कांग्रेस का हाथ बेहद कमजोर हो चुका है। इतना कमजोर कि वह खुद का बोझ उठाने में सक्षम नहीं है। पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र और संगठन बिखर चुका है। वह मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने में भी काबिल नहीं है। अनुशासन जैसी बात खत्म हो चली है। संगठन से जुड़े नेता अपना घर छोड़ भाजपा का दामन थामने में जुटे हैं। जबकि शीर्ष नेतृत्व इस बगावत को थामने में नाकाम साबित हुआ है। बस! जो हो रहा है होने दो कि नीति अपना कर कांग्रेस मौन है।
राहुल गांधी से काफी उम्मीद थी लेकिन वह कसौटी पर खरे नहीं उतरे। बुरे दौर में संघर्ष करने के बजाय पीठ दिखाकर भाग गए। कांग्रेस की कमान एक बार फिर सोनिया गांधी के हाथ में है। कांग्रेस को वह कितना पुनर्जिवित कर पाती हैं यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन उनके सामने हरियाणा को लेकर नया संकट खड़ा हो गया है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एंव पार्टी के वरिष्ठ नेता भूपिंद्र सिंह हुड््डा ने जाटलैंड में बगावत का बिगुल फूंक दिया है। जिसकी वजह से हरियाणा में कांग्रेस एक नए मोड़ के साथ टूट की कगार पर आ खड़ी है। हालांकि हुड्डा ने अभी यह संकेत नहीं दिया है कि वह भाजपा की शरण में जाएंगे या फिर नई पार्टी बनाएंगे। आतंरिक तौर पर वह कांग्रेस छोड़ना भी नहीं चाहते हैं।
रोहतक में उनकी तरफ से एक बड़ी रैली कर अंतरिम अध्यक्ष को अपनी ताकत का एहसास कराया गया। राज्य के वर्तमान अध्यक्ष अशोक तंवर पार्टी को नई उम्मीद दिलाने में नाकाम रहे हैं। लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहद बुरा रहा वह एक भी सीट नहीं जीता पाए। पार्टी नेतृत्व कमी कमान एक बार फिर सोनिया गांधी के पास आने के बाद हुड्डा को लगता है कि यह अच्छा मौका है। पार्टी की कमान मिल सकी हैं। क्योंकि तंवर राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं। यही कारण है कि अभी तक उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का कोई फैसला नहीं किया है। हरियाणा कभी कांग्रेस गढ़ हुआ करता था। लेकिन कांग्रेस की हालत वहां खस्ता है।
हुड्डा राज्य के कद्दावर नेता हैं। पार्टी में उनकी अपनी मजबूत पकड़ है। कहा गया कि रोहत की रैली में मंच पर 15 से अधिक विधायक मौजूद थे। जिससे यह साबित होता है कि राज्य में हुड्डा की ताकत अभी कमजोर नहीं हुई है। रैली के जरिए बदलते परिवेश में सोनिया गांधी तक वह अपनी ताकत का संदेश पहुंचाने में कामयाब हुए हैं। सोनिया गांधी पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं बनाती हैं तो हरियाणा जैसे राज्य में कांग्रेस के विभाजन को कोई रोक नहीं सकता है। कांग्रेस आज जिस दौर में गुजर रही है इसके लिए कठोर फैसले की जरुरत है। पार्टी में बुर्जुग पीढ़ी को किनारे कर नए और युवा चेहरों को कमान देनी चाहिए। लेकिन उम्रदराज नेता रिटायर होना नहीं चाहते हैं। वह युवाओं को कमान सौंपने के पक्ष में नहीं दिखते। जिसकी वजह से कांग्रेस में युवा नेतृत्व का उभार नहीं हो पा रहा। सारा काम अभी पुरानी रीति नीति से चल रहा। हरियाणा में हुड्डा पर अगर कोई नीतिगत फैसला नहीं हुआ तो पार्टी को बड़ा झटका लग सकता है। जिम्मेदारी कांग्रेस नेतृत्व की होगी। कांग्रेस गणेश परिक्रमा से बाहर निकला भी नहीं चाहती है।
भाजपा जहां साठ साल की नीति अपना कर वरिष्ठ राजनेताओं को रिटायर किया। जबकि कांग्रेस ठीक उलट नीति अपना कर राजस्थान में अशोक गहलोत, मध्यप्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बना यह साबित कर दिया कि वह बदलाव नहीं चाहती। जबकि राजस्थान में सचिन और मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा नेताओं को कमान मिलनी चाहिए थी। लेकिन गांधी परिवार के करीबियों की ताजपोशी की गई। फिर बदलाव कैसे संभव है। कर्नाटक में पार्टी गठबंधन को संभाल नहीं पाई और वहां भी बाजी भाजपा के हाथ लगी। गोवा में पार्टी के 15 विधायकों में 10 भाजपा की शरण में चले गए। सारा खेल शीर्ष नेतृत्व के सामने हुआ लेकिन वह कुछ नहीं कर पाया। केंद्रीय नेतृत्व की कोई कमान रह ही नहीं गई है। कश्मीर से धारा-370 हटाए जाने पर कांग्रेस विभाजित हो गई।
