‘Base’less Social media: ‘आधार’हीन सोशल मीडिया

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इसमें कोई दो राय नहीं है कि सोशल मीडिया की समस्या गंभीर है। लोग तो आमने-सामने भिड़ जाते हैं। अगर छुपकर वार करने का स्कोप हो तो पता नहीं क्या-क्या कह डालें। ऊपर से सोशल मीडिया है मुफ़्त का बाजार। हजार-दो-हजार के फोन और दो-चार क्लिक में दुनियां भर के ढाई-सौ करोड़ लोगों तक आपकी मार हो जाती है। आॅनलाइन होते ही एक जन-महासागर में पहुंच जाते हैं। राष्ट्रीय सीमाओं का तो यहां कोई मतलब ही नहीं। भाषा की दीवार भी लगभग ढह चुकी है। मानव सभ्यता के इतिहास में ये एक बिल्कुल नई स्थिति है। किसी को ठीक-ठीक नहीं पता कि इसे साधें कैसे।

एक सज्जन ने चेन्नई हाई कोर्ट में एक पीआईएल डाल रखा है। प्राइम-टाइम में टीवी-अखबार पर इंटरव्यू दे रहे हैं। इनका कहना है कि सोशल मीडिया के माध्यम से झूठ-नफरत फैलाया जा रहा है, लोगों को तंग किया जा रहा है। ऐसा करने वालों की पहचान नहीं हो पा रही है। इस वजह से पुलिस इन्हें पकड़ नहीं पा रही। इससे उनके हौसले और भी बुलंद हो रहे हैं। इनकी पहचान हो पाए इसके लिए अब जरूरी है कि सोशल मीडिया एकाउंट को आधार कार्ड से जोड़ दिया जाए। दलील ये है कि चेहरा बेनकाब होगा तो लोग संयमित आचरण करेंगे। और जो गड़बड़ करेगा उसे पुलिस उसके आधार नंबर के रास्ते टोह लेगी। इस तरह लोग सोशल मीडिया पर लुटने-पिटने से बच जाएंगे।
पीआईएल एक तरह से जहांगीरी घंटा है। जस्टिस पीएन भगवती ने 1986 में इसे ये कहकर शुरू किया था कि जनहित सबसे ऊंचा कानून है। कोई भी शोषित-पीड़ित न्याय के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। इस फेर में झारखंड सांसद घूसकांड, जैन हवाला केस, सतीश शर्मा पेट्रोल पंप घोटाला, एनरोन घोटाला, चारा घोटाला जैसे मामले खुले और इसमें बड़े-बड़े लोग नप गए। ताजमहल बच गया। इसका ख्याल करने वालों ने इसी रास्ते इसके इर्द-गिर्द धुआं-उगलती औद्योगिक इकाइयों को अदालत के माध्यम से ताला लगवाया। लेकिन 1997 आते-आते पीआईएल घंटा से झुनझुना बन गया। सुप्रीम कोर्ट में 300 और विभिन्न हाईकोर्ट में 2000 लोग इसे बजाने में जुट गए। जनहित की आड़ में राजनैतिक रोटियां सेकने लगे। आजकल ये मशहूर होने का सस्ता और शर्तिया जरिया है। बस कोई उड़ता तीर पकड़ लो।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सोशल मीडिया की समस्या गंभीर है। लोग तो आमने-सामने भिड़ जाते हैं। अगर छुपकर वार करने का स्कोप हो तो पता नहीं क्या-क्या कह डालें। ऊपर से सोशल मीडिया है मुफ्त का बाजार। हजार-दो-हजार के फोन और दो-चार क्लिक में दुनियां भर के ढाई-सौ करोड़ लोगों तक आपकी मार हो जाती है। आॅनलाइन होते ही एक जन-महासागर में पहुंच जाते हैं। राष्ट्रीय सीमाओं का तो यहां कोई मतलब ही नहीं। भाषा की दीवार भी लगभग ढह चुकी है। मानव सभ्यता के इतिहास में ये एक बिल्कुल नई स्थिति है। किसी को ठीक-ठीक नहीं पता कि इसे साधें कैसे। लेकिन ये कहना कि आधार कार्ड को सोशल मीडिया से जोड़ देने से समस्या समाप्त हो जाएगी, खयाली पुलाव है। वैसे, आधार कार्ड का