Thackeray family softens in Maharashtra’s changing politics: महाराष्ट्र की बदलती सियासत में नरम पड़ता ठाकरे परिवार

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महाराष्ट्र में शिव सेना की धमक का असर अक्सर दिल्ली तक सुना जाता रहा है। शिव सेना के प्रमुख स्व. बाल ठाकरे जब मुंबई में गरजते थे तो उनकी आवाज दिल्ली तक गूंजती थी। हलचल ऐसा कि मानों उथल-पुथल सा मच गया। पर अब हालात बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। शिव सेना की कमान बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे के हाथों में है। इसे ही कहते हैं वक्त-वक्त की बात। जिन्हें राजनीति का ककहरा भी नहीं पता, वे भी अब शिव सेना को सीख दे रहे हैं। शायद यह बदलती राजनीति का ही असर है। शिव सेना हमेशा से महाराष्ट्र में खुद को भाजपा के लिए बड़ा भाई कहती आई है, लेकिन अब उसे छोटा भाई बनकर ही संतोष करना पड़ रहा है। भविष्य में इसकी परिणति क्या होगी, यह तो वक्त बताएगा। पर इतना जरूर है कि महाराष्ट्र की बदलती सियासत ने नई इबारत लिखनी शुरू कर दी है।
महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने वाला है। शिवसेना-भाजपा गठबंधन का सूत्र दोनों दलों के उम्मीदवारों की सूची से आता है। शिवसेना 124 सीटों और अन्य सहयोगियों के साथ भाजपा 164 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। 2014 के विधानसभा चुनावों के अपवाद के साथ, शिवसेना और भाजपा 1990 के बाद से चुनाव लड़ रहे हैं। 1990 से 2009 के विधानसभा चुनावों में शिवसेना परोक्ष रूप से बड़े भाई की भूमिका में रही है। शिवसेना नेताओं ने बार-बार कहा है कि राज्य की राजनीति में वे एक बड़े भाई की भूमिका में हैं। राज्य की राजनीति को करीब समझने वाले कहते हैं कि लालकृष्ण आडवाणी हमेशा शिवसेना से कहते थे कि वह (शिवसेना) राम है और हम लक्ष्मण हैं। इसलिए, ये भी सच है कि बीजेपी शिवसेना को महाराष्ट्र में बड़ा भाई मानती थी।
लेकिन अब यह समीकरण बदलता दिख रहा है। इस साल के चुनाव में शिवसेना को 124 सीटें मिली हैं। गठबंधन के इतिहास में पहली बार, शिवसेना को 150 से कम सीटें दी गई हैं। परिणामस्वरूप, यह बहस शुरू हो गई है कि क्या शिवसेना अब आधिकारिक तौर पर छोटा भाई है। जानकार मानते हैं कि भाजपा के पास 2009 में 46 सीटें थीं जबकि 2014 में उसे 122 सीटें मिलीं। यानी भाजपा को शिवसेना के साथ बिना गठबंधन के भी 2009 के मुकाबले तीन गुना ज्यादा सफलता हासिल हुई। शिव सेना की शुरुआत सन 1966 में हुई थी। परंतु तब से अब तक इसकी स्थापना करने वाले ठाकरे परिवार के किसी सदस्य ने चुनाव नहीं लड़ा है। बाल ठाकरे, उनके बेटे उद्धव ठाकरे और पोते आदित्य ठाकरे ने भी नहीं। परंतु अब बदलाव होता दिख रहा है। पार्टी आदित्य ठाकरे को मुंबई के वर्ली इलाके से चुनाव में उतारने जा रही है। यह इलाका मध्य वर्ग के दबदबे वाला है। यहां प्रत्याशी और निर्वाचन क्षेत्र दोनों महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये हमें बताते हैं कि शिव सेना का राजनीतिक भविष्य किस दिशा में जाने वाला है। सबसे पहले बात करते हैं युवा आदित्य ठाकरे की। वह कवि और छायाकार हैं। उनकी पहली कविता पुस्तक 2007 में प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था, ‘माई थॉट्स इन व्हाइट ऐंड ब्लैक’। अगले वर्ष केवल 17 वर्ष की उम्र में बतौर गीतकार उनका प्राइवेट एलबम बाजार में आया। ‘उम्मीद’ नामक इस म्यूजिक वीडियो में उनके लिखे आठ गाने शामिल थे। इस एलबम में न केवल सुरेश वाडेकर, शंकर महादेवन, कैलाश खेर और सुनिधि चौहान जैसे गायक-गायिकाओं ने अपनी आवाज दी, बल्कि उनके दादा बाल ठाकरे ने यह भी सुनिश्चित किया कि इस एलबम का लोकार्पण अमिताभ बच्चन करें। इस कार्यक्रम में 82 वर्षीय ठाकरे ने अपने पोते को सलाह दी थी कि बहुत तेज न चलें लेकिन ज्यादा धीमे चलना भी अच्छा नहीं होता। लता मंगेशकर ने ठाकरे के आवास मातोश्री जाकर युवा कवि को उसकी उपलब्धि के लिए बधाई दी थी।
