… neither these farmers nor workers: …ये न किसान बचे न मजदूर

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आइये आपको दिल्ली से थोड़ा दूर ले चलते हैं। यात्रा लंबी होगी, पहले 440 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी कानपुर चलना होगा, फिर 67 किलोमीटर चलकर मिलेगा मजरा खेड़ा-कुर्सी। इस मजरे के एक गांव में आजादी के 70 साल बाद तक लोग बिनबिजली रहे हैं। जी हां, इसी बरस आई है यहां बिजली। यहां रहने वाले 55 साल के राम कृपाल के पास न ज्यादा जमीन है, न कोई नौकरी। जितनी जमीन है उससे घर चलता नहीं है और मजदूरी मिलती नहीं है। ऐसे में राम कृपाल व उनके जैसे लोग न किसान बचे हैं, न मजदूर और उनका यह दर्द बातचीत में उभर कर सामने भी आ जाता है। राम कृपाल की कहानी उनके गांव ही नहीं, आसपास के गांवों के भी तमाम किसानों की कहानी है। वे खेतों में मजदूरी करना चाहते हैं किन्तु काम ही नहीं मिलता है। दो साल पहले मनरेगा में कुछ काम मिल जाता था, दो साल से वह भी नहीं मिल रहा है। बच्चों के भविष्य की बात कर वे निराश भाव में आसमान की ओर देखने लगते हैं। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में गांव के किसानों व मजदूरों की पूरी अर्थव्यवस्था में बदलाव आया है। पहले तो छोटी जोत (प्रति व्यक्ति कम खेती), ऊपर से आय के कम साधन मुसीबत बने हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में साल में बस दो फसलें ही हो पाती हैं। इसमें  दिन-रात एक कर दो, समय पर पानी बरसने से लेकर सिंचाई तक का बंदोबस्त हो जाए, तब जाकर एक बीघा खेत में बमुश्किल छह कुंतल गेहूं व छह कुंतल धान ही पैदा होती है। ऐसे में इतनी कम फसल में क्या बचाएं, क्या खाएं, यह सवाल मुंह बाए खड़ा रहता है। खेती पर होने वाले खर्च की तुलना में यह उत्पादन बेमतलब सा लगता है। किसानों का मानना है कि इस साल की शुरूआत में केंद्र सरकार की पहल पर दो हजार रुपए खाते में पहुंचे तो उम्मीद बंधी थी किन्तु यह रकम पर्याप्त साबित नहीं हुई। इन स्थितियों में बच्चों के भविष्य के बारे में अच्छा सोचने तक की फुर्सत नहीं होती, भविष्य बनाने की बात तो दूर की है।
छोटी जोत वाले किसानों के साथ गांव में ऐसे किसान भी हैं जिनके पास जमीन बची ही नहीं है। इनके लिए बड़ी जोत वाले किसान थोड़े बहुत मददगार साबित होते हैं, किन्तु वे भी अब मजदूरी के स्थान पर बटाई पर खेत देना पसंद करते हैं। बटाई में मेहनत छोटे किसानों की होती है, लागत भी आधी होती है, किन्तु फसल पर आधा अधिकार खेत मालिक का होता है। इसमें भी प्राकृतिक आपदा या कोई अन्य मुसीबत आ जाए तो बटाई पर खेती लेने वाले के पास कोई अधिकार नहीं होते हैं। यहां भी खाने-बचाने का सवाल खड़ा होता है और तब सरकारें भी साथ नहीं देतीं। ऐसे में मांग उठ रही है कि सरकार को चाहिए कि मजदूरों व बटाईदारों के लिए भी मुआवजे का कानून बनाए। दरअसल किसान इस समय लक्ष्य के अनुकूल उत्पादन न होने के संकट से जूझ रहे हैं। कम उत्पादन की गाज छोटे व सीमांत किसानों के साथ ऐसे कृषि मजदूरों पर गिरती है, जो सिर्फ खेती पर ही आश्रित हैं। तमाम बार वे कर्ज अदा नहीं कर पाते और फिर आत्महत्या जैसी स्थितियां भी पैदा होती हैं। कम फसल और घाटे का सबसे अधिक असर बच्चों के भविष्य पर पड़ता है। सबसे पहले बच्चों की पढ़ाई छूटती है और इससे अगली पीढ़ियां प्रभावित होती हैं। भारत को कृषि प्रधान देश भले ही कहा जाता रहा है, किन्तु गांव जाकर साफ पता चलता है कि किसान किसी की प्राथमिकताओं में नहीं हैं। वे बेरोजगारी व गरीबी का दंश झेलने को विवश हैं। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश को ही आधार बनाएं तो 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एक करोड़ से अधिक खेतिहर मजदूर हैं। इनमें से 9518 स्नातक या उससे ज्यादा पढ़े बेरोजगार खेतों में मजदूरी करने को विवश हैं। यही नहीं तकनीकी डिग्री या डिप्लोमा (बीटेक, पॉलिटेक्निक आदि) की पढ़ाई कर चुके 10 हजार से अधिक बेरोजगारों ने खेती को अपना रोजगार बना लिया है, वहीं ऐसे 2581 बेरोजगार खेतों में मजदूरी कर रहे हैं। उन्हें पूरे साल मजदूरी के मौके नहीं मिलते तो वे गरीबी झेलने को विवश हैं।
ग्रामीण इन स्थितियों को लेकर परेशान हैं किन्तु सरकार से उम्मीद लगाए हुए हैं। उनका मानना है कि सरकारों को प्राथमिकताएं बदलनी होंगी। मनरेगा के बाद जिस तरह खेतों में काम करने वाले मिलना बंद हो गए उससे तमाम छोटे किसानों ने विकल्पों पर फोकस किया। अब वे दोनों तरफ से निराश हैं। सशक्त पंचायतों के हाथ में कामकाज के अवसर देकर कुछ सुधार किया जा सकता है। जिस तरह जोर देकर व लक्ष्य निर्धारित कर स्वच्छ भारत अभियान चलाया गया, उसी तरह मजबूत किसान अभियान जैसा कोई आंदोलन खड़ा करना होगा। जब सरकारों के लिए किसान प्राथमिकता में होंगे, तो स्थितियां बदलेंगी।
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