NDA government’s second term and economy: एनडीए सरकार का दूसरा कार्यकाल व अर्थव्यवस्था

0
263
अभी हाल ही में मोदी सरकार की दूसरी पाली के सौ दिन की उपलब्धियों पर चर्चा हुई। जैसे हर नागरिक को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है वैसे ही सरकार को अपनी उपलब्धियों को प्रचारित करने का भी अधिकार है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय सहित तमाम विज्ञापनों के लिये बजट इसी काम के लिये रखे जाते हैं। लेकिन इन सौ दिनों में आर्थिक स्थिति पर सरकार की कोई उपलब्धि न तो अखबारों ने बतायी और न ही खुद सरकार ने। जबकि सरकार का मुख्य दायित्व ही देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ करना है। आज का विमर्श, इन उपलब्धियों के बीच आर्थिक मुद्दे पर हम कहां खड़े हैं, इसी से जुड़ा है। विकास के सूचकांकों में सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) इकाइयों में आयी मंदी के संदर्भ में है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर,  किसी भी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार होता है। यह सेक्टर न केवल रोजगार में वृद्धि के अवसर उपलब्ध कराता है बल्कि यह निर्यात में भी अपना योगदान देकर व्यापार घाटा नियंत्रित करता है। लेकिन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में वृद्धि,  मात्र 0.6% दर की रही,  जो कि पिछले वर्ष के 12.1% की वृद्धि दर से बहुत कम है। निश्चित ही इसका मतलब केवल यही नहीं कि चीजें ही कम बनीं, बल्कि इसका अर्थ यह हुआ कि रोजगार के अवसर कम हुये और लोगों की नौकरियां गयीं। इस आर्थिक मंदी के प्रकोप से अर्थव्यवस्था का कोई भी क्षेत्र बचा नहीं है। आॅटोमोबाइल्स, बिस्किट, चाय, टेक्सटाइल, आदि लग्भग सभी सेक्टरों से निराशाजनक खबरें आ रही हैं।  यह घटती मांग और कम उत्पादन की वही कहानी है जो अंतत: नौकरी के नुकसान का कारण बनती है।
भाजपा जब 2014 का चुनाव लड़ रही थी तो उसने 2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष देने का वादा किया था। पर सरकार ने रोजगार सृजन हेतु, एक भी कदम नहीं उठाया। हालंकि सरकार ने मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया और स्वरोजगार के लिये मुद्रा लोन जैसी कई योजनाएं शुरू कीं पर उनका लाभ नीचे तक नहीं आ पाया। यह सब आयोजन एक इवेंट बन कर रह गए। 2016 तक आते आते सरकार ने बेरोजगारी के आंकड़े देने बंद कर दिये। पिछले एक साल से नोटबंदी और जीएसटी के मूर्खतापूर्ण तरीके से लागू करने के कारण जब आर्थिक मंदी ने पांव पसारना शुरू कर दिया तो रोजगार के नए अवसर तो खुले ही नहीं। इसके विपरीत लोगों की लगी लगायी नौकरियां भी जाने लगीं। आज बेरोजगारी की दर 8.3% है जो बीते 3 साल में सबसे अधिक है। शहरी भारत में नौकरी का परिदृश्य विशेष रूप से चिंताजनक है, जो 9.5% पर, आ गया है।
शेयर मार्केट अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पैमाना होता है। इससे यह पता चलता है कि देश मे विदेशी निवेशक कितनी रुचि ले रहे हैं और वे कितना धन लगा रहे हैं। बजट 2019 के बाद शेयर बाजार में काफी कमी आयी और सभी शेयरों के भाव नीचे गिरे। सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले 100 दिनों के भीतर ही शेयर बाजार में निवेशकों को 14 लाख करोड़ रुपये की हानि हुयी। शेयर बाजार जब टूटता है तो उसका कारण विदेशी निवेशकों द्वारा शेयर बेचना होता है। विदेशी निवेशकों का जब सरकार पर विश्वास डगमगाता है तो वे अपना शेयर बेचने लगते हैं। तभी बाजार टूटता है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने अगस्त में 5900 करोड़ रुपये शेयर बाजार से निकाले। इससे स्पष्ट है कि उनका विश्वास देश में निवेश करने के प्रति घट रहा है। इसी प्रकार भारतीय रुपया जो 2019  की शुरूआत से 2.5% नीचे है, आज एशिया की सबसे खराब मुद्रा बन चुका है। उठते गिरते हुए आज 71 रुपये के आसपास है। इकोनॉमी वॉच के अनुसार, 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था को अगले पांच वर्षों तक हर साल 9% की दर से विकास करना होगा ताकि वित्त वर्ष 2025 तक यह लक्ष्य हम प्राप्त कर सकें।
