Lateral entry: लैटरल एंट्री

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शब्द संस्कृति को अभिव्यक्ति देता है। सरकार में काम कर रहे लोगों को ही लें। हिंदी में इन्हें लोकसेवक कहते हैं। कहने-सुनने में गर्व की अनुभूति जैसी होती है। उर्दू में नौकरशाह। बात वही है, लेकिन लगता है कि कोई आपको आपकी औकात बता रहा है। अंग्रेजी में अफसर। हैकड़ी साफ झलकती है। जैसे मनमर्जी करने का लाइसेंस ले रखा हो। स्वघोषित ज्ञानी ‘बाबू’ के नाम से दुत्कारते हैं। ईर्ष्या, घृणा, क्रोध छिपाए नहीं छिपता।
इनसे संबंधित एक और शब्द आजकल अखबारों की सुर्खियां बटोर रहा है। ये है ‘लैटरल एंट्री’। देश की चिंता करने वालों का कहना है कि नौकरशाहों के ना-नुकर, अफसरों की हवा-हवाई और बाबुओं की जड़-बुद्धि सारी समस्या की जड़ है। इन्हें लोगों की परवाह नहीं है। ये बदलते परिवेश में खुद को ढालते नहीं। अपने में ही उलझे रहते हैं। अच्छा हो कि बाजार से नए, तेज-रफ्तार घोड़े खरीदे जाएं। उन्हें दौड़ाया जाए। तभी सरकार गति पकड़ेगी। इसी सोच के तहत बड़ी कुर्सी पर बाहरी खुर्राटों को फिट करने का काम चल रहा है। दुनिया इसे ‘लैटरल एंट्री’ के नाम से जान रही है।
किसी भी देश में सरकार सबसे बड़ी संस्था होती है। लोगों को रोज इससे काम पड़ता है। हर किसी को अपनी पड़ी होती है। जल्दी में होता है। अपने लिए एक ‘कस्टमाइज्ड सरकार’ चाहता है। सूमो पहलवान से ऊसनैन बोल्ट वाली रफ्तार चाहता है। ससुराल वाली आव-भगत की अपेक्षा रखता है। ऐसा न होने की स्थिति में प्रजातंत्र प्रदत्त अभिव्यक्ति के अधिकार का पुरजोर इस्तेमाल करता है। जब उलटा बोलने वालों की संख्या अधिक हो जाती है तो ये लोक-प्रशासन का एक सिद्धांत बन जाता है। देश में व्याप्त गरीबी और अव्यवस्था की चिंताजनक स्थिति को लोकसेवकों की नाकामी से जोड़ दिया जाता है। नियमों से बंधे ये खाल मोटी कर मार सह लेने में ही भलाई समझते हैं।
ऐसा भी नहीं है कि ये अवतार हैं और इनके साथ बड़ा जुल्म हो रहा है। जब मैं स्कूल में था तो अहर्निश इन्हीं का गुणगान सुनता था। देव-तुल्य थे। ‘सोसाइटी के क्रीम’ कहे जाते थे। इसीलिए नहीं कि ये जनता की चिंता में दुबले हुए जा रहे थे। ज्यादातर नामी कॉलेजों से छप के निकले थे। अपने बूते पर तख्त हासिल किया था। अगर किसी छापामार योद्धा की तरह छोटी-मोटी जगह से इसमें घुस आते तो इस पुरुषार्थ के लिए अतिरिक्तश्रद्धा से पूजे जाते। लोग इनसे प्यार करते थे। वो भी थोड़ा-मोड़ा नहीं। फिल्मी स्टार समझते थे। इनकी डांट-फटकार को आशीर्वाद और मार-कुटाई को सौभाग्य मानते थे। कहीं अचेतन में ये बात रही होगी कि अपनी मेधा के बल पर ऊपर आए उनके ये सगे उन्हें राजे-रजवाड़े, जमींदारों, साहूकारों और बदमाशों से बचाएंगे। पहले अंग्रेजों का हुक्का भरा करते थे। नई व्यवस्था में ये जनता के प्रतिनिधि बन बैठे थे। सदियों से लोगों को प्रताड़ित कर रहे इस तबके को चुनावी राजनीति बिलकुल फिट बैठी थी। देश आजाद हो गया, लेकिन शहर साहूकारों और गांव जमींदारों के कब्जे में ही था।
