Jammu and Kashmir after the amendment of Article 370: अनुच्छेद 370 के संशोधन के बाद जम्मू-कश्मीर

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जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के संशोधित और 35ए के प्राविधानों के समाप्त हुए एक सप्ताह से अधिक समय बीत चुका हैं। जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े हैं। धारा 144 के अंतर्गत निषेधाज्ञा लगी हुई है और कर्फ्यू भी अधिक संवेदनशील स्थानों पर कहीं-कहीं लगा हुआ है। इंटरनेट, मोबाइल, फोन बंद हैं। अखबार छप नहीं रहे हैं। कश्मीर के आईजी का बयान आया है कि पिछले 6 दिन में एक भी गोली नहीं चली। आईजी साहब के बयान का स्वागत है।
गोली चलना और चलाना दोनों ही अच्छी बात नहीं है। खबरों की दुनिया खामोश है। पर खबरें और पानी कभी रुकते नहीं है, यह एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र का कहना है। वह रिसता रहता है। अच्छा प्लम्बर और अच्छा सेंसर ही उसे लीक होने से रोक सकता है। पर पानी भले ही रुक जाय, लेकिन खबरें तो कभी न कभी या कहीं न कहीं से रिस कर बाहर आ ही जाती है। जम्मू-कश्मीर में भारतीय मीडिया तो है ही, पर विदेशी मीडिया विशेषकर, अल जजीरा, बीबीसी आदि भी हैं। बीबीसी की साख पहले से ही अच्छी है, विशेषकर जब मीडिया पर प्रतिबंध हों तब। अल जजीरा अब लोकप्रिय हुआ है। इन विदेशी मीडिया के अनुसार शुक्रवार को नमाज के बाद भीड़ उत्तेजित होकर सड़कों पर आई।
पुलिस ने बल प्रयोग किया। बल प्रयोग में लाठी से गोली तक आती है। इन समाचार सूत्रों के अनुसार कुछ लोग घायल हुए और अस्पताल भेजे गए। हमारी मीडिया ने इस खबर को नहीं बताया। कुछ ने कहा यह अफवाह है और कुछ ने कहा खबरों की आवारगी। मनुष्य का स्वभाव ही कुछ न कुछ जानने का होता है। वह एक ही खबर को अलग-अलग सूत्रों से पूछकर सुनना चाहता है। उसे जो खबर अच्छी लगती है वह उसी रूप में उसे ग्रहण करना चाहता है। खबरों का यह स्वरूचि ग्रहण कार्य एक मानवीय स्वभाव है। अनुच्छेद 370 और धारा 35ए हटने और केंद्र शासित राज्य बनने के बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि, अब 70 साल से बनी हुई कश्मीर समस्या हल हो जाएगी। अब अनुच्छेद 370 के संशोधित हो जाने से आतंकी घटनाओं में कमी आनी शुरू हो जाएगी।
सरकार ने इस साहसिक कदम का जो सबसे बड़ा उद्देश्य बताया है वह है जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का खात्मा। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि आतंकवाद जम्मू-कश्मीर के लिए नासूर बन गया है। 1990 से लेकर अब तक हजारों नागरिक मारे जा चुके हैं और सैकड़ों जवान शहीद हो चुके हैं। अब अगर आतंकवाद का नासूर सरकार के इस कदम से ठीक हो जाता है तो यह एक बड़ी और ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। पीएम ने अपने भाषण में इस कदम को राज्य के विकास के लिए उपयोगी बताया है। विकास की योजनाओं के सुचारू रूप से क्रियान्वयन के लिए जरूरी है कि कानून व्यवस्था बनी रहे और आतंकवाद का खात्मा हो। इस फैसले की जो प्रतिक्रिया हुई है वह पूरे देश मे स्पष्ट रूप से अलग-अलग विभाजित है। शेष देश मे तो जश्न का माहौल है, पर जम्मू-कश्मीर में सन्नाटा है। सड़कों पर सुरक्षा बल के बूटों की धमक है और गलियों में खामोशी है। बंटी हुई खुशी एक त्रासदी की तरह होती है। जो खुश है, उसे इस निर्णय से कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं है और जो इस खुशी का इजहार न कर पाते हुए घरों में कैद है, यह फैसला उसके लिए कितना उचित है यह वह बता भी नहीं पा रहा है।
