कृष्ण हमारे अंदर उम्मीदें जगाते हैं!

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शंभूनाथ शुक्ल

महाभारत युद्घ में कोई सक्रिय रोल नहीं था लेकिन अगर कृष्ण पांडवों की तरफ न होते तो कौरवों की विशाल सेना से पांडव जीत नहीं पाते इसीलिए इस युद्घ के एकमात्र दृष्टा बबर्रीक से जब युधिष्ठिर ने पूछा कि घटोत्कच पुत्र बबर्रीक तूने तो यह युद्घ एकदम निष्पक्ष योद्घा की भांति देखा है इसलिए तू बता कि इस युद्घ में पांडवों की जीत का श्रेय किसे मिलना चाहिए तो बबर्रीक ने कहा कि मैने तो इस पूरे युद्घ में सिर्फ एक ही योद्घा को युद्घ करते देखा है जो पीतांबर पहने था और जिसके सिर के ऊपर मोरमुकुट था। ऐसे बिरले कृष्ण को नायक होना ही चाहिए।
कृष्ण एक ऐसे नायक हैं जो उम्मीदें जगाते हैं। वे किसी देवी-देवता को पूजने और मिथकों पर भरोसा करने को कतई नहीं कहते। वे कभी भी किसी अदृश्य शक्ति का आह्वान नहीं करते और न ही अपने समथर्कों को ऐसा कहने को कहते हैं। वे स्वयं में सक्षम हैं और वैकल्पिक राजनीति के लिए वे सदैव गुंजाइश रखते हैं। वे साफ कहते हैं कि मेरी शरण में आओ मैं तुम्हारे दुख हरूंगा, ह्यसर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रजह्ण का आह्वान करने वाले कृष्ण गोकुल वासियों को इंद्र के कोप से बचाने के लिए गोवर्धन उठा लेते हैं और कंस के वध के लिए वे हर तरह के साम, दाम, दंड, भेद का पूरा इस्तेमाल करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कंस को मारना आसान नहीं होगा। वे हर समय उस समय के अनुकूल बात करते हैं।
वे किसी तरह की नीति-नैतिकता अथवा मर्यादा को नहीं मानते। वे नियमों की अनदेखी कर दुर्योधन को मारने का आहवान भीम को करते हैं और उन्हें निर्देश देते हैं कि मंदबुद्घि भीम उसकी जंघा पर गदे से वार कर वर्ना दुर्योधन जैसे वीर को तू नहीं मार पाएगा। इसी तरह अर्जुन को वे कर्ण को मारने के लिए उस समय प्रेरित करते हैं जब निहत्था कर्ण अपने रथ के पहिये को फिट कर रहा था। वे द्रोणाचार्य को मरवाने के लिए युधिष्ठिर पर झूठ बोलने का दबाव डालते हैं। सामान्य दृष्टि से देखें तो कृष्ण हर जगह नीति और नैतिकता से हीन एक ऐसे नायक नजर आते हैं जो अपनी जीत के लिए कुछ भी कर सकते हैं और कुछ भी बोल सकते हैं। लेकिन फिर भी वे नायक हैं और नायक ही नहीं बल्कि भारतीय समाज के लिए वे साक्षात विष्णु की षोडस कलाओं के अवतार हैं। कुछ तो रहा होगा कृष्ण में जिस कारण उन्हें ईश्वर माना गया और समाज का नायक। कृष्ण में सहजता है, वे सामान्य मनुष्य नजर आते हैं। वे अपनी अलौकिकता का कभी भी प्रदर्शन नहीं करते सिवाय उस वक्त के जब वे हस्तिनापुर में पांडवों के दूत बनकर गए और वहां पर दुर्योधन ने उन्हें छल से गिरफ्तार करने की योजना बनाई तब उन्होंने अपने विशाल रूप को दिखाया और कहा मूर्ख दुर्योधन तू क्या मुझे गिरफ्तार करेगा। देख यह संपूर्ण सृष्टि मेरे अंदर ही समाई है। कृष्ण का महाभारत युद्घ में कोई सक्रिय रोल नहीं था लेकिन अगर कृष्ण पांडवों की तरफ न होते तो कौरवों की विशाल सेना से