दशकों इंतजार के बाद जब हाथ कुछ खास नहीं लगा तो लोगों को समझ आया कि इनके स्तुत्य और आराध्य तो ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजों की सस्ती नकल हैं। उनकी समस्याओं का निदान ढूंढने के बजाय ये दूसरे पाले में जा बैठे हैं। घर-घर जाकर हाल क्या पूछेंगे, घर आए को दुत्कारते हैं। अंग्रेजों की घृणा, रजवाड़ों का अहंकार, साहूकारों का लोभ और जमींदारों के धोंस का एकमुश्त डीलर बन बैठे हैं।
थक-हार कर वोट मांगने घर आए से ही जवाब-तलब करने लगे। गाहे-बेगाहे उनकी छुट्टी करने लगे। घबराए राजनीतिक आका लोक-सेवकों से पूछ-मत करने लगे। जवाब तो ये तब देते जब कोई होता। एक जाति-प्रथा चला रखी थी। सिविल सेवा परीक्षा में दर्जे से काम को जोड़ रखा था। काम चुनते समय अपनी अभिरुचि कम और सेवा के रुतबे का ख्याल ज्यादा किया। जहां शक्ति बेहिसाब और जिम्मेवारी शून्य थी उन जगहों में क्रमवार जा बैठे। घुस आने के बाद भी अच्छी-खासी ऊर्जा असामान्य अधिकारों को बचाने में लगाते रहे। परिणाम ये हुआ कि हलवाई कुर्सी बनाने लगा, बढ़ई लड्डू। सरकार की गाड़ी किसी जुगाड़ की तरह चलने लगी। इसके पाट-पुर्जे रफ्तार देने के बजाय आपस में ही खटर-पटर करते रहे। बढ़ती जागरूकता, बदलते परिवेश और सूचना और सम्पर्क तकनीक में क्रांति से बेखबर ये आपस में ही उलझे रहे। कबूतर की तरह आंख मूंदकर ये तसल्ली कर बैठे कि जवाबदारी की बिल्ली है ही नहीं। सरकार के पास ये विकल्प नहीं है।
इसे तो रोज ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है। लोगों को किए-धरे का हिसाब देना पड़ता है। अब ये लोकसेवकों को साफ करने में जुटी है कि अपनी हनक अपने पास रखिए, जो कर सकते हैं सो करिए और हमें बताइए कि हम लोगों को सरकार की कौन-सी उपलब्धि के बारे में बताएं। ये यहीं नहीं रूक रही। खुले बाजार से लाकर उन लोगों को बड़ी कुर्सी पर बिठा रही है जो जड़ता का शिव-धनुष तोड़ने की कसमें खा रहे हैं। सुनने में आ रहा है कि ये सर-सर नहीं रटेंगे, मिनटों में फाइल निपटाएंगे, अपनी बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल कर कारगर फैसले करेंगे और सरकार की रेल को राजधानी की गति से चलाएंगे। लोकसेवकों को इसे चुनौती के तौर पर लेना चाहिए।
काम अभिरुचि के अनुसार हाथ में लें, जरूरी हुनर सीखते रहें और फुर्ती से सार्थक परिणाम दें। इसी में बचाव है। कोई कारण नहीं कि ये ऐसा क्यों नहीं कर सकते। आखिर ये भी तो उसी खेत की पैदावार हैं जहां से नई फसल कट कर आ रही है। सरकार को बार-बार मंडी में जाने का कोई शौक थोड़े ही है?

(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)

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