One month after Jammu and Kashmir sanctions: जम्मू-कश्मीर प्रतिबंधों के एक माह बाद

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5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 पास हुआ था और यह राज्य दो हिस्सों में बंट कर दो केंद्र शासित राज्यों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बंट गया। साथ ही अनुच्छेद 370 के अधीन प्राप्त राज्य का विशेष दर्जा भी समाप्त कर दिया गया। लेकिन इस निर्णय के कुछ दिन पहले से ही शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए, एहतियातन कई कदम उठाए गए थे।
अमरनाथ यात्रा को बीच मे ही रोक कर यात्रियों को वापस कर दिया गया, सामान्य पर्यटक जो इस सीजन में जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण अंग होते हैं उन्हें जहां हैं जैसे हैं राज्य छोड़ कर जाने के लिए कह दिया गया। सेना सहित अन्य सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ा दी गई। हुर्रियत के नेता तो जेलों में बंद कर ही दिए गए, पर मुख्य धारा में चुनाव लड़कर संसद और विधानसभा में पहुंचने वाले तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों और अन्य नेताओं को भी उनके घरों में हिरासत में रख दिया गया। आज लगभग एक माह कश्मीर में सामान्य गतिविधियों को बाधित हुए हो रहा है और अब तक सरकार का एक भी कदम ऐसा नहीं दिख रहा है जिसके आधार पर यह कहा जाय कि अब स्थिति सामान्य होगी।
जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 के पारित होने के बाद, देश में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। अनुच्छेद 370 के खत्म करने का वादा भाजपा के कोर वादों में से एक वादा था, तो सरकार समर्थक इस वायदे के पूरा होने से खुश हुए, अन्य सामान्य लोगों ने यह उम्मीद की थी कि, इससे जम्मू-कश्मीर में लंबे समय से चली आ रही आतंकी और हिंसक गतिविधियों पर लगाम लगेगी और राज्य में अमन चैन की बहाली होगी, तो वे इस उम्मीद में तनावमुक्त हुए, विरोधी दलों ने यह आशंका जताई कि इससे जम्मू-कश्मीर की अंदरूनी स्थिति और बिगड़ेगी तथा तनाव बढ़ेगा, स्थिति और भड़केगी तथा राज्य का वह तबका जो अलगाववादियों के खिलाफ शुरू से ही रहा है, वह अब अपने को अलग-थलग और ठगा सा महसूस करेगा, क्योंकि उसकी कोई भूमिका इस बिल के पारित होने में नहीं है, तो उन्होंने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए, कानून के जानकार इस कानून में संविधान संशोधन की प्रक्रियागत खामियों पर बात करने लगे, कहने का आशय यह कि देश के अंदर हर तरह के लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रिया हुई।
इस कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सात जनहित याचिकाएं भी दायर हुर्इं हैं, और सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सुनवार्इं भी शुरू कर सरकार को नोटिस भी जारी कर दिया है। अब आगे क्या होता है, यह भविष्य के गर्भ में है। विदेशों से भी प्रतिक्रिया मिली है। सभी बड़ी ताकतों ने भारत के इस कदम को उसका आंतरिक मामला बताया है और कश्मीर सहित भारत पाकिस्तान के आपसी विवाद को आपस मे मिल बैठ कर बात करने और समस्या सुलझाने के लिए भी कहा। कूटनीतिक क्षेत्र में यह हमारे लिए राहत की बात है कि विश्व बिरादरी आज भी भारत-पाक संदर्भो में शिमला समझौता और लाहौर डिक्लेरेशन को प्रासंगिक मानती है। पर अभी यूएस के डेमोक्रेट नेता बन्नी सांडर्स ने कश्मीर के मामले पर विशेषकर कश्मीर में प्रतिबंधों के संदर्भ में एक असहज करने वाला बयान दिया है कि भारत सरकार कश्मीर से प्रतिबंध हटाए। हालांकि यह भारत का आंतरिक मामला है कि कानून व्यवस्था की स्थितियों को देखते हुए हम कहां-कहां क्या एहतियाती कदम उठाते हैं।
