Like daughters, the economy is also in crisis! : बेटियों की तरह संकट में अर्थव्यवस्था भी!

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हम न्यूजरूम में खबरों पर चर्चा कर रहे थे। कुरुक्षेत्र जिले की एक घटना सामने आई, जिसमें एक पिता ने अपनी छह साल की बच्ची का गला घोट दिया था। हमें सहसा यकीन नहीं हुआ। मामले की पड़ताल करवाई, पता चला कि हत्यारा एक निजी कंपनी में काम करता था। खराब अर्थव्यवस्था के कारण कंपनी ने कॉस्ट कटिंग में उसे निकाल दिया था, जिससे वह बेटी के स्कूल की फीस जमा नहीं कर पा रहा था। पत्नी ताने दे रही थी। वह अपनी इकलौती बच्ची से बेहद प्यार करता था मगर बेबस था। इसी तरह हजारों घटनायें रोज हो रही हैं, जिनमें लोग अपने अजीजों की शिक्षा-दीक्षा सही ढंग से नहीं करा पा रहे क्योंकि उनका रोजगार संकट में है। लाचारी से दुखी होकर कुछ लोग गलत कदम उठा लेते हैं। कुछ हत्या और आत्महत्या जैसी घटनाएं कर बैठते हैं। इसकी भरपाई किसी राहत राशि से नहीं की जा सकती। कई बार हमारी बेटियां धनाभाव के कारण कुछ ऐसे हवसियों के संपर्क में आ जाती हैं, जो उनका शोषण करते हैं। मजबूरी में वे कुछ बोल नहीं पातीं। पूर्व केंद्रीय मंत्री चिन्मयानंद ने भगवा चोला ओढ़कर इसी तरह तमाम लाचार लड़कियों-महिलाओं को अपना शिकार बनाया। सत्ता उनके बचाव में खड़ी हो गई। चार साल पहले प्रधानमंत्री ने पानीपत से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरूआत की थी मगर यह सिर्फ अभियान ही रह गया क्योंकि इसके प्रोत्साहन के लिए कुछ नहीं हो सका।
हमें नवंबर 2016 की याद है। अलीगढ़ मे एक बच्ची के माता-पिता ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। बच्ची अनाथ हो गई। इसकी वजह थी, नोटबंदी, क्योंकि उसके कारण बिगड़ी अर्थव्यवस्था ने उन दोनों का रोजगार छीन लिया था। बेटी भूखी थी और खाना मांग रही थी मगर घर में कुछ था ही नहीं। नतीजतन न बेटी बची, न बेटी पढ़ी। आरबीआई और आर्थिक सर्वे से यह साबित हो चुका है कि देश की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने में नोटबंदी बड़ा कारण बनी। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि देश में इस वक्त रोजगार की स्थिति बेहद खराब है। 50 लाख से अधिक ‘प्रोफेशनली स्किल्ड ग्रेजुएट’ बेरोजगारों की फौज में हर साल और जुड़ रहे हैं। सरकार के आर्थिक सुधार के लिए किये गये प्रयास नाकाफी साबित हुए और देश की अर्थव्यवस्था हिल गई। हाल के दिनों में सरकार ने पूर्व में लगाये गये कारपोरेट टैक्स में 10 फीसदी की कटौती करके गिरते शेयर बाजार को तो थाम लिया मगर वह कितने दिन मजबूत रह सकेगा, यह कहना संभव नहीं। कारण साफ है, कि अर्थव्यवस्था के आधार लघु और मध्यम दर्जे के उद्योगों को संबल देने के लिए कोई प्रयास नहीं हुए। आधारभूत ढांचों को मजबूत बनाने के नाम पर टोल रोड्स के नेटवर्क को विकसित किया गया मगर ट्रांसपोर्ट का व्यवसाय संकट में फंस गया क्योंकि डीजल के दाम बढ़ने के साथ ही टोल रोड की आफत टूट पड़ी। जो यहां भी बेरोजगारी का कारण बनी।

