Nanak naam jahaj hai: ‘नानक नाम जहाज है, चढ़ै सो उतरे पार जो श्रद्धा कर सेंवदे, गुर पार उतारणहार’

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भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यहां तक कि हमारी वैदिक संस्कृति के कई मंत्रों में ‘गुरु परमब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नम:’ अर्थात गुरु को साक्षात परमात्मा परमब्रह्म का दर्जा दिया गया है। आध्यात्मिक गुरु न केवल हमारे जीवन की जटिलताओं को दूर करके जीवन की राह सुगम बनाते हैं, बल्कि हमारी बुराइयों को नष्ट करके हमें सही अर्थों में इंसान भी बनाते हैं। सामाजिक भेदभाव को मिटाकर समाज में समरसता का पाठ पढ़ाने के साथ समाज को एकता के सूत्र में बांधने वाले गुरु के कृतित्व से हर किसी का उद्धार होता आया है। एक ऐसे ही धर्मगुरु हुए गुरु नानक देव। जिन्होंने मूर्ति पूजा को त्याग कर निर्गुण भक्ति का पक्ष लेकर आडंबर व प्रपंच का घोर विरोध किया। इनका जीवन पारलौकिक सुख-समृद्धि के लिए श्रम, शक्ति एवं मनोयोग के सम्यक नियोजन की प्रेरणा देता है। गुरु नानक देव के व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्म सुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु के समस्त गुण मिलते हैं। मूर्ति पूजा के घोर विरोधी गुरु नानक देव ने आगे चलकर अद्वैतवादी विश्वास विकसित किया। जिसकी तीन प्रमुख बातें थी। पहली बात दैनिक पूजा करके ईश्वर का नाम जपना था। दूसरी बात किरत करो यानी गृहस्थ ईमानदार की तरह रोजगार में लगे रहना था। तीसरी बात वंड छाको यानी परोपकारी सेवा और अपनी आय का कुछ हिस्सा गरीब लोगों में बांटना था। इसके अलावा गुरु नानक देव ने अहंकार, क्रोध, लालच, लगाव व वासना को जीवन बर्बाद करने वाला कारक बताया तथा इनसे हर इंसान को दूर रहने की नसीहत दी। साथ ही उन्होंने जाति के पदानुक्रम समाप्त किया। अपने सारे नियम औरतों के लिए समान बताये और सती प्रथा का विरोध किया। गुरु नानक देव महान पवित्र आत्मा, ईश्वर के सच्चे प्रतिनिधि, महापुरुष व महान धर्म प्रवर्तक थे। जब समाज में पाखंड, अंधविश्वास व कई असामाजिक कुरीतियां मुंहबाये खड़ी थी। असमानता, छुआछूत व अराजकता का वातावरण पनप चुका था। ऐसे नाजुक समय में गुरु नानक देव ने आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करके समाज को मुख्यधारा में लाने के लिए भरसक प्रयत्न किया। आजीवन समाजहित में तत्पर रहे नानक का समूचा जीवन प्रेरणादायी व अनुकरणीय है। गुरु नानक देव के सबसे निकटवर्ती शिष्य मरदाना को माना जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि मरदाना मुस्लिम होने के बाद भी उनका सबसे घनिष्ठ शिष्य कहलाए। यह गुरु नानक देव के तप का ही प्रभाव कहा जा सकता है। सिख-धर्म के संस्थापक श्री गुरु नानक देव जी के आगमन के समय देश जटिल समस्याओं से घिरा था। समाज में अंधविश्वासों, कर्मकांडों एवं बाह्य आडंबरों का बोलबाला था। तत्कालीन समाज में व्याप्त हर अन्याय के खिलाफ वे डट कर खड़े रहे। न सिर्फ अपने संदेशों और सिद्धांतों को प्रतिपादित किया, बल्कि व्यावहारिक रूप में अपने उपदेशों पर चल कर लोगों को प्रेरित किया। संसार के भवसागर में श्री गुरुनानक जी के उपदेश एक जहाज की तरह हैं, जो हमें डूबने से बचा सकते हैं-
नानक नाम जहाज है, चढ़ै सो उतरे पार।
महान रचना : मनुष्यता को सत्यमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने हेतू उन्होंने अपनी महान रचना ‘जपु जी’ का सृजन किया, जिसकी शुरूआत एक ईश्वर पर आधारित मूल मंत्र से होती है कि ईश्वर एक है। वह सत्य है। वह सृष्टिकर्ता है। उसे किसी का डर नहीं। उसका कोई स्वरूप नहीं। वह पैदा नहीं होता। उसे गुरु द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
हुक्मे अंदर सबको, बाहर हुकूम न कोय।