इतिहास बीस साल पुराना है। कारगिल युद्ध के बाद गठित शुभ्रमण्यम और बाद में रंगराजन समिति ने राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में नागरिकों को एक पहचान-पत्र दिए जाने की बात कही थी। इसी क्रम में साल 2017 तक 9055 करोड़ रुपैये के लागत से 116 करोड़ लोगों का आधार कार्ड बनाया गया है। आधार एक्ट, 2016 के तहत इसका इस्तेमाल सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों के खाते में पैसा सीधे डालने में होता है। मकसद है कि पैसा जरूरतमंदों के हाथ में पहुंचे। बीच वाले ने गपत कर जाएं। इधर इसे पैन नम्बर से भी जोड़ा गया है।
साल 2012 से ही आधार कार्ड का मामला पीआईएल से घिरा रहा है। सिविल लिबर्टी वालों को डर है कि सरकार कहीं इसका इस्तेमाल लोगों की प्राइवेसी खत्म करने और उनकी जासूसी करने में ना करने लग जाए। वर्तमान पीआईएल में स्थिति विपरीत है। फेसबुक कह रहा है कि भाई आधार कार्ड रहने दो, ये हमारे यूजर प्राइवेसी की नीति के खिलाफ है। हम किसी और से अपने यूजर का डाटा शेयर नहीं करते हैं। ये अलग बात है कि ये बेचते जरूर हैं। जैसा कि केम्ब्रिज ऐनालिटिका वाले मामले में किया था। दूसरी तरफ जनहित की चिंता करने वाले कह रहे हैं कि हमारे आधार कार्ड का डाटा भी ले जाओ। इसमें धारक का नाम, पता, फिंगर-प्रिंट और आंख की पुतलियों का स्कैन सब-कुछ है। बैक-खाता, फोन नंबर और पैन कार्ड भी जुड़ा है। फेसबुक पर दुनियां भर के लोग हैं। पेशेवर बदमाश पहले ही अपना धंधा डार्क -नेट पर ले जा चुके हैं। वे पकड़े जाएं या नहीं, अगर पीआईएल वालों की मान लें तो आधार का डाटा बैठे-बैठे विदेशी सर्वर पर जरूर चला जाएगा। आधुनिक अर्थव्यव्स्था और साइबर-युद्ध के युग में डाटा का क्या महत्व है, शायद इनको नहीं मालूम। अभी तीन अलग-अलग हाईकोर्ट में इसी विषय पर चार अलग-अलग पीआईएल चल रहा है। फेसबुक के महंगे वकील सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगा रहे हैं कि आप इकट्ठे सुनवाई कर लो। इनकी चिंता समझ में आती है। फेसबुक का धंधा ही भारत से चलता है। यहां उसके सबसे ज्यादा 27 करोड़ यूजर हैं। अमेरिका और इंडोनेशिया में ये संख्या 19 और 13 करोड़ है। शेयर मार्केट और विज्ञापन की दुनियां में इसकी शेखी इसी बात की है ढाई सौ करोड़ लोग इससे जुड़ें हैं और रोज घंटों इसपर माथा-पच्ची करते हैं। गुजरे जमाने में ईस्ट इंडिया कंपनी को तो इधर आकर लूटना पड़ा था। ये तो सात समुंदर पार बैठे-बैठे डाका डाल रहा है और लोग खुशी-खुशी लुट रहे हैं।
सरकार को चाहिए कि आॅनलाइन प्राइवेसी एवं डाटा लोकलाईजेसन के ऊपर एक नया कानून बनाए। सोशल मीडिया तकनीक से चलती है। ये एक व्यापार है। जैसा कि जर्मनी ने किया है, इनके मालिकों को साफ लहजे में कह दिया जाना चाहिए कि तकनीक के इस्तेमाल और अन्य तरीके से फेक-न्यूज, हेट-पोस्ट और साइबर-बुलीइंग को रोकें नहीं तो अपना धंधा समेट लें। बंदूक बांटने वाला इससे होने वाले कत्ल की जिम्मेवारी से कैसे बच सकता है?

(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)

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