Our fight, Our hands: अपनी लड़ाई, अपने हाथ

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एक समकालीन इटालियन साहित्यकार उम्बेर्टो एको ने सोशल मीडिया के सूमो पहलवानों के ऊपर रोचक टिप्पणी की है। उनका कहना है कि पहले मूर्ख लोग पी-पाकर अंट-शंट बोलते थे। जल्दी ही कोई ना कोई उन्हें चुप भी करा देता था। लेकिन सोशल मीडिया के आने के बाद तो वे पजामे से बाहर हो गए हैं। इनको हर विषय पर बकने का अधिकार मिल गया है, मानो कोई नोबेल पुरस्कार के विजेता हों। ये “इन्वेज़न ओफ इडीयट्स” यानि मूर्खों का महा-आक्रमण है।

आजकल ये सूरमा कश्मीर पर लगे हुए हैं। जैसे कि ये कोई सस्पेन्स सिनेमा हो। अमरनाथ यात्रा रद्द हो गई है। पर्यटकों को वापस जाने के लिए कह दिया गया है। अतिरिक्त अर्धसैनिक बल तैनात कर दिए गए हैं। इसका मतलब पंद्रह अगस्त को लाल क़िले से कोई बड़ा गोला दागा जाने वाला है। संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A के परखच्चे उड़ा दिये जाएँगे। ग्राफ़िक्स वाले तरह-तरह के मीम बनाकर डाल रहे हैं। हद ही हो गई है। धोनी घाटी में अपनी बटालियन की ड्यूटी दे रहे हैं। उन्हें उकसाने में लगे हैं कि वर्ल्ड कप में तो फ़िनिश कर नहीं पाए, इधर तो कर दो। मनोरंजन तक तो ठीक है। दिक्कत तब हो जाती है जब नक़ली और बेदख़ल राजा-रानी और दरबारी मीडिया में गोलीबारी शुरू कर देते हैं। बेसिरपैर के सवाल-जबाव करने लगते हैं। भूल जाते हैं कि जिन लोगों को तत्काल जनता ने काम पर लगा रखा है, उनसे वे कुछ भिन्न की अपेक्षा रखते हैं। जिम्मेवार लोग है। नए सिरे से कोशिश कर रहे हैं। उन्हें मौक़ा मिलना चाहिए।

वैसे लानत कश्मीर के तब के महाराजा हरि सिंह को भेजना चाहिए। अंग्रेज़ों ने जिन्ना की टू-नेशन थ्योरी मान ली क्योंकि उन्हें जाने की जल्दी थी। लेकिन इसके बावजूद लॉर्ड माउंटबैटन तीन दिन कश्मीर में बैठ कर हरि सिंह को समझाते रहे कि भारत से विलय कर लो, यही ठीक रहेगा। मोटी बुद्धि के ऐय्यास के पल्ले पड़ा नहीं। भ्रम पाले रहा कि अकेले खेप लेंगे। जब पाकिस्तानियों ने हल्ला बोला तो भागे-भागे आए। फिर भी तरह-तरह के पेच डाल गए। कश्मीर को जन्नत की जगह जंगे-मैदान बना दिया। तीन लड़ाई तो हो ली। लाखों मर लिए। सोशल मीडिया के काग़ज़ी शेरों के लिए ये एक कम्प्यूटर वार-गेम है। सरकार के लिए पेचीदा और संवेदनशील मसला जहाँ ग़लती की कोई गुंजाइश नहीं है।

साल 2011 में इटली के विचेंजा स्थित संयुक्त राष्ट्र के एक संस्थान में प्रशिक्षण के दौरान पाकिस्तान पुलिस सर्विस के अफ़सरों से मिलना हुआ। बोल-चाल, शक्ल सूरत से फ़र्क़ करना मुश्किल था। खुले खर्चने वाले थे। ट्रेनिंग पर कम और तफ़री पर ज़्यादा ध्यान देते थे। मैंने एक दिन ऐसे ही पूछ लिया कि जो पल्ले है वो तो संभल नहीं रहा, कश्मीर के पीछे क्यों पड़े हो? जवाब दिया शुक्र करिए जनाब कि हम बीच में हैं। अफगनिस्तान से आए शरणार्थियों को झेल रहे हैं। इन्होंने हमारे गाँव-शहर-निज़ाम का रंग बदल दिया है। हम ना होते तो ये आपके दिल्ली में जमे होते।