यूएस में नए राष्ट्रपति का चुनाव 2020 में होना है। यह बयान यूएस के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कूटनीतिक स्टैंड को निशाने पर लेने के लिए अधिक है न कि भारत के संदर्भ में, ऐसा मेरा मानना है। एक प्रतिक्रिया पाकिस्तान से भी आई है और अब भी वह अधिक जोर शोर से आ रही है। कश्मीर का एक हिस्सा जिसे पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है पाक के कब्जे में 1948 से ही है। पाकिस्तान ने उसका कुछ भाग चीन को भी दे दिया है। इस भूखंड को जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है, पाकिस्तान का कानूनी भाग आज तक नहीं बन पाया है।
पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में इस भूभाग को अपने क्षेत्राधिकार में मानने से मना कर दिया है। यह भूभाग, उपेक्षित और अनेक जन सुविधाओं से महरूम है। यह एक प्रकार से पाकिस्तान के लिए आतंकवादी ब्रीडिंग सेंटर के रूप में हैं। वह यहां आतंकी शिविर चलाता है और कश्मीर में होने वाली सारी आतंकी घटनाओं को पाकिस्तान यहीं से संचालित करता है। पाकिस्तान की यह प्रतिक्रिया भी उसके अपने देशवासियों को यह जताने के लिए अधिक है कि वह कश्मीर मसले पर खामोश नहीं है बल्कि वह कुछ न कुछ कर रहा है। पाकिस्तान को यह भय है कि अनुच्छेद 370 के संशोधन के बाद भारत, पाक अधिकृत कश्मीर को लेने के लिए कदम बढ़ा सकता है। इसलिए उसके लिए यह जरूरी है कि कश्मीर में अशांति बनी रहे। उसने इसी अशांति को बनाए रखने के लिए न केवल यूएन में शोर मचाया बल्कि चीन, यूएस सहित अन्य देशों के सामने भी गुहार लगाई।
चीन को छोड़कर किसी भी देश और संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी उसकी एक न सुनी। चीन का पाकिस्तान और पीओके में जबरदस्त आर्थिक हित हैं तो उसकी यह विवशता है कि वह पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखे। यूएस को भी लंबे समय से अफगानिस्तान में फंसे होने का एहसास है और वह वहां से निकलना चाहता है। ऐसे अवसर पर वह पाकिस्तान की बात पर भी कभी कभी ध्यान दे देता है। पर वह हमारे विरुद्ध नहीं है। कश्मीर के समक्ष, आज की तिथि में मुख्य समस्या है, वहां की नागरिक आजादी पर प्रतिबंध, संचार के साधनों पर रोक, हालांकि, अखबारों पर कोई प्रतिबंध नहीं है पर संचाराविरोध के कारण उनका प्रकाशन अनियमित है। इसे लेकर कश्मीर टाइम्स की प्रबंध संपादक ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर कर रखी है। कहा जा रहा है कि, इस मीडिया ब्लैकआउट के कारण वहां से वास्तविक हालात की खबरें नहीं आ पा रही हैं। विदेशी मीडिया और कुछ स्वतंत्र पत्रकारों द्वारा कुछ वीडियो और लेख सोशल मीडिया पर लगभग रोज ही पोस्ट हो रहे हैं उनसे तो यही लगता है कि वहां स्थिति सामान्य नहीं है। हाल ही में हुए राहुल गांधी सहित अन्य विपक्षी दलों के नेताओ के दौरे को श्रीनगर एयरपोर्ट पर ही रोक दिए जाने से यही बात फैल रही है कि वहां स्थिति असामान्य है।
