदी से निपटने के जतन कर रही है, वहीं बेसिरपैर की बातें जनता का मनोबल गिरा रही हैं। इस पर तुरंत नियंत्रण स्थापित करना जरूरी है।
पिछले कुछ महीने भारत के सामने आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियों भरे रहे हैं। जिस तेजी से बेरोजगारी दर ने पिछले कुछ दशकों का आंकड़ा पार किया है, उससे निपटने की सरकारी कोशिशों के बीच ही आर्थिक मंदी की तेज दस्तक ने पूरे तंत्र को झकझोर दिया है। इस वर्ष भारत में बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत सामने आई है, जो पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक है। आबादी बढ़ने के साथ बेरोजगारी बढ़ने के तर्क को स्वीकार भी कर लिया जाता, किंतु इस बार समस्या पुराने रोजगारों के जाने की भी है। जिस तेजी से बाजार में मंदी आयी है, तमाम ऐसे लोग भी बेरोजगार हो गए, जो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। मंदी की चपेट में आई कंपनियों ने देश में करोड़ों ऐसे बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी है, जिनकी गिनती रोजगार पाए हुए लोगों में होती थी। इससे न सिर्फ आंकड़ों का गणित उलझा, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था का पैमाना ही उलझ कर रह गया है। हालात ये हैं कि देश का आॅटो सेक्टर रिवर्स गियर में चल रहा है, टेक्सटाइल सेक्टर में लगभग 35 प्रतिशत गिरावट आई है और रियल इस्टेट सेक्टर भरभरा कर गिर रहा है। हालात ये हैं कि देश के तीस बड़े शहरों में तेरह लाख के आसपास मकान बनकर तैयार खड़े हैं, किन्तु उन्हें खरीदार नहीं मिल रहे हैं।
सरकारी आंकड़े भी खराब अर्थ व्यवस्था की पुष्टि करते हैं। केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन के मुताबिक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मामले में स्थिति चिंताजनक है। वित्तीय वर्ष 2018-19 में देश की जीडीपी दर 6.8 प्रतिशत रही, जो पिछले पांच वर्षों में सबसे कम है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी मंदी की आहट भांपते हुए वित्तीय वर्ष 2019-20 के लिए अनुमानित विकास दर 6.9 प्रतिशत पर सीमित कर दी है। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी आंकड़े बैंकों द्वारा उद्योगों को दिये जाने वाले कर्ज में गिरावट की गवाही भी देते हैं। इसके अनुसार पेट्रोलियम, टेलीकॉम, खनन, फर्टिलाइजर व टेक्सटाइल जैसे उद्योगों ने बैंकों से कर्ज लेना कम कर दिया है। अंतरराष्टÑीय बाजार में आए बदलावों के साथ डॉलर के मुकाबले रुपए की घटती कीमतें भी समस्या बढ़ा रही हैं। इसका असर आयात-निर्यात, दोनों पर पड़ रहा है। अगस्त महीने को ही लिया जाए तो भारत के आयात व निर्यात, दोनों में कमी दर्ज की गयी है। अगस्त में जहां आयात में 13.45 प्रतिशत, वहीं निर्यात में 6.05 प्रतिशत कमी आई है।
आर्थिक मंदी की लगभग पुष्टिकारक स्थितियों के बाद केंद्र सरकार भी आगे आई है। वित्त मंत्री ने कई उपायों की घोषणा भी की है। इन कोशिशों को सरकार से जुड़े कुछ राजनीतिज्ञों के बयान नकारात्मक रूप से प्रभावित भी कर रहे हैं। जिस तरह पहले आॅटो सेक्टर में आई गिरावट के लिए ओला-उबर जैसी कंपनियों के प्रसार को कारण बताया गया, तो कभी अर्थव्यवस्था के आंकड़ों की चर्चा करते हुए आइंस्टीन से गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का प्रतिपादन करा दिया गया। एक राज्य के मंत्री ने सावन भादों को मंदी का कारण बताया, वहीं बेरोजगारी के लिए उत्तर भारतीयों की अकर्मण्यता को कारण बता कर सरकार के प्रतिनिधि एक तरह से लोगों को चिढ़ा रहे हैं। इससे जिन लोगों की नौकरियां जा रही हैं, उनका न सिर्फ मनोबल गिरता है, बल्कि सरकार को लेकर उनके मन में नकारात्मक छवि भी बन रही है। सरकार को इन बयानवीरों पर नियंत्र ण करना होगा। इन बयानों के बाद अल-अलग तरह की सफाई तो आ जाती है किन्तु तब तक जो नुकसान होना होता है, वह हो चुका होता है। ऐसे में ये पंक्तियां याद कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और रोजगार के अवसर सृजित करने पर जोर दिया जाना चाहिए…
चुप रहना ही बेहतर है, जमाने के हिसाब से,
धोखा खा जाते है, अक्सर ज्यादा बोलने वाले !!
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