उसके बड़े नेताओं ने पार्टी लाइन से हटकर अपनी राय रखी। जिसकी वजह से इतने संवेदनशील मसले पर कांग्रेस हासिए पर चली गई। फिर वह भाजपा का विकल्प कैसे बन सकती है। कांग्रेस के पास राज्य, जिला और ब्लॉक स्तर पर कोई संगठन नहीं रह गया है। जिला स्तर पर ऐसे लोगों के हाथों पार्टी की कमान है जिन्हें कोई जानता पहचानता तक नहीं। भाजपा पूरे देश में सदस्यता अभियान चलाकर अधिक से अधिक लोगों को पार्टी से जोड़ने का काम कर रही है जबकि कांग्रेस केंद्रीय स्तर पर बिखरी पड़ी है। सिर्फ अध्यक्ष बदलने से कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है। जब पार्टी के पास कोई आधारभूत ढांचा नहीं बचा है फिर वह भाजपा जैसा विशाल संगठन कैसे तैयार करेगी। भाजपा दोबारा सत्ता में क्यों लौटी इसकी मूल में उसका सांगठनिक ढांचा है पार्टी का सक्षम नेतृत्व। दक्षिण भारत कभी कांग्रेस का अपना गढ़ था। लेकिन भाजपा वहां भी अपनी पैठ बढ़ाने में कामयाब हुई। कांग्रेस झटके पर झटके खाने के बाद भी अपनी रीतियों और नीतियों में कोई बदलाव नहीं ला सकी। अभी भी गांधी परिवार की माला जपी जा रही है। राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद भी सारी सांगठनिक इकाईयां भंग कर नए सिरे से पारदर्शी चुनाव कराने के बजाय सोनिया गांधी को अंतरिक अध्यक्ष चुन लिया गया।
कांग्रेस के पास अपनी गलतियां सुधारने का बेहतर मौका था। लेकिन वह कुछ नया नहीं कर पाई। फिर एक बार पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथ में सौंप कर गांधी परिवार की भक्तिको पुनर्स्थापित किया गया। सोनिया एंव राहुल गांधी को खुद तटस्थ होकर पार्टी हित में कठोर फैसले लेने चाहिए। संस्थागत तरीके से चुनाव कराने चाहिए। चुनाव से निर्वाचित होकर आया व्यक्ति पार्टी के लिए जिम्मेदार और वफादार होगा। इस तरह के लोग कांग्रेस के लिए बेहतर काम का महौल बनाते। युवाओं के हाथ नेतृत्व जाने पर एक नया जोश पैदा होता। लेकिन ढलती उम्र में हम सोनिया गांधी से कितनी उम्मीद कर सकते हैं। 2004 वाला वक्त कांग्रेस के लिए फिर लौटकर आएगा यह संभव नहीं है। फिलहाल राजनीति में कुछ कहा भी नहीं जा सकता। लेकिन भाजपा की रणनीति में कांग्रेस कहीं टिकती नहीं दिखती। क्योंकि भाजपा एक सशक्त भूमिका में हैं। भाजपा के खिलाफ कांग्रेस को एक मजबूत प्रतिपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए थी, लेकिन इस जिम्मेदारी पर वह खरी नहीं उतरी। कांग्रेस खुद घरेलू फसाद में उलझ कर रह गई। संगठन खोखला हो चुका हैं। कभी वह वक्त था जब कांग्रेस एक तरफा चलती थी। लेकिन देश का मिजाज बदल गया है। राजनैतिक विकल्प के रूप में लोगों के सामने मोदी जैसा नेतृत्व और भाजपा जैसी पार्टी है। कांग्रेस उसके मुकाबले दूर तक नहीं दिखती। राज्यों में भी वह खुद को मजबूत आधार नहीं दे पा रही है।
भाजपा के खिलाफ अपनों को लामबंद करने में वह नाकाम रही है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण 2019 का लोकसभा चुनाव है। महाराष्ट में एनसीपी, पश्चिम बंगाल में तृणमूल, आंध्रप्रदेश में वाईएसआर और तेलंगाना में केसीआर जैसे दल किसकी नाकामी का नतीजा हैं। सभी कांग्रेस से निकले भस्मासुर हैं जो अब उसी को राख कर रहे हैं। अगर कांग्रेस इन्हें लेकर एक साथ चलती तो भाजपा का उदय ही नही होता पाता। लेकिन इस बात की उसने कभी चिंता नहीं किया। जिसका नतीजा है कि आज उसकी लुटिया डूब रही है।
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