यह संसार ईश्वर के हुकूम (आदेश) का खेल है। उसी के आदेश से सब संचालित होता है। सांसारिक जीवन में झूठ के पर्दे में सच को छिपाया जा सकता है, परंतु ईश्वर के दरबार में कर्मों के आधार पर न्याय होता है।
अपनी यात्राओं से जगत का दूर किया अंधेरा
गुरु नानक जी ने अपने पूरे जीवन काल में घूम-घूमकर ज्ञान दिया और लोगों को अपना शिष्य बनाया। उन्होंने अपने जीवन में कुल पांच बड़ी यात्राएं की। इन यात्राओं को पंजाबी में ‘उदासियां’ कहा जाता है। सिख धर्म के प्रथम गुरु गुरुनानक देवी जी के चार शिष्य थे। यह चारों ही हमेशा बाबाजी के साथ रहा करते थे। बाबाजी ने अपनी लगभग सभी उदासियां अपने इन चार साथियों के साथ पूरी की थी। इन चारों के नाम हैं- मरदाना, लहना, बाला और रामदास के साथ पुरी की थी। गुरु जी अपनी पहली यात्रा सुल्तानपुर से पानीपत होते हुए दिल्ली, बनारस, कामरूप, फिर तलवंडी आये। उस यात्रा में उन्होंने 12 साल लगाये। दूसरी यात्रा में वे दक्षिण भारत से होते हुए श्रीलंका गए। तीसरी यात्रा कश्मीर, सुमेरु पर्वत की थी। चौथी, मक्का और आखिरी पेशावर जहां उन्होंने अपने शिष्य ‘लहना’ को ‘अंगद’ का नाम देकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इन्हीं यात्राओं के दौरान उन्होंने लोगों की धारणाओं, अंध-मान्यताओं पर सवाल उठाये। गुरु नानक जी ने अपने दर्शन में कहा है- ‘धर्म अनुभूति है न कि कुछ बनी बनायी मान्यताएं और कर्मकांड।’ उन्होंने हिंदू धर्म के कर्म के सिद्धांत को स्वीकार किया पर मनुस्मृति, हठयोग, वेद आदि नकार दिए। जहां भी गुरु नानक जी गए, उन्होंने अंध-मान्यताओं पर प्रहार किया। वह चाहे हिंदू धर्म की हो या इस्लाम की। जात, धर्म, रंग सबसे परे रहने की बात उन्होंने कही।
‘सतनाम वाहे गुरु’ का संदेश
गुरु नानक जी ने कहा है कि ये जो शरीर है, जो खुदा का मंदिर है, इसे सारे झूठ, आडंबर, अहम से अलग करके उसी ‘सत-नाम’ में समर्पित कर दो, सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि, पूरे समाज के उत्थान में इसे लगा दो। इसके लिए नानक ने सहज योग की बात की है कि जिस तरह धीमी आंच पर खाना अच्छा पकता है, उसी तरह इस शरीर और मन को धीरे-धीरे संयम में लाओ तो ईश्वर में रम जाओगे। उन्होंने ईश्वर की कल्पना की वो एक है, निरंकार है, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है और जो सत्य है वही ही ईश्वर है। ‘सतनाम वाहे गुरु!’ का ख्याल इसी से है। गुरु नानक जी ने खुद अपने दर्शन को तीन सूत्रों में कहा है, किरत करो, जप करो, वंड छको।’ मतलब काम, पूजा और दान। गुरु नानक जी हिंदुओं और मुसलमान, दोनों में बराबर पढ़े गए। गुरु नानक देव जी को भी आज शाह की उपाधि मिली हुई है। गुरु नानक देव जी ने अपना पूरा जीवन समाज को सदमार्ग दिखाने के लिए समर्पित किया था। संत कबीर ने अपने दोहों में कहा है कि ‘बिरछा कबहुं न फल भखै, नदी न अंचवै नीर। परमारथ के कारने, साधू धरा शरीर’। अर्थात वृक्ष अपने फल को स्वयं नहीं खाते, नदी अपना जल कभी नहीं पीती। ये सदैव दूसरों की सेवा करके प्रसन्न रहते हैं उसी प्रकार संतों का जीवन परमार्थ के लिए होता है अर्थात दूसरों का कल्याण करने के लिए शरीर धारण किया है। आज के दौर में गुरु नानक देवजी की प्रेम, शांति, समानता और भाईचारे की शिक्षाओं का शाश्वत मूल्य है। गुरु नानक जी की शिक्षाओं को आत्मसात कर मनुष्य को न केवल अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए बल्कि अपनी भावी पीढ़ियों को भी प्रेरणा देते हुए संस्कारवान बनाना चाहिए। गुरु नानक देव जी की शिक्षाएं हमें सत्य एवं सामाजिक सद्भावना के मार्ग पर चलने का ज्ञान देती है, इसलिए हमें अपने जीवन में गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं को आत्मसात करना चाहिए। गुरु नानक देव जी ने जो शिक्षा एवं संदेश समाज को दिया, वह आज भी मनुष्य का मार्गदर्शक बनी हैं। समूची मानवता के लिए श्री गुरु नानक देव की शिक्षाएं बहुमूल्य मार्ग दर्शन है, जिन्हें अपनाकर मनुष्य अपने जीवन को सफल बना सकते है। नानक नाम जहाज है, चढ़े सो उतरे पार, जो श्रद्धा कर सेव दे, गुरु पार उतारण हार। हमेंगुरु नानक देव जी के बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिए। जब तक हम उनकी दी गई शिक्षाओं को नहीं अपनाते तब तक हमारा जीवन अधूरा है।
