Attacks on newsmen will not change reality: खबरनवीसों पर हमले से नहीं बदलेगा यथार्थ

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सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने पिछले सप्ताह ‘राजद्रोह और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ विषय पर अपने व्याख्यान में कहा कि भारत का संविधान नागरिकों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार देता है। ‘कार्यपालिका, न्यायपालिका, नौकरशाही और सशस्त्र बलों के कार्यों की आलोचना करना राजद्रोह नहीं हो सकता है। अगर हम इन संस्थानों की आलोचना करना बंद कर देंगे, तो हम लोकतंत्र के बजाय पुलिस राज्य बन जाएंगे।’ बीते कुछ महीनों में हमें देखने को मिल रहा है कि खबरनवीसों पर हमले बढ़े हैं। कहीं उन्हें धमकाया जा रहा है, तो कहीं उनकी हत्यायें की जा रही हैं। यही नहीं उनके खिलाफ सत्ता प्रतिष्ठान गंभीर धाराओं में आपराधिक मुकदमे दर्ज करा रहे हैं। वजह सिर्फ यह, कि उन्होंने वह सच दिखाया, जिसे भ्रष्ट व्यवस्था छिपाना चाहती थी। खबरनवीसों और सच की आवाज बनने वालों को कुचलने की कोशिश करने वाले अफसरों के खिलाफ सरकार ने कोई कार्रवाई न करके, यह भी जता दिया कि वह इन भ्रष्ट अफसरों के साथ खड़ी है। यह ईमानदारी से निष्पक्ष और सच दिखाने की कोशिश करने वालों का मनोबल तोड़ने की ऐसी साजिश है, जिसमें सियासतदां, नौकरशाह और भ्रष्ट धंधेबाज शामिल हैं। लोकतांत्रिक देश होने का दम भरने वाले जिम्मेदार लोगों के मुंह से निंदा का एक भी शब्द न निकलना इसे पुलिस राज्य (तानाशाही) की ओर ले जाने के लिए काफी है।
गृह मंत्रालय (एनसीआरबी) के आंकड़ों से पता चलता है पिछले कुछ सालों में खबरनवीसों पर हमले के 190 मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें डेढ़ दर्जन पत्रकारों की हत्या भी हुई। इसके साथ ही जो मामले दर्ज नहीं हुए उनकी संख्या 10 गुणा अधिक है। यूपी में पत्रकारों पर हमले के 67 मामले पिछले साल तक पुलिस ने ही दर्ज किए हैं। केवल 2017 में 13 ऐसे मामले सामने आये जिनमें पत्रकारों पर हमला करने वाले पुलिसवाले ही थे। अभी हाल के दिनों में यूपी में मिडडे मील से लेकर तमाम कल्याणकारी योजनाओं में हो रहे घपले को दिखाने पर खबरनवीसों पर गंभीर धाराओं में एफआईआर दर्ज की गईं। हरियाणा के उकलाना में खाद्य आपूर्ति विभाग के घपले को दिखाने वाले पत्रकार पर आपराधिक मामला दर्ज कर लिया गया। जम्मू-कश्मीर में खबरनवीसों के साथ सत्ता ऐसे पेश आ रही है, जैसे पत्रकार देशद्रोही हों। उन्हें भी नजरबंदी जैसे हालातों से रूबरू होना पड़ रहा है। इसको लेकर वहां के एक अखबार के संपादक ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की। यह सभी वे मामले हैं, जो हमें नजर आ रहे हैं मगर इनसे कई गुणा अधिक घटनाएं रोज हो रही हैं। सत्ता मूक दर्शक बनी है। सरकार का चारण करने वाले पत्रकार संगठन मौन साधे हुए हैं। इनको अपने अनुदान और दूसरे धंधे बंद हो जाने का खौफ नजर आता है।
हमारे लिए एक और शर्मनाक बात यह है कि ग्लोबल प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की रिपोर्ट के मुताबिक भारत निष्पक्ष खबरों के मामले में नीचे चला गया है। यहां खबरनवीसों पर हमले बढ़े हैं। कई बार भीड़ ने पत्रकारों पर हमले किये। हमें लगता है कि भारत देश के पत्रकार अन्य तमाम विकसित देशों के पत्रकारों की अपेक्षा बड़े राष्ट्रभक्त और राष्ट्रवादी हैं। अपने देश और देशवासियों के सामने सच लाने को वे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। सत्ता-प्रशासन के भ्रष्ट आचरण को सामने लाना और उन पर सवाल उठाना किसी भी देश प्रेमी पत्रकार का कर्तव्य है। