Jin doondha tin paiyen : जिन ढूंढा तिन पाइयां

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पिछले सप्ताह कई बड़ी बातें हुई। 73वें स्वतंत्रता दिवस के आयोजनों पर केंद्र सरकार के संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाने का फैसला सर चढ़कर बोला। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री हड़बड़ी में गुलाम कश्मीर पहुंच गए। वहीं आजादी का मोमो-चाऊमीन खाया, लड़ाई-झगड़े की बात की और चलते बने। आतंकवाद की नीति अब पाकिस्तान को भारी पड़ने लगी है। अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। धार्मिक उन्माद चरम पर है। कब तक भारत-विरोधी घुट्टी अपने गरीब नागरिकों को पिलाकर बहकाएंगे? लगता नहीं कि इस देश का कोई भविष्य भी है।
दूसरी तरफ भारत में लाल किले के ऐतिहासिक प्राचीर से प्रधानमंत्री का परम्परागत विस्तृत भाषण हुआ। उन्होंने संतोष जताया कि उनके कार्यकाल में प्रतिदिन एक के हिसाब से बेकार हो गए कानून को समाप्त किया गया है। कश्मीर वाला फैसला भी इसी अभ्यास का हिस्सा है। वास्तव में ये एक कासट्यूम की तरह था जो भारत में नाटकीय विलय के समय कश्मीर को पहनाया गया था। आश्चर्य है कि वो इसे अब तक ढो रहा था। प्रधानमंत्री ने जनसंख्या विस्फोट पर चिंता जताई और कहा कि इसपर तत्काल नियंत्रण नहीं किया गया तो देश का भविष्य संकट में पड़ जाएगा।
आपातकाल में तत्कालीन सरकार को जबरदस्ती नसबंदी से मिली बदनामी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने छोटे परिवार की प्रथा को देशभक्ति से जोड़ा। हो सकता है आगे इसे प्रोत्साहित करने के लिए कानून भी बने। उदाहरण के लिए हरियाणा में प्रावधान है कि जिनके दो या दो से कम बच्चे हैं, वही पंचायती निकायों का चुनाव लड़ सकते हैं। फौज के तीनों अंग – जल, थल और नभ और अधिक तालमेल से अपना काम कर सकें इसके लिए चीफ ओफ डिफेंस स्टाफ पद के सृजन की घोषणा हुई। जल-संकट पर भी बात हुई। इसके संरक्षण के लिए जन-अभियान को कारगर बनाने के लिए अपील हुई। देश के अधिकांश राज्यों में अभी बाढ़ से भारी अफरा-तफरी मची है। माहौल जल बचाओ से जल से बचाओ का हो गया लगता है। लोग काम पर लगे हैं।
ध्यान योग्य बात ये है कि प्रभावी बाढ़ प्रबंधन भी जल-शक्ति अभियान का हिस्सा हो। सबसे पते की ये बात थी कि समस्याओं को टालने और पालने का कोई फायदा नहीं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि समय रहते और परिस्थिति के हिसाब से कदम उठाए जाएं तो बहुत सारी समस्याएं खड़ी ही नहीं होंगी। इस सप्ताह एक और बड़ी बात हुई। मेरे प्रकाशक विज्डम ट्री ने मेरे खाते में कुल 14 हजार रुपए डाले। ये उन द्वारा प्रकाशित मेरी पिछली दो किताबों ‘से यस टू स्पोर्ट्स’ और ‘हौसलानामा’ की रॉयल्टी थी। प्रशंसा तो बहुत मिली थी, कमाई पहली बार हुई। इससे इस बात का पता चलता है कि क्यों पूर्णकालीन लेखकों की संख्या ज्यादा नहीं है।
क्यों लोग उस गर्व से अपने को लेखक नहीं बताते जितना कि एक एक्टर, जबकि एक लिखे शब्दों का बाजीगर है और दूसरा बोले का। जवाब  महमूद के एक गाने में है-द होल थिंग इज दैट कि भैया सबसे बड़ा रुपैया। वैसे, शब्दों से मेरा पुराना नाता रहा है। भरे-पूरे परिवार में जन्म हुआ था। पढ़ाई-लिखाई पर बड़ा जोर था। सुघड़ लिखाई, अच्छी भाषा और गणित से दो-दो हाथ करने  के हौसले से शुरू में ही होनहार घोषित हो गया था। भाइयों के प्रैक्टिकल की कापी लिखने की बेगार तो करनी पड़ती थी लेकिन पब्लिसिटी भी काफी मिलती थी। एक बार राजहंस हिंदी निबंध की किताब हाथ लगी। पूरा पढ़ डाला। पांचवी क्लास में पर्यटन पर लेख लिखना था तो कलम तोड़ दिया। बड़ी वाह-वाह हुई कि ऐसा तो कालेज के छात्र भी नहीं लिख सकते। अब जिस चीज के लिए प्रशंसा हो तो लोग वो करेंगे ही। ये क्रम आगे भी जारी रहा।
जब पुलिस में भर्ती हुआ तो इस बात का नुकसान भी हुआ। बड़े-बड़े बदमाशों से भिड़ने में कभी कोई देरी नहीं की लेकिन जिक्र लिखाई का ही होता रहा। आज भी दिन में दो-चार कहने वाले मिल ही जाते हैं कि भाई क्या खूब लिखते हो। जब मित्र-शुभचिंतक ऐसा कहता हैं तो आनंद की अनुभूति होती है। हार्ड-कोर पुलिसिंग के स्वघोषित ठेकेदार बंद कमरे में कभी-कभार इस बात पर खेल भी कर जाते हैं। किताबी बताकर हाशिए पर डालने की कोशिश करते हैं। हंसी मुश्किल से रूकती है जब दिव्यता को प्राप्त हुए कौतुहल प्रकट करते हैं कि पुलिस में होकर लेखन-पठन में रुचि  जैसे पुलिस चलाना भेड़-बकरियां चराने का काम हो। मैं बुरा नहीं मानता। यही जीवन है। मुझे लगता है कि लिखना एक सरल और जरूरी काम है जो सबको करनी चाहिए। इससे सोच साफ होती रहती है। आने वाली पीढ़ियों के प्रति ये हमारी जिम्मेवारी भी है। उनमें से जो हमारी गलतियां नहीं दोहराना चाहते उनके लिए घटनाओं का विवरण पुस्तक रूप में उपलब्ध होना ही चाहिए। इसी कारण आदमी जानवरों पर भारी पड़ा है। पशु-पक्षियों की कोई लाइब्रेरी नहीं है जहां वे जानी हुई जान सकें। अपनी लिख कर जाएं। हर पीढ़ी को शून्य से शुरू करना पड़ता है।
अगस्त आखिरी सप्ताह में प्रकाशित होने वाली पुस्तक जिन ढूंढा तिन पाइयां लिखने में करीब साल लग गए। सोच ये थी कि जैसे मोबाइल फोन के आॅपरेटिंग सिस्टम को नियमित अपग्रेड करने से ये वाइरस से बचा रहता है और स्पीड बनी रहती है, आदमी को अपने दिमाग के साथ भी ऐसा कुछ करते रहना चाहिए। आजकल के दौर में जब सूचना के सुनामी में सच-झूठ का भेद खत्म हो गया है, हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक, तथ्यपरक और आंकड़ा-आधारित होना चाहिए। तभी हम स्थितियों का सही आंकलन कर पाएंगे। किसी काम के होंगे। हवावाजी और तीर-तुक्का से हम अपना और औरों का नुकसान ही करेंगे।
(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)
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