देखते ही देखते आदित्य पार्टी की युवा इकाई युवा सेना के अध्यक्ष बन गए। उनके जीमेल एड्रेस में भी टाइगर शब्द शामिल है। उन्हें पहली राजनीतिक सफलता तब मिली जब उनके नेतृत्व में युवा सेना ने मुंबई विश्वविद्यालय को मजबूर किया कि वह कनाडा वासी लेखक रोहिंटन मिस्त्री की किताब सच अ लॉन्ग जर्नी को अपने पाठ्यक्रम से हटाए। बिजनेस स्टैंडर्ड को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने इस किताब को लेकर अपनी आपत्ति के बारे में बताया था। उन्होंने कहा था कि यह किताब नस्लवादी और अनावश्यक विचारों से भरी है। उन्होंने कहा था कि मां-बाप के रूप में सोचिए, आप अपने बच्चों को ऐसी किताब कैसे पढ़ने दे सकते हैं? एक शिक्षक या छात्र के रूप में खुद को रखकर देखें तो भी आप कक्षा में ऐसी किताब कैसे पढ़ेंगे? आप किसी नीति की आलोचना कर सकते हैं वह सही है लेकिन गंदी भाषा और संदर्भ से काट कर पेश की गई चीजें पाठ्यक्रम में नहीं रह सकतीं। क्या हम अपने छात्र-छात्राओं को नस्ली साहित्य पढ़ाएंगे? या फिर कुछ ऐसा जिससे उन्हें रोजगार मिल सके? यह उनकी राजनीति का लब्बोलुआब है-लोगों के लिए रोजगार सुनिश्चित करना। यह सन 1966 की शुरुआत से कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं है। उस वक्त बाल ठाकरे का कहना था कि मुंबई महाराष्ट्र के लोगों के अलावा सभी को रोजगार दे रही है। ठाकरे ने उस दौर में ‘मार्मिक’ नामक एक साप्ताहिक शुरू किया था जो ब्रिटिश प्रकाशन पंच के तर्ज पर निकलता था। उसमें गुजराती सेठों, दक्षिण भारतीय क्लर्कों, उडुपी होटल के मालिकों और कांग्रेस नेताओं का मजाक उड़ाया जाता था। शिव सेना का उद्भव मार्मिक में प्रकाशित विचारों से ही हुआ था लेकिन जल्दी ही उसे अपनी वैचारिक स्थिति की समीक्षा करनी पड़ी। मुंबई के बाहर विस्तार करने और कोल्हापुर तथा नागपुर जैसे तेजी से उभरते कारोबारी केंद्रों में अपनी पहुंच बनाने के लिए उसे कहीं ज्यादा व्यापक चिंताओं का प्रदर्शन करना था। अब वह अधिक आक्रामक, हस्तक्षेपकारी हिंदुत्व के साथ आगे बढ़ रही थी, जिसमें पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खेलने की इजाजत वाले क्रिकेट मैच का विरोध भी शामिल था। अन्य नेताओं मसलन छगन भुजबल और मनोहर जोशी आदि ने चुनाव लड़े लेकिन ठाकरे परिवार ने नहीं। उद्धव ठाकरे को पहले पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया और पिता के निधन के बाद वह अध्यक्ष बन गए लेकिन उन्होंने चुनावी राजनीति से दूरी बरकरार रखी। इस बीच शिव सेना दो फाड़ हो गई। एक धड़ा उनके चचेरे भाई राज ठाकरे के साथ चला गया। उद्धव ने पार्टी की नीति तय करने पर ध्यान दिया। यह नीति थी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वफादार विपक्ष की भूमिका। उन्होंने शिव सेना को केवल शहरी क्षेत्र (बृहन्मुंबई महानगर पालिका यानी बीएमसी में उसके रसूख के चलते) से निकाल कर ग्रामीण महाराष्ट्र में उसकी जरूरत को बढ़ावा दिया।
सन 2009 के विधानसभा चुनाव में ग्रामीण महाराष्ट्र की 44 सीटों में से सेना 26 सीटें जीतने में कामयाब रही। उसे 15 शहरी और तीन अर्द्ध शहरी सीटों पर भी जीत मिली। सन 2014 में पार्टी की सीटों की तादाद बढ़कर 63 हो गई। इस बार उसे ग्रामीण क्षेत्रो में 34, शहरी क्षेत्र में 23 और अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में छह सीटों पर जीत मिली थी। अब सवाल यह है कि आदित्य ठाकरे इनका प्रबंधन करने के बजाय चुनाव क्यों लड़ रहे हैं? उन्होंने विधायक बनने की अपनी इच्छा कभी नहीं छिपाई। वहीं पार्टी को भी अब लग रहा है कि सरकार की आलोचना करने में समय गंवाने के बजाय उसका हिस्सा बनकर जरूरी असर डालना कहीं ज्यादा बेहतर है। जानकारी के अनुसार, आदित्य ठाकरे भाजपा से अपनी पार्टी के लिए उपमुख्यमंत्री का पद मांग सकते हैं। उद्धव ठाकरे पार्टी प्रमुख बने रहेंगे। इस तरह शिव सेना सरकार में भी रहेगी और उससे बाहर भी। इससे बेहतर भला क्या हो सकता है? बहरहाल, कह सकते हैं कि यह बदलती सियासत का परिचायक है कि एक तरफ जहां शिव सेना भाजपा की अधीनता स्वीकार कर रही है वहीं ठाकरे परिवार प्रत्यक्ष रूप से सियासी मैदान में उतर रहा है। खैर, देखना यह है कि सियासत के इस बदलते स्वरूप का असली चेहरा किस प्रकार निखरता है?

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(लेखक आज समाज के समाचार संपादक हैं)

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