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो यह देश के साथ धोखा करने जैसा है क्योंकि देश को खोखला करने वालों को सजा दिलाने तक सच की आवाज बनना उनका ही काम है। सत्ता प्रतिष्ठान की यह महती जिम्मेदारी है कि वह पत्रकारों- आलोचकों और खबरनवीसों को संरक्षण प्रदान करे। हमारे यहां कबीरदास ने इसको लेकर बड़ा स्पष्ट मत दिया है ‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ हमारे देश और उसके लोकतंत्र की यही खूबी है कि हमें बेहतरीन विचारों के लिए किसी दूसरे देश के विचारकों पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं है। हमारे वेद राज सत्ता और उसके कर्तव्यों से लेकर उसकी आलोचना करने तक को बेहतरीन तरीके से समझाते हैं। विश्वसनीयता और निडरता के साथ सच्चाई को सामने रखना ही खबरनवीसों की जिम्मेदारी है। इस कर्तव्य को उन्हें बेखौफ निभाना चाहिए। उन्हें तुलसीदास की रामचरित मानस में लिखी यह चौपाई ध्यान में रखनी चाहिए “सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहुँ मुनिनाथ। हानि, लाभ, जीवन, मरण,यश, अपयश विधि हाँथ।” इसके साथ ही अर्थववेद का श्लोक समीचीन है, ‘यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यत:। एवा मे प्राण मा विभे:।।’ इसका अर्थ है ‘जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो। हमारे वेद जीवन संघर्ष को आनंद के रूप में परिभाषित करते हैं। ‘जिंदगी है तो संघर्ष हैं, तनाव है, काम का दबाब है, खुशी है, डर है, लेकिन अच्छी बात यह है कि यह सभी स्थायी नहीं हैं। समय रूपी नदी के प्रवाह में सब प्रवाहमान हैं। कोई भी परिस्थिति चाहे खुशी की हो या गम की, कभी स्थाई नहीं होती, समय के अविरल प्रवाह में विलीन हो जाती है’। जो लोग धन-संपदा या किसी अन्य लालच में सच को छिपाते हैं, वो भले ही कुछ वक्त खुद को सुखी महसूस करें मगर अंतत: उनकी दुर्गति तय है।
हमें यह भी देखना होगा कि विश्व में जहां क्रांतियां हुईं, वहां देशकाल और स्थितियों के अनुसार ही इनका सूत्रपात हुआ। दिन-प्रतिदिन बढ़ते साधनों से हिंसक और अहिंसक दोनों ही रूपों की क्रांतियां सामने आईं, उनके कारण विचारकों की सोच सर्वोच्च थी। 17वीं शताब्दी के अंत में विश्व का क्रांति से परिचय हुआ, जो 21वीं शताब्दी के आधुनिक युग में भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। तानाशाही, साम्राज्यवादी, निरंकुश और अयोग्य शासकों से आमजन को बचाकर आधुनिकता की ओर बढ़ने में इन्हीं क्रांतियों का हाथ रहा है। इंग्लैंड की महान क्रांति, फ्रांस की गौरवपूर्ण क्रांति, इटली की संघर्ष-क्रांति, भारत छोड़ो आंदोलन, जर्मनी की एकीकरण क्रांति, तिब्बत की धार्मिक क्रांति, जापान की तकनीकी क्रांति, औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक क्रांति तक निष्पक्ष समकालीन विचारधारा का नतीजा रही हैं, न कि किसी भीड़ का। ये क्रांतियां तब संभव हो सकीं, जब निष्पक्ष और निडर खबरनवीसी की गई। हमारा देश विश्व पटल पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। ऐसे में निष्पक्ष समीक्षा और खोजपूर्ण तथ्यात्मक खबरों को सामने लाकर सत्ता प्रतिष्ठान को आइना दिखाना हमारी महती जिम्मेदारी है। इसे हर उस खबरनवीस और समीक्षक को करना चाहिए, जो देश से प्यार करता है। कमियों को सामने लाकर उनको दुरुस्त करने से एक सशक्त देश बनता है, न कि सच दिखाने वालों को कुचलने से। सच्चाई को छिपाने या सच दिखाने वालों पर हमलों से व्यवस्था गर्त में जाती है। दमनकारी नीति सरकार और देश के आचरण को दशार्ती है। सरकार को चाहिए कि वह उनकी कमियां गिनाने वालों को सम्मान सहित प्राश्रय दे और कमियां दूर करके सुशासन स्थापित करे।
जयहिंद

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)
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