9% विकास दर पर निवेश की दर में भी वृद्धि होनी चाहिए। पिछले वित्तीय वर्ष में निवेश दर 31.3% पर थी। इस आंकड़े को भी 38% के पार ले जाना होगा। हालांकि जानकारों का मानना है यह संभव नहीं है, पर उम्मीद और हौसला रखने में क्या हर्ज है। सरकार ने यह स्वीकार नहीं किया है कि देश मे कोई आर्थिक मंदी जैसी चीज है। इसका कारण राजनैतिक अधिक है। 2014 के बाद जो नीतियां बनी हैं उन्ही का परिणाम वर्तमान आर्थिक स्थिति है। सरकार मंदी की स्थिति को स्वीकार करके अपनी राजनैतिक हैसियत कम नहीं होने देगी। लेकिन वास्तविकता से वह अपरिचित भी नहीं है । आज राजकोषीय घाटा यानी सरकार के आमदनी और व्यय में काफी अंतर है। इसका कारण कर संग्रह का कम होना है। इस कमी का असर राज्यों की वित्तीय स्थिति पर भी पड़ रहा है। देश में एक तरफ धीमी पड़ती कर वसूली तो दूसरी तरफ बजट 2019 में कॉरपोरेट कर में कमी के कारण सरकार की आय पर आगे और प्रभाव पड़ सकता है। इससे सरकारों को या तो अपने खर्च में कटौती करनी पड़ेगी या कर बढ़ाने पड़ेंगे। अगर इन दोनों उपायों में से कुछ भी नहीं किया गया तो, राजकोषीय घाटा बढ़ने की यह प्रवृति आगे भी बनी रह सकती है। आंकडों के अनुसार, देश के 16 प्रमुख राज्यों का कर राजस्व चालू वित्त वर्ष के पहले चार महीनों में 7 फीसदी कम हुआ है। हालांकि उनमें से 5 ने कर राजस्व में मामूली वृद्धि दर्ज भी की है।
यह चिंता अधिकतर राज्यों के अनुमानित और वास्तविक कर राजस्व वृद्धि में भारी अंतर के कारण साफ नजर आती है। इसी कारण, 15 वें वित्त आयोग के चेयरमैन ने राज्यों से अपने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) राजस्व में अधिक कर संग्रह करने का आग्रह किया है। वित्त आयोग के अनुसार, अर्थव्यवस्था की वृद्धि की तुलना में राजस्व में ज्यादा तेजी से वृद्धि होनी चाहिए। हाल में कॉरपोरेट कर में कटौती की गई है, जिससे सरकार को सकल कर राजस्व में 1.45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा। 14 वें वित्त आयोग के फॉर्मूले के मुताबिक अब सकल कर राजस्व में राज्यों का हिस्सा 42 फीसदी है, इसलिए इस कर राजस्व नुकसान में से सभी राज्यों को भी 60,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ेगा। केरल के वित्त मंत्री ने कहा कि कॉर्पोरेट कर विभाजित होने वाले कोष का हिस्सा है, इसलिए कॉरपोरेट कर में कटौती से होने वाले नुकसान में 42 फीसदी बोझ राज्यों को उठाना होगा।
सरकार ने इस आर्थिक मंदी को कम करने के लिये उद्योगों को राहत पैकेज के रूप में कर लाभ की घोषणाएं की हैं। इससे कितना असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है पर अर्थ विशेषज्ञ इस कदम को बहुत सकारात्मक और लाभप्रद नहीं मानते हैं। अब एक सवाल उठता है कि इस आर्थिक मंदी का कारण क्या है? अब तक अर्थ विशेषज्ञों के जो भी निष्कर्ष हैं, उसके अनुसार, देश मे मांग कम हो रही है। मांग कम होने का कारण, लोगों के पास धन की कमी है और वे व्यय कम कर रहे हैं। जब लोग खर्च करेंगे तो इसका असर उत्पादों पर पड़ेगा क्योंकि उनका उत्पादन, मांग पर आधारित होता है। जब उत्पादन कम होगा तो उसका असर, कच्चे माल से लेकर रोजगार सहित व्यापार के सभी अंगों पर पड़ेगा और इस प्रकार यह एक श्रृंखला बनती है जो सब एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं।
(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
SHARE