Know the five fundamental principles of Jainism: जानिए जैन धर्म के पांच मूलभूत सिद्धांत

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ध र्म शब्द का अंग्रेजी पर्याय है रिलिजन जो बनता है ‘रि’ और ‘लिगेयर’ से अर्थात ‘पुन:’ एवं ‘संबंध बनाना’ इस प्रकार रिलिजन अर्थात धर्म का अर्थ है ‘पुन: संबंध स्थापित करना’। इस जगत का प्रत्येक जीव अपने मूल स्त्रोत—अपने शाश्वत चैतन्य स्वरुप से अलग वियोजित हो गया है परन्तु केवल मानव जीवन में यह संभावना है कि इस स्त्रोत को पहचान कर हम अपने चैतन्य स्वरुप की ओर लौटकर उससे एकीकार हो सकें। अत: धर्म का अर्थ है अपने पृथक हो गए शाश्वत स्वरुप से पुन: संबंध स्थापित करना और इसी पुर्नस्थापना में धार्मिक संप्रदाय इस नश्वर जगत के मोह से छूटकर अनंत आनन्दमय शाश्वत जगत के साथ संबंध जोड़ने की कला हमें सिखाते हैं।
धार्मिक संप्रदायों की भूमिका। हम यहां जैन धर्म के 5 मूलभूत सिद्धांतों का विश्लेषण कर रहे हैं। यह 5 सिद्धांत क्रमबद्ध रूप से हमें इस प्रकार जीवन जीना सिखाते हैं जिससे हम अपने भीतर रही अनंत शांति एवं आनंद की अनुभूति कर सकें।
अहिंसा
जीवन का पहला मूलभूत सिद्धांत देते हुए भगवान महावीर ने कहा है ‘अहिंसा परमो धर्म’। इस अहिंसा में समस्त जीवन का सार समाया है, इसे हम अपनी सामान्य दिनचर्या में 3 आवश्यक नीतियों का पालन कर समन्वित कर सकते हैं।
सत्य
धर्म जगत में सत्य के सिद्धांत की व्याख्या सबसे अधिक भ्रांतिपूर्ण प्रकार से की जाती है। हम अपने बच्चों व युवा पीढ़ी को जैन सिद्धांत समझाते हुए हमेशा सत्य बोलने की प्रेरणा देते हैं परन्तु क्या दूसरी व तीसरी कक्षा में पढ़ाया जाने वाला नीति का यह सूत्र भगवान महावीर द्वारा दिया गया महाव्रत हो सकता है ? अवश्य ही भगवान के सत्य महाव्रत के भीतर गहरा आध्यात्मिक आशय समाहित है। इसलिए ‘श्रीमद राजचंद्र मिशन’ में हम इस सिद्धांत का अभिप्राय मानते है ‘सही चुनाव करना’। हमें अपने मन और बुद्धि को इस प्रकार अनुशासित व संयमित करना है कि जीवन की प्रत्येक परिस्थिती में हम सही क्रिया व प्रतिक्रिया का चुनाव करें।
अचौर्य
चेतना के उन्नत शिखर से दिए गए भगवान महावीर के ‘अचौर्य महाव्रत’ को हम संसारी जीव अपनी सामान्य बुद्धि द्वारा पूर्णतया समझ नहीं पाते। दूसरों की वस्तुएं न चुराना ही इसका अभिप्राय मानते रहे हैं परन्तु भगवान अपनी पूर्ण जागृत केवलज्ञानमय अवस्था से इतना उथला संदेश नहीं दे सकते।
इस महाव्रत का एक दूसरा ही गहरा प्रभावशाली आयाम है। स्वरुप को प्राप्त हुए भगवान का गहन प्रतीकात्मक संदेश हम तभी समझ पाते हैं जब हम अपनी चेतना को ईश्वरीय चेतना के साथ संरेखित करते हैं। अन्यथा अपनी सामान्य बुद्धि से इन प्रभावशाली शब्दों का केवल ऊपरी अर्थ पकड़ कर पूरा जीवन भ्रम में ही व्यतीत कर देते हैं।
ब्रह्मचर्य
यह सिद्धांत उपरोक्त3 सिद्धांतों—अहिंसा, सत्य, अचौर्य के परिणामस्वरूप फलीभूत होता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘ब्रह्म + चर्य’ अर्थात ब्रह्म में स्थिर रहना।
जब मनुष्य उचित—अनुचित में से उचित का चुनाव करता है एवं अनित्य शरीर-मन-बुद्धि से ऊपर उठकर शाश्वत स्वरुप में स्थित होता है तो परिणामत: वह अपनी आनंद रुपी स्व सत्ता के केंद्र बिंदु पर लौटता है जिसे ‘ब्रह्मचर्य’ कहा जाता है। शरीर-मन-बुद्धि को ‘मैं’ मानने की धारणा से बाहर निकलने के परिणामरूप शारीरिक साहचर्य व संभोग की चाहतें गिरती हैं- इस अवस्था को हम ब्रह्मचर्य मान सकते हैं क्योंकि जब अपने ही शरीर से मोह (मेरापना) नहीं रहता है तब किसी शरीर से भोग की तृष्णा को छोड़ पाना अत्यंत सरल हो जाता है।
अपरिग्रह
जो स्व स्वरुप के प्रति जागृत हो जाता है और शरीर-मन-बुद्धि को अपना न मानते हुए जीवन व्यतीत करता है उसकी बा दिनचर्या संयमित दिखती है, जीवन की हर अवस्था में अपरिग्रह का भाव दृष्टिगोचर होता है तथा भगवान महावीर के पथ पर उस भव्यात्मा का अनुगमन होता है।
इस प्रकार जैन धर्म के यह 5 सिद्धांत जीवन व्यापन की ऐसी शैली प्रदान करते हैं जिससे हम इस मानवीय शरीर से मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर हो सकें, आत्म-निरीक्षण करते हुए अपने शुद्ध चैतन्य आत्म-अनुभव तक पहुंच सकें। हमें भगवान के दिए हुए बोध का अवमूल्यन न करते हुए अपनी प्रज्ञा द्वारा गहन चिंतन व अभ्यास करते हुए इस शरीर-मन-बुद्धि के पार रही शुद्ध चैतन्य रुपी स्व सत्ता का अनुभव इसी मनुष्य जीवन में अवश्य करना चाहिए।

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