यह एक अनसुलझी कश्मकश का कथानक है। दुनिया के सबसे पुराने आदर्शों वाला देश सबसे बड़ी जनसंख्या की जम्हूरियत भी है। हिन्दुस्तान हिन्दू सभ्यता और आबादी का भूगोल और इतिहास भी है। सबसे ज्यादा मजहब और सभ्यताएं सदियों से यहां आती, बस जाती और शामिल होती रही हैं। इधर कुछ नए सवाल अलबत्ता खड़े किए जाते हैं। जुदा-जुदा मजहबों, रूढ़ियों तथा परम्पराओं के आधार पर उनकी जांच और खारिजी भी की जा रही है।
हिन्दू मुसलमान अलगाव का जानबूझकर सवाल उभारा गया है। उस स्पेस में ईसाइयत भी जुगनू की तरह है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मजहबी उन्माद उफान पर है। वह हिन्दुत्व का, हिन्दुइज्म या हिन्दू धर्म नहीं है। विनायक दामोदर सावरकर ने 1925 में लंबे निबंध में दार्शनिक का पोज बनाकर हिन्दुत्व शब्द ईजाद किया था। हिन्दुत्व हिन्दू धर्म की स्वीकृत मान्यताओं का एलान भी नहीं है। वह एक सियासी चखचख है। मुट्ठी को उंगलियों का कुनबा समझा जाए तो अलग-अलग करने का इरादा सावरकर से जिरह करने लगेगा।
सबसे मौजूं, तीखा और मारक बयान विवेकानन्द ने शिकागो धर्म सम्मेलन में 11 सितंबर 1893 को दिया था। मैं ऐसे धर्म का अनुयायी होने में फख्र करता हूं जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में बहिष्कार नाम का शब्द तजुर्मा लायक नहीं है। कई देश और मजहब इस्लाम, ईसाइयत, पारसी, कन्फ्यूशियस, यहूदी नाम धरकर सदियों से अपनी सभ्यता की गोद से आकर हिन्दुस्तान में रच बस गए हैं। यूरोप के इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड सहित कई अन्य एशियाई चीन, जापान, श्रीलंका आदि के लोग भी भारत में कहीं न कहीं आज भी हैं। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी में हिन्दू मन में मादरे वतन के लिए मोहब्बत, समर्पण और भक्ति है। सैकड़ों गीतों और महाकाव्यों में इसी को उकेरा गया है। हर हिन्दू इस धरती की संतान है। अंतत: मुट्ठी भर राख बनकर धरती में ही समाहित होना चाहता है।
हिन्दू के मृत्यु संस्कारों की जांच करें। मृत हिन्दू देह का दाह संस्कार होता है। राख हो गई देह और हड्डियां नदियों में बहाई जाती है। शरीर की नसों की तरह नदियां एक दूसरे से मिलकर आखिरकार समुद्रों में डूब जाती हैं। दुनिया के सभी समुद्र एक दूसरे से गलबहियां करते आपस में एक हो गए हैं। अलग-अलग नाम हैं लेकिन समुद्र एक ही है। उसमें संसार की हर नदी का जल पहुंचता है। दुनिया में तीन चौथाई समुद्र और एक चौथाई धरती है। हर हिन्दू देह की राख आखिरकार समुद्र के ही हवाले है। वसुधैव कुटुम्बकम का यह भी मायने है। हिन्दू अमरता में विलीन होने को अपना मन बना चुका है।
मुसलमान और ईसाई शवों का दाहसंस्कार नहीं होता। उन्हें मादरे वतन हिन्दुस्तान की गोद में पनाह मिलती है। सदियों से अरबों, खरबों मुसलमान और ईसाई हिन्दुस्तान की मिट्टी का हिस्सा हैं। उसका अविभाज्य अंश हो गए हैं। वे कौमें धंसती हुई अगली पीढ़ियों की थाह में जिन्दा रहती हैं। हर बात पर उन्हें पाकिस्तान जाओ कहने से क्या निकलेगा? आज का पाकिस्तान तो पहले हिन्दुस्तान नहीं था। हिन्दुस्तान की पाक धरती को जब जहां खोदें। मुसलमानों और ईसाइयों के मिट गए शरीर के अंश निकलेंगे। वे जातीय और मजहबी रिवाजों के कारण वहां हैं। भारत माता के अंश हो चुके ये म्लेच्छ कैसे हैं। ये किसी भी तरह भारत की धरती से अलग नहीं किए जा सकते। वे इतिहास की यादों में दफन हैं। भारत माता सबकी है। मजहबी प्रथाएं अलग हैं। धरती में समाएं या सागर में। यह बटवारा तो मजहबी है।
जवाहरलाल नेहरू की वसीयत में गंगा की गोद में भस्मि डालने की भावुक पुलक है। मुट्ठी भर राख को भारत के खेतों में डाल देने की अकुलाहट है। उनका मन कहता था कि भारत की धरती का हिस्सा बन जाएं। इतिहास की यह अपील भूगोल भी चाहती है। अब समझ आता है वे कितने सच्चे हिन्दू थे। महासागर की बूंद बन जाने के साथ-साथ धरती की गोद से छिटकना उन्हें कुबूल नहीं था। नेहरू का यह सेक्युलरिज्म भी हुआ। हिन्दुओं की तरह पारसी अग्नि को पूजते हैं। कुछ और कौमों में इसी तरह के विश्वास हैं। मजहब विश्वासनामा है। हिन्दुत्ववादी हर मामले में मजहब को हथियार बना लेते हैं। पूछा जाए कि वे हिन्दुइज्म और इस्लाम वगैरह के संस्कारों पर क्या सोचते हैं?
हिन्दू परम्परा में संन्यासियों की अलबत्ता जल समाधि होती है। वे भी नदियों में बहते समुद्र तक पहुंचते हैं। जलचर उनकी देह का भोजन करते हैं। ये ही पारसी धर्म में है। सभी मजहबों के विज्ञानपरस्त लोग बिजली के शवदाह गृह में अपना अंत चाहते हैं। कई इन पचड़ों से अलग हटकर देहदान करते हैं। उससे मेडिकल छात्रों को प्रयोग और व्यावहारिक ज्ञान हासिल हो। ऐसे लोग मजहब के अनुयायी होकर भी विज्ञान धर्म या मानव धर्म में भरोसा करते हैं, या शायद नास्तिक हो जाते हैं।
जिंदा देह हमलावर या बचाव की तरफ होती है। देह से प्राण निकल जाए। फिर कहां जाता है? कोई नहीं जानता। संविधान और कानून में सबको समान नागरिक अधिकार हैं। फैसला और वसीयत करने की आजादी और अवसर हैं। विवेकानन्द ने कहा इस्लाम की देह में वेदांती मन होगा, वह मनुष्यता के उदय का दिन होगा। भारत की धरती हमारी देह है। उसमें मुसलमान और ईसाई ने भी मर खपकर, घुसकर अपना आत्मीय अधिकार पा लिया है। हिन्दू मन का सारे संसार बल्कि ब्रह्मांड में फैलाव विलक्षण अनोखी उपलब्धि है। वह आध्यात्मिकता संसार को मौलिक योगदान भी है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। )
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