Dharya sahane ka nam titiksha: धैयपूर्वक सहने का नाम है तितिक्षा

0
777

त प और तितिक्षा हर साधक के जीवन के अनिवार्य सद्गुण है। इनके बिना साधना सफल नहीं होती और जीवन भी सार्थक नहीं बन पाता। भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के चौदहवें श्लोक में कहते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।
भगवान कहते हैं कि हे कुंतीपुत्र! सरदी, गरमी और सुख-दु:ख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर। मात्रास्पर्शासतु कौन्तेय, में मात्रा शब्द तन्मात्र का द्योतक है। इंद्रियों की शक्तियां तन्मात्राओं में रहती हैं, इंद्रियों से जब इन तन्मात्राओं का संयोग होता है तो हमें अनुभव प्राप्त होता है। शीतोष्णसुखदु:खदा:- यानी सरदी-गरमी और सुख-दु:ख, ये अभी हैं और अभी नहीं रहेंगे, इसलिए ये विनाशशील और अनित्य हैं। इसीलिए श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन!
हे भारत! तितिक्षस्व-तू इन्हें सहन कर। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने तितिक्षा की बात की है। एक शब्द है-तप और दूसरा शब्द है- तितिक्षा। आदिशंकाराचार्यकृत प्रसिद्ध वैराग्य ग्रंथ विवेकचूड़ामणि में साधन चतुष्टय, 18-32, के नाम से उन्होंने प्रत्येक साधक के साध्ना में सफलता हेतु चार साधनों की बात कही है। ये चार साधन विवेक, वैराग्य, षड्संपत्ति और मुमुक्षता के नाम से पुकारे गए हैं। इन षड्संपत्तियों में शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा एवं समाधन आते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि छह तरीके की संपत्ति साधक में, साधना करने वाले व्यक्ति में होनी चाहिए। इन षड्संपत्तियों में तितिक्षा का विशेष महत्व है। तितिक्षा का मतलब है-धैर्य और प्रसन्नता के साथ व्यक्ति के अंदर कष्ट-कठिनाइयों को सहन करने की योगयता। तप और तितिक्षा देखने में एक समान प्रतीत होते हैं, लेकिन इनमें थोड़ा अंतर है । तप संकल्पपूर्वक किया जाता है और तितिक्षा धैर्यपूर्वक। तप की प्रक्रिया एक निश्चित अवधि के लिए होती है, जैसे कि हम 40 दिन का अनुष्ठान कर रहे हैं या हम एक वर्ष का पुश्चरण कर रहे हैं और हमने अनुशासन तय किए कि हम एक समय भोजन करेंगे या इस तरह की जीवनशैली अपनाएंगे, जमीन में सोएंगे। ऐसा करके हम तप के अनुशासन नियत करते हैं और संकल्पपूर्वक हम उनको पूरा करते हैं और यह तप एक निश्चित अवधि के लिए होता है। हस तरह तप हमारा संकल्प होता है, उसकी अवधि निश्चित करना हमारा अधिकार होता है, लेकिन तितिक्षा हमारा संकल्प नहीं होता है। अगर तितिक्षा संकल्पपूर्वक हो तो भी उसकी कोई अवधि नहीं होती है, लेकिन तप से ज्यादा हमें तितिक्षा में दृढ़ता की जरूरत पड़ती है। तप में तो हमें मालूम होता है कि नौ दिन का यह अनुष्ठान हैं, नौ दिन के बाद हम अपने स्वाभाविक जीवन में लौट सकते हैं, लेकिन तितिक्षा कब तक ? मालूम नहीं कब तक सहन करना है? लेकिन इसमें प्रसन्नतापूर्वक अपनी मरजी से सहन करना होता है। हमारे जीवन में सरदी-गरमी, सुख-दु:ख, मान- अपमान कब आएंगे और कब जाएंगे, ये जीवन की आंतरिक व बाह्य परिस्थितियां निर्धरित करती हैं, इन पर हमारा वश नहीं होता। हमारी जिदंगी में मौसम के अनुसार सरदी-गरमी आती है, लेकिन सुख-दुख, मान-अपमान ये काल व हमारे कर्म निर्धरित करते हैं। इसलिए जीवन में कभी सुख हो सकता है, कभी दु:ख हो सकता है, कभी अपमान हो सकता है। हमें यह नही मालूम होता कि काल व हमारे कर्म हमारे लिए क्या लेकर आ रहे हैं। प्राय: यह देखा जाता है कि हम अपनी परिस्थितियों से उत्तेजित होते हैं, विचलित होते हैं, घबराते हैं। आज जीवन में तितिक्षा का गुण व्यक्ति खोता जा रहा है, इसलिए यदि परिवार में पत्नी पति को कुछ कह दे, पति पत्नी को कुछ कह दे, तो थोड़ी ही देर में आत्महत्या करने तक की बातें हो जाती हैं। अक्सर अखबारों में निकलता है कि स्कूल में रिजल्ट निकलने के साथ कितने बच्चों ने आत्महत्या कर लीं । क्यों? क्योंकि लोग मानसिक घात प्रतिघात सहन नही कर पाते।
इसलिए मानसिक तितिक्षा सामान्य जीवन की भी आवश्यकता है। जीवन में तप न भी हो, केवल तितिक्षा हो तो यह मनोरोगों को भगाने का अचूक उपाय है। जो सहन करना जानता है, वो कभी मनोरोगी नहीं होता है, उसको तनाव नहीं होता, उसको विषाद नहीं होता। बुरे दिन सबके जीवन में आते हैं और सही पूछो तो बुरे दिन किसी-न-किसी रूप में हमारे जीवन में बने ही रहते हैं, अच्छे दिन आते भी हैं तो हम उन्हें महसूस ही नहीं कर पाते, क्योंकि वो खुशबू की तरह दो मिनट में उड़ जाते हैं, चले जाते हैं और फिर हम वहीं-के-वहीं टिक जाते हैं। बुरे दिन हमारा आत्मविश्वास छीन लेते हैं, क्योंकि हमारा धैर्य, हमारा साहस सब चुक जाता है, सब छिन जाता है, लेकिन जो तितिक्षा को अपने जीवन-दृष्टिकोण का अंग बनाते हैं, वे हर तरह की परिस्थितियों से उबरते हुए अपने गंतव्य तक एक-न-एक दिन पहुंच ही जाते हैं। तितिक्षा का महत्त्व तप से भी अधिक है, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-तितिक्षस्व भारत।

-डॉ. प्रणव पण्डया

SHARE