जैसा मैं पहले ही कह चुका हूं, जिनके लिए यह निर्णय किया गया है, उसकी खुशी ही इस फैसले की सफलता पर मुहर लगाएगी अन्यथा यह फैसला थोपा हुआ फैसला ही माना जाएगा। कश्मीरी युवकों को भी इस जश्न में शामिल करना होगा। अगर यह फैसला उचित है और इससे उनकी तकदीर बदल रही है, उनके यहां विकास को गति मिलेगी, तो उन्हें भी इस उत्सव में भागीदार बनाना होगा। थोपी हई शांति डराती है। उन्हें यह एहसास दिलाना होगा कि अब उन्हें उस डर से निजात मिली है। वे शेष भारत के साथ समय प्रवाह के यात्री बन चुके हैं। उन्हें भी 70 साल बाद मिली आजादी के इस मुक्त पवन में झूमने देना चाहिए। जब कश्मीर में सुरक्षा प्रबंध सामान्य हों और कश्मीरी युवा सरकार के इन कदमों के समर्थन में उठ खड़े हों तो तभी इन कदमों की सार्थकता होगी। फिलहाल तो कश्मीर में अंधेरा है और शेष देश मे दीवाली और जश्न का माहौल है। उत्सव और खामोशी का यह अलगाव ही कश्मीर समस्या की प्रतीकात्मकता है।
अभी वहां भारी सुरक्षा बल और सेना का बंदोबस्त है। इतनी अधिक सुरक्षा बराबर नहीं रह सकती है। यह धीरे धीरे कम होगी। कब से कम होगी यह तो वहां के हालात पर निर्भर करता है। जब सुरक्षा बल सामान्यता की ओर लौटेंगे तभी यह कहा जा सकेगा कि इस कदम का आतंकवाद और कानून व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा। संविधान के जानकार सरकार के इस कदम को कानूनी नजरिए से देख रहे हैं। संविधान में कोई भी संशोधन, जो उसके मूल ढांचे को भंग नहीं करता हो, करने का अधिकार संसद को है। इस संशोधन को कैसे किया जाए, इसकी प्रक्रिया भी संविधान में दी गई है, और अब तक 150 से अधिक संशोधन किए भी जा चुके हैं। अब 370 और 35ए के खत्म करने की प्रक्रिया क्या संविधान में प्रदत्त संविधान संशोधन की प्रक्रिया के अनुसार है या नहीं यह भी कानून के जानकारों के बीच चर्चा का बिंदु है। हर कानून की न्यायिक समीक्षा हो सकती है। यहां तक कि शेड्यूल 9 में भी जो विषय हैं, उनकी भी न्यायिक समीक्षा हो सकती है, ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में खुद ही कहा है।
इस पुनर्गठन संशोधन बिल 2019 के संबंध में कुछ याचिकाएं भी सुप्रीम कोर्ट में डाली गर्इं है। इसमे महत्वपूर्ण याचिका नेशनल कॉन्फ्रेंस की है। अभी उस पर सुनवाई होनी है। अदालत का क्या रुख रहेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। विशेष दर्जा, नागरिकता का मुद्दा और कश्मीर में आतंकवाद, तीनों मुद्दे अलग अलग होते हुए भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अनुच्छेद 370 आंशिक संशोधित और 35ए तो अब खत्म ही हो गया है साथ ही, राज्य का स्वरूप भी बदल गया है। अब देखना है कि आतंकवाद पर इस बदलाव का क्या असर पड़ता है। हालांकि इस अनुच्छेद के प्रभावी होते हुए भी लगभग सभी केंद्रीय कानून जम्मू-कश्मीर में लागू थे। सेना को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए असाधारण अधिकार देने वाला, अफप्सा कानून भी लागू था। केंद्रीय बलों की आवश्यकतानुसार तैनाती भी किसी प्राविधान से बाधक नहीं थी।