हमारी बेटियां लगातार आगे बढ़ रही हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें कोई सरकारी या सियासी प्रोत्साहन मिल रहा है बल्कि इसलिए क्योंकि उनका जज्बा आगे बढ़ने का है। उन्हें किसी की मदद की जरूरत भी नहीं है बल्कि उनको सिर्फ अपना वाजिब हक चाहिए। सरकार और समाज से वे सिर्फ यही अपेक्षा करती हैं कि उनको बिंदास आजादी के साथ वह करने दिया जाये, जो वह करना चाहती हैं। उनका शोषण करने की किसी की हिम्मत न हो। जो ऐसा करना चाहे, उसको यथोचित सबक सिखाया जाये। जब ऐसा होगा तो उड़ान भरती बेटियां बचेंगी भी और पढ़ेंगी भी, मगर दुख तब होता है जब ऐसा नहीं होता। यूपी के उन्नाव से भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर हों या फिर शाहजहांपुर में भाजपा के पूर्व मंत्री चिन्मयानंद दोनों समाज और सरकार की विधि व्यवस्था की रक्षा की शपथ लेने के बाद भी कुकर्म करते रहे। कठुआ में आठ साल की बच्ची से गैंगरेप करने वालों को सत्तारूढ़ भाजपा के उपमुख्यमंत्री से लेकर तमाम मंत्री संरक्षण देते रहे। इन तीनों ही मामलों में देश की उच्च और सर्वोच्च अदालत के दखल देने पर मजबूर सरकार को आरोपियों को गिरफ्तार करना पड़ा मगर आखिरी दम तक सरकार बचाव के रास्ते तलाशती रही।

देश की अर्थव्यवस्था का हाल भी ऐसा ही है। सरकार और उसके समर्थक दावे करते हैं कि अर्थव्यवस्था मजबूत है। विकास दर आसमान छू रही है। वित्त मंत्री सहित तमाम मंत्री कभी बोलते हैं कि उबर-ओला के कारण अर्थव्यवस्था गड़बड़ा गई तो कभी कोई दूसरी बेतुकी दलील देते हैं। कभी वैश्विक कारण गिनाते हैं जबकि सामान्य व्यक्ति भी समझता है कि बेटियों की तरह ही अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने के नारे देकर उसे मजबूत करने की बात कही जाती है। सरकार ने जो 10 फीसदी कारपोरेट टैक्स कम किया, उससे ऊपरी स्तर के चुनिंदा कारपोरेट घराने को तो फायदा मिला मगर शेष करोड़ों कारोबारियों को कोई लाभ नहीं मिला। इस देश में सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता लघु एवं मध्यम उद्योग-धंधे हैं। उनको संबल न मिलने से खरीददार भी घटे और खरीदी की ताकत भी। किसानों को मजबूत बनाने के बजाय भीख पर जिंदा रखने के लिए सरकारी खजाना खोल दिया गया। आरबीआई के आपातकालीन फंड से 1.72 लाख करोड़ रुपये सरकार ने निकाल लिये। अब कारपोरेट कंपनियों को छूट देकर सरकारी खजाने पर सालाना करीब 1.45 लाख करोड़ रुपये का बोझ डाल दिया गया। इसकी भरपाई करने के लिए सार्वजनिक उपक्रमों में निजी भागीदारी बढ़ाने का फैसला लिया गया। साफ है कि आपातकालीन फंड का इस्तेमाल कारपोरेट घरानों के फायदे के लिए इस्तेमाल किया गया। सार्वजनिक उपक्रमों की हालत यह है कि एलआईसी जैसी कंपनी भारी संकट से गुजर रही है। उसके अलावा भी कई कंपनियों की हालत खराब है। एफएमसीजी सेक्टर की हालत पिछले 15 साल में सबसे खराब है।

खराब वित्तीय हालात के कारण केंद्र सरकार की 150 करोड़ रुपये से अधिक की 496 परियोजनायें तय वक्त से पीछे चल रही हैं, जिससे उनकी लागत लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसका नतीजा यह हुआ है कि सरकार को इन परियोजनाओं में पौने चार लाख करोड़ रुपये अधिक खर्च करने पड़ेंगे। पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था की गाड़ी को वापस चढ़ाने के लिए सरकार ने 57 पीएसयू (सार्वजनिक उपक्रमों) को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की है। यह वही हालत है जैसे चिन्मयानंद को बचाने के लिए पीड़ित छात्रा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। अब सौदा करना आसान होगा, कि हम तुम्हें बचाये और तुम हमें। अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए जो नीतियां अपनाई जा रही हैं, वो भी वैसी ही हैं। जिनको काबू करना चाहिए उन्हें पूरी छूट दी जा रही है जबकि जिनको छूट चाहिए, उनको काबू किया जा रहा है। इस वक्त जरूरत आधारगत उद्योगों और सार्वजनिक उपक्रमों को मदद देने की है, जिससे वो निजी क्षेत्र के उपक्रमों का मुकाबला कर सकें। अधिक रोजगार देने वाले सेक्टरों को संबल देकर ढांचे को सुधारा जा सकता है। जब आमजन में खरीद की ताकत आएगी तो अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।
जयहिंद
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

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