यहां गुरु नानक देव जी ने लगाया था ध्यान
सिखों के पहले गुरु, गुरु नानक देव जी ने बहुत यात्राएं कीं। जहां-जहां रुके लोगों की मदद की। आज उन ज्यादातर जगहों पर गुरुद्वारे मौजूद हैं। गुरुद्वारा करतारपुर साहिब के बारे में, जहां गुरु नानक देव जी ने अपनी जिंदगी के आखिरी 18 साल बिताए थे। हम आपको बताने जा रहे हैं गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक के बारे में। एक तरफ बॉर्डर के उस पार गुरुद्वारा करतारपुर साहिब है तो वहीं बॉर्डर के इस पार गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक है। ये वही स्थान है जहां गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी (यात्रा) के बाद ध्यान लगाया था। यह गुरुद्वारा गुरदासपुर में है और भारत-पाकिस्तान के बॉर्डर से सिर्फ 1 किलोमीटर की दूरी पर है।
‘अजीता रंधावा दा खू’ पर लगाया था नानक जी ने ध्यान
गुरु नानक देव जी ने 1506 में अपनी पहली उदासी के बाद इस जगह को ध्यान लगाने के लिए चुना था। जहां वह ध्यान लगाने बैठे थे, वहां एक कुआं था जिसे ‘अजीता रंधावा दा खू (कुआं)’ के नाम से जाना जाता था। डेरा बाबा नानक रावी नदी के किनारे स्थित है और भारत-पाकिस्तान बॉर्डर से लगभग एक किलोमीटर दूर है। लगभग चार किलोमीटर दूर गुरु नानक देव जी ने करतारपुर की स्थापना की थी और अपनी सभी उदासियों के बाद गुरु नानक देव जी करतारपुर में ही रहने लगे थे, जहां आज गुरुद्वारा करतारपुर साहिब है। जिस जगह पर बैठकर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, उस जगह को 1800 ई. के आसपास महाराजा रणजीत सिंह ने चारों तरफ से मार्बल से कवर करवाया और गुरुद्वारे का आकार दिया। तांबे से बना सिंहासन भी दिया था। जिस अजीता रंधावा के कुएं पर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, वह कुआं आज भी वहां मौजूद हैं और लोग यहां से जल भरकर अपने घर ले जाते हैं।
दूसरा स्मारक है ‘कीर्तन स्थान’। यह वह स्थान है जहां गुरु अर्जन देव जी ने डेरा बाबा नानक पहुंचने के बाद बाबा धर्म दास की शोकसभा में कीर्तन किया था। इस कीर्तन स्थान पर आज गुरु ग्रंथ साहिब सुशोभित हैं। तीसरा और सबसे मुख्य स्थान है ‘थड़ा साहिब’। अजीता रंधावा दा खू के पास आकर जिस जगह गुरु नानक देव जी सबसे पहले बैठे थे, उसे थड़ा साहिब का नाम दिया गया।
सोने से बनी है थड़ा साहिब की छत
काफी साल बाद जहां थड़ा साहिब स्थित है, उस हॉल का निर्माण करवाया गया। इस हॉल की छत को सोने की परत से सजाया गया है। पूरे हॉल में बेहद खूबसूरत मीनाकारी की गई है। महाराजा रणजीत सिंह ने यहां की छत पर सोने का इस्तेमाल करने को कहा था और इसके लिए उन्होंने नकद राशि और जमीन भी दी थी। यूं तो गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक में हर त्योहार और गुरु पर्व धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन अमावस्या और बैसाखी के दिन यहां विशेष कीर्तन समागमों का आयोजन किया जाता है। गुरु नानक जयंती और गुरु नानक देव जी के प्रकाश पर्व के अवसर पर भी खास कीर्तन दरबार सजाए जाते हैं। इस दौरान यहां बड़ी संख्या में संगत मौजदू रहती हैं। गुरुद्वारे की देखरेख शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी करती है इसलिए कीर्तन दरबार के अवसर पर दूर-दराज से आने वाले लोगों के रहने का बंदोबस्त कमिटी ही करती है। इसके साथ ही लंगर की भी विशेष व्यवस्था रहती है।

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