इतिहासकारों की अपनी सोच होगी। मुझे लगता है कि हमारे पश्चिम के पहाड़ी इलाकों में मार-फ़साद हज़ारों साल से एक कारोबार की तरह से फल-फूल रहा है। जिनके यहाँ तेल का कुआँ निकल आया वहाँ चमक-दमक तो आ गई लेकिन निज़ाम डंडे के ज़ोर पर ही चल रहा है। बाक़ी जगह लड़ने वाले भरे पड़े हैं, जहाँ मर्ज़ी लड़वा लो। इसी वजह से ओसामा बिन लादेन ने सारी दुनियाँ छोड़ अफगनिस्तान में ही अपनी जेहाद की दुकान खोली। कम्युनिज़म को पस्त करने के लिए अमेरिका ने भी इधर ही जिहाद का फोर्मुला लगाया। अफगनिस्तान से रोजी-रोटी की तलाश में ईरान-इराक़ गए ज़्यादातर लड़के दिहाड़ी पर आईएसआईएस के लिए लड़ते हैं।

जानकारों का कहना है कि आईएसआईएस की खटिया खड़ी होने के बाद पेशेवर जेहादी बेरोज़गार हो गए हैं और वापस अपने-अपने देश लौटने के क्रम में हैं। इनमें से डेढ़ लाख अफ़ग़ानी हैं। लड़ाई के अलावा उन्हें कुछ और आता ही नहीं। कोई दूसरा मैदान चाहिए ही चाहिए। पाकिस्तानी नरमपंथी को वे रास्ता का रोड़ा मानते हैं। वहाँ के फ़ौजियों को भी धमकाते हैं कि मनमर्ज़ी करने से रोका तो तुम्हारी भी ऐसी-तैसी करेंगे। ऐसे में पाकिस्तानी निज़ाम एक रणनीति के तहत उन्हें कश्मीर में धकेलने में लगा है। क़र्ज़े पर चल रहे देश का ये बजट-मुक्त मनरेगा है। काम चाहिए? जाओ कश्मीर में लड़ो। यही कारण है कि ऑक्सफ़ोर्ड के पढ़े-लिखे, आधुनिक दिखने वाले पाकिस्तानी भी सरकार में आने और बने रहने के लिए चरमपंथियों की भाषा बोलते हैं।

इस हालत में एक बात तो तय है। कश्मीर की लड़ाई हमें ख़ुद ही लड़नी होगी। पाकिस्तानी फ़ौज जेहादियों को इधर धकेलती ही रहेगी। ये ज़्यादातर अनपढ़, ग़रीब हैं। इधर दिहाड़ी पर लड़ने आते हैं। बातचीत से कोई हल नहीं निकलने वाला। सबकी अपनी-अपनी मजबूरियाँ और शौक़ है। अगर ख़ुशफ़हमी में रहे तो बात कश्मीर तक ही नहीं रूकेगी। ये हैदराबाद के निज़ाम और अवध के नवाब के भूत को भी जगा लेंगे। एक ही उपाय है कि जिहाद को घाटे का सौदा बना दिया जाय। जेहादियों का इधर घुसना, टिकना निहायत ही ख़तरे का काम बना दिया जाय। इधर इनका कोई ‘सेफ़ हेवन’ नहीं होना चाहिए। कोई पनाह देने वाला नहीं होना चाहिए। ऐसा सुरक्षा बलों की संख्या को बढ़ाकर और इनके सपोर्ट नेट्वर्क को ध्वस्त कर के ही किया जा सकता है।

जहाँ तक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A की बात है, कश्मीर विधान सभा को ख़ुद ही कहना चाहिए कि इन्हें हटाओ। जब एक पंगत में खाने बैठे हैं तो एक को सोने की थाली क्यों चाहिए? “तुम्हारा सब कुछ तो मेरा है और मेरा सबकुछ सिर्फ़ मेरा है” स्वार्थ नहीं तो और क्या है?

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