अभी हाल ही में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने सुप्रीम कोर्ट की अनुमति से अपने घर मे ही विरुद्ध अपने एक विधायक से मिलने के लिए श्रीनगर गए। उन्हें अपने विधायक से मिलने की अनुमति तो थी पर शहर में कहीं और जाने की अनुमति मिली थी। अब आज लगभग एक माह के ब्लैकआउट के बाद, सबसे बड़ा सवाल सरकार के सामने यह है कि जब प्रतिबंध हटेंगे तब क्या होगा। कश्मीर की हालत आज की तिथि में, उस मरीज की तरह है जो अभी आईसीयू में एक बड़े आॅपरेशन के बाद लेटा है। उस पर गम्भीर नजर रखी जा रहीं है। जब वह कुछ स्वस्थ हो और आईसीयू से निकल कर वार्ड में और फिर अस्पताल से निकल कर घर आए तो यह पता चले कि इस आॅपरेशन का क्या लाभ हुआ है। इस कदम को जम्मू-कश्मीर की जनता ने कितनी प्रसन्नता और सदाशयता से लिया है इसकी समीक्षा अभी सम्भव नहीं है। हालांकि सरकार ने बीस दिन पहले ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का श्रीनगर के एक बाजार में कुछ स्थानीय लोगों के साथ बातचीत और जलपान करते हुए एक फोटो जारी किया था। लेकिन पृष्ठभूमि में बंद दुकानें और सन्नाटा यह बता रहा था कि यह एक भरोसा उत्पन्न करने की ड्रिल है। अत: अभी केवल इंतजार ही किया जा सकता है।
कश्मीर में 5 अगस्त को लिए गए फैसले में कश्मीर की जनता के प्रतिनिधियों की राय न लेना, आगे चलकर यह एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। अभी तक अलगाववादी नेताओं और तत्वों के खिलाफ वहां के स्थानीय नेता मजबूती से खड़े होते थे और इससे दुनियाभर में यह संदेश जाता था कि अलगावाद कश्मीर का कोई स्थाई भाव नहीं है बल्कि वह पूरी तरह से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का ही एक रूप है। पर जब सारे प्रतिबंध सामान्य होंगे, सभी नेता बाहर निकलेंगे, जब जनता के बीच जाएंगे और अपनी बात कहेंगे तो उनका स्वर और दृष्टिकोण क्या होगा, यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
लेकिन यह विश्वास करना कठिन है कि अनुच्छेद 370 के संशोधित होने और राज्य के बंटवारे का निर्णय जिस प्रकार सबको निरुद्ध कर के लिया गया है उसे वे आसानी से स्वीकार कर लेंगे। सरकार को भी ऐसी संभावनाओं का अंदाजा होगा और सरकार ने उस स्थिति के लिए भी कोई न कोई वैकल्पिक व्यवस्था सोच रखी होगी। जम्मू-कश्मीर का मामला न तो मात्र कानून व्यवस्था का मामला है और न ही हिंदू मुस्लिम का मामला है। यह एक राजनीतिक मामला है और इसका समाधान राजनीतिक रूप से ही संभव है। आतंकवाद भी अपने आप मे एक कानून व्यवस्था का मामला ही नहीं है बल्कि यह एक राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने का एक हिंसक उपाय है। केवल सुरक्षा बलों के सहारे इस व्यधि से नहीं निपटा जा सकता है। लंबे समय तक सुरक्षा बलों की तैनाती सुरक्षा बलों के मनोबल और उनके उद्देश्य पर भी असर डालती है। पंजाब के आतंकवाद को याद कीजिये, वहां का आतंकवाद तभी समाप्त किया जा सका, जब वहां के स्थानीय जनता का साथ मिला और उनको विश्वास में लिया गया। कश्मीर के आतंकवाद और अलगाववाद को भी बिना कश्मीरी जनता के समर्थन और उन्हें विश्वास में लिए बिना खत्म नहीं किया जा सकता है।
जम्मू-कश्मीर एक दुश्मन मुल्क नहीं है और न ही वहां के सभी नेता भारत विरोधी। जो भारत विरोधी और अलगाववादी हैं उन्हें पहचान कर राजनीतिक रूप से अलग-थलग कर के अप्रासंगिक करना होगा और शेष नेताओं को जो देश के संविधान के अनुसार संवैधानिक प्रक्रिया के साथ शुरू से ही हैं उनको और कश्मीर की जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि, अनुच्छेद 370 का यह संशोधन राज्य के विकास और जनता के हित में है।
(लेखक सेवानिवृत्त
आईपीएस अधिकारी हैं)

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