A soldier who joined to get the Param Vir Chakra army: एक ऐसा योद्धा जिसने परमवीर चक्र पाने के लिए ज्वाइन की थी सेना

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अंबाला। उत्तरप्रदेश के सीतापुर के कमलापुर में जन्मे कैप्टन मनोज पांडेय कारगिल युद्ध के मुख्य नायकों में शामिल हैं। उन्हें 4 मई, 1999 को कारगिल में भारतीय चौकियों को घुसपैठियों से खाली कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। वह पांच नंबर प्लाटून का नेतृत्व कर रहे थे। कैप्टन पांडेय बटालिक सेक्टर में दुश्मनों पर जीत हासिल करते हुए आगे बढ़ रहे थे। उन्हें खालूबार तक हर पोस्ट को जीतने के आॅर्डर थे। इस दौरान उन्हें भयंकर गोलीबारी का सामना करना पड़ा, पर वह आगे बढ़ते गए। उन्होंने दुश्मनों के चार बंकरों को नेस्तनाबूद कर दिया। इसी दौरान वह दुश्मन की गोली का शिकार हो गए। कैप्टन मनोज पांडेय लखनऊ के एकलौते सैन्य अधिकारी रहे, जिन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया। कैप्टन मनोज उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद राष्ट्रीय रक्षा अकादमी से 1997 में गोरखा राइफल्स में कमीशंड हुए। सर्विस सेलेक्शन बोर्ड का साक्षात्कार था। कैप्टन मनोज पांडेय से साक्षात्कार कर्ता ने पूछा कि आप फौज क्यों ज्वाइन करना चाहते हैं। इस पर मनोज ने तपाक से जवाब दिया था कि मुझे परमवीर चक्र हासिल करना है और उन्होंने ऐसा कर दिखाया। दुर्भाग्यवश वह इस सर्वोच्च पुरस्कार को खुद ग्रहण नहीं कर सके। इससे पहले ही कारगिल युद्ध में शहीद हो गए। उन्होंने कहा था कि अगर अपनी बहादुरी साबित करने से पहले मेरे सामने मौत भी आ गई तो मैं उसे खत्म कर दूंगा। यह सौगंध है मेरी।

एक योद्धा के पुनर्जन्म से लेकर

वर्ल्ड रिकॉर्ड तक की गाथा
अंबाला। कारगिल युद्ध को 20 साल गुजर चुके हैं। ऐसे में आपको एक ऐसे वीर योद्धा की गाथा बताने जा रहे हैं, जो मरने के बाद जी उठे थे और आज एक मिसाल बन चुके हैं। इस वीर बहादुर का नाम है मेजर डीपी सिंह। इन्हें फर्स्ट इंडियन ब्लेड मैराथन रनर के नाम से भी पहचाना जाता है। इन्होंने पहले मौत को मात दी और आज वे लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं, लेकिन उनके पुनर्जन्म की कहानी दिलचस्प है। डीपी सिंह हर साल 15 जुलाई को अपना पुनर्जन्म दिवस मनाते हैं। अभी वे 45 साल के हो चुके हैं, लेकिन जिंदगी के 19 साल कुछ दिन पहले ही पूरे किए हैं। कारगिल के युद्ध में डीपी सिंह बुरी तरह से घायल हो गए थे। उनका एक पैर भी कट चुका था। इलाज के दौरान उन्हें मृत घोषित कर दिया गया था, लेकिन वह जी उठे। खुद डीपी सिंह बताते हैं कि 1999 की बात है ये। करगिल युद्ध चल रहा था। एक ब्लास्ट हुआ। आठ किलोमीटर तक मेरे साथी मारे गए उनके शव मेरी आंखों के सामने थे। मैं डेढ़ किलोमीटर ही दूर था। खून में सना हुआ था मैं। एक पैर तो वहीं गंवा चुका था। शरीर पर 40 गहरे घाव थे। मेरे साथी अपनी जान दांव पर लगाकर मुझे वहां से ले गए। बीच में पाक आॅक्यूपाइड नदी आई। एक साथी को ठीक से तैरना भी नहीं आता था। फिर भी उन्होंने मुझे अस्पताल पहुंचाया। किसी भी क्षण उन्हें गोली लग सकती थी, लेकिन उन्होंने मुझे यूं नहीं छोड़ा। डॉक्टर ने तो मुझे डेड डिक्लेयर कर दिया था। मेरी किस्मत में जीना लिखा था। उसी दिन एक सीनियर डॉक्टर हॉस्पिटल के दौरे पर थे और उनकी कोशिशों से मेरे शरीर में जिंदगी लौटी। वहीं से नई जिंदगी शुरू हुई। तब से हर 15 जुलाई को मैं अपना मृत्यु व जन्म दिवस मनाता हूं। मैंने खुद को सिर्फ जख्मों से उबरा, बल्कि 2009 में कृत्रिम पैर के सहारे चलना सीखा। कृत्रिम पैर के सहारे मैराथन में दौड़ना शुरू किया। मेजर डीपी सिंह 21 किमी हॉफ मैराथन दौड़कर इतिहास बनाया और देश में उनसे पहले किसी ने ऐसा नहीं किया था। वह तीन मैराथन में हिस्सा भी ले चुके हैं। मेजर सिंह दो बार लिम्का बुक आॅफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में नाम दर्ज करा चुके हैं।

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