अखिल भारतीय सेवाएं भी जैसे अन्य राज्यों में हैं वैसी ही यहां पर भी लागू हैं। फिर 370 के संशोधित हो जाने पर कौन सी नई शक्तियां सरकार को मिल जाएंगी यह जब नई शक्तियां मिलें तभी पता चल सकेगा। यह कहा जा सकता है कि यूनियन टेरिटरी के बाद कानून व्यवस्था सीधे केंद्र के अधीन आ जाएगी। इससे एक दिक्कत यह भी होगी कि अब राज्य में कुछ भी होने पर केंद्र सरकार पर अंगुलियां उठेगी। पहले राज्य एक शॉक एब्जॉर्बर के रूप में होता था। यह स्थिति प्रशासनिक दृष्टि से उचित भी होती है। जम्मू-कश्मीर की कानून व्यवस्था में त्वरित सुधार हो जाएगा, यह उम्मीद पाल लेना अभी अतिआशावादी सोच होगी।
जम्मू-कश्मीर का आतंकवाद, मूलरूप से सीमापार का आतंकवाद है। यह द्विराष्ट्रवाद के अवशेष का आतंकवाद है। यह पाकिस्तान के एक अधूरे एजेंडे के येनकेनप्रकारेण पूरा करने का आतंकवाद है। यह पाकिस्तानी सेना के जिद और उसकी पराजित मानसिकता के प्रतिशोध से उपजा आतंकवाद है। निश्चित रूप से जम्मू-कश्मीर राज्य में इन आतंकवादियों के साथ सहानुभूति रखने वाले स्लीपर सेल और मुखर लोग कुछ होंगे पर उनकी संख्या कम ही होगी। यह मान बैठना कि पूरी की पूरी घाटी ही आतंकवाद के साथ है न केवल गलत होगा बल्कि उस पूरी जनसंख्या के प्रति अविश्वास करना होगा, जो 1947 के बाद भारत पाक के बीच हुए हर युद्ध मे भारत के साथ डट कर खड़ी रही है। यह जम्मू-कश्मीर के उन नागरिकों के विश्वास को तोड़ना होगा जिन्होंने मुस्लिम होते हुए भी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के साथ आना स्वीकार किया और धर्म ही राष्ट्र है के सिद्धांत को सिंधु में बहा दिया। एक बात प्रोफेशनल पुलिसजन होने के नाते स्पष्ट कर दूं कि आतंकवाद हो या अराजक सामूहिक अपराध की स्थिति, जब तक स्थानीय जनता का साथ और सक्रिय सहयोग, सरकार और सुरक्षा बलों को नहीं मिलेगा तब तक आतंकवाद खत्म किया ही नहीं जा सकता है।
बल से उसे दबाए भले ही रखा जाय, पर जैसे ही बल कम होगा तो जो प्रतिक्रिया होगी वह पिछली सारी उपलब्धियों को बहा ले जाएगी। 12 अगस्त को देशभर में ईदुलजुहा का पर्व मनाया गया। जम्मू-कश्मीर में वहां की स्थिति को देखते हुए सुरक्षा प्रबंध कड़े हैं। खबरें भी कम आ रही हैं। जब अनुच्छेद 370 का प्राविधान संविधान में जोड़ा गया था तभी जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि यह प्राविधान अस्थाई रहेगा, और समय के साथ खुद ही विलीन हो जाएगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्थाई कहा है। धीरे-धीरे इसी प्राविधान से जम्मू-कश्मीर अधिकतर मामलों में अन्य राज्यों के समकक्ष आ गया। यह बस एक मनोवैज्ञानिक विशेष दर्जा कि हम अन्य राज्यो से अलग हैं, बन कर रह गया। अब जब यह मनोवैज्ञानिक बैरियर टूटा है तो इसकी प्रतिक्रिया होगी ही। जम्मू-कश्मीर को यह एहसास दिलाने की जरूरत है कि यह कदम उनके मनोवैज्ञानिक अलगाव से दूर करके देश की मुख्य धारा में लाने के लिए है। वहां की जनता जिस मन:स्थिति में इस समय है उसमें पूरी की पूरी आबादी को ही आतंकी और देशद्रोही कह देना, जैसा कि खुद को सत्ता के समर्थक कहने वाले सायबर लफंगे सोशल मीडिया में खुल कर कह रहे हैं और कश्मीर को लेकर कुछ बड़े नेताओं के भी कुछ अभद्र बयान जैसे आ रहे थे, उससे यह मनोवैज्ञानिक बैरियर टूटेगा नहीं बल्कि और मजबूत होगा। इस बात को सरकार भी समझ रही है और इस बात को सभी राजनीतिक दलों और जिम्मेदार लोगों को भी समझना होगा। फिलहाल जम्मू-कश्मीर जिस मनोव्यथा से गुजर रहा है उसे बेहद अपनापन लिए हुए उपायों से ही सामान्य किया जा सकता है। अभी इस कदम को सफल कहना जल्दीबाजी होगी। अभी पहाड़ों पर बर्फ नहीं पड़ी है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं)

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