पांडव जीत नहीं पाते इसीलिए इस युद्घ के एकमात्र दृष्टा बबर्रीक से जब युधिष्ठिर ने पूछा कि घटोत्कच पुत्र बबर्रीक तूने तो यह युद्घ एकदम निष्पक्ष योद्घा की भांति देखा है इसलिए तू बता कि इस युद्घ में पांडवों की जीत का श्रेय किसे मिलना चाहिए तो बबर्रीक ने कहा कि मैने तो इस पूरे युद्घ में सिर्फ एक ही योद्घा को युद्घ करते देखा है जो पीतांबर पहने था और जिसके सिर के ऊपर मोरमुकुट था। ऐसे बिरले कृष्ण को नायक होना ही चाहिए। वे सिर्फ महाभारत के या भारत के नायक नहीं बल्कि वे विश्व के नायक हैं। मालूम हो कि बबर्रीक भीम की राक्षसी पत्नी हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का बेटा था। वह इतना बलवान था कि जब पांडवों को महाभारत युद्घ के लिए चिंतित देखा तो बबर्रीक ने अपने राक्षसी गर्व के साथ कहा कि तात युधिष्ठिर आप परेशान न हों, उस कौरव सेना को तो मैं अकेला ही काट डालूंगा। कृष्ण को उसकी यह गर्वोक्ति खतरनाक लगी क्योंकि मनुष्यों के युद्घ मनुष्य समाज की नैतिकता और युद्घ नियमों के आधार पर ही लड़े जा सकते हैं किसी अलौकिक या मायावी शक्ति के सहारे नहीं। इसलिए उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र के प्रहार से उसका सिर काट दिया। पांडव अपने पौत्र के इस संहार से बहुत दुखी हुए। भीम आहत थे और घटोत्कच बिलखने लगा तो कृष्ण ने उसका सिर एक ऊंची पहाड़ी पर रख दिया और कहा कि बबर्रीक अब तू इस महाभारत युद्घ को निष्पक्ष होकर देखेगा। इसी बबर्रीक ने युधिष्ठिर को बताया कि तात युद्घ में तो मैने कृष्ण के अलावा किसी को लड़ते हुए नहीं देखा।
कृष्ण का चरित्र अन्य नायकों से भिन्न और सामान्य मनुष्यों जैसा है। वे दही और मक्खन के लिए बिलखते हैं, माता यशोदा से छुपकर दही की मटकी तोड़ देते हैं, वे ग्वालिनों की मटकी के पीछे पड़ जाते हैं और आते-जाते उन्हें तंग करते हैं। माता यशोदा जब उन्हें ताड़ना देती हैं तो सामान्य बालक की तरह कह देते हैं कि माता यशोदा तू इन ग्वालिनों पर भरोसा करती है और मुझ अपने ही जाये बालक पर नहीं। अब पता चला कि तू मुझसे ज्यादा दाऊ बलभद्र को चाहती है क्योंकि दाऊ गोरे हैं और मैं काला। लोक में कृष्ण की छवि ऐसी ही है। वे ईर्ष्या करते हैं, लोगों को खिझाते हैं और फिर मां की डांट के भय से छिप जाते हैं।
वे निर्वस्त्र यमुना स्नान कर रही गोपिकाओं के वस्त्र नदी किनारे से उठा लेते हैं और उन्हें वस्त्र लौटाने के बदले खूब तंग करते हैं। लोक में उनका नाम राधा से जोड़ा जाता है जो उनकी पत्नी नहीं हैं, द्रोपदी के साथ उनका सखा भाव था और उसकी कोई व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की। बस वे हर समय द्रोपदी को विषम परिस्थितियों से उबार लेते हैं। यहां तक कि तब भी जब उनके पति मुंह सिये दरबार में बैठे थे और सरेआम दुशासन उसकी साड़ी खींच रहा था। तब उन्होंने द्यूत के राजकाजी नियम जानते हुए भी द्रोपदी की मदद की। द्रोपदी भी अपने इस सखा से वे सारी बातें कर लेती हैं जो वे अपने पांच पतियों से नहीं कर पातीं। कृष्ण समय की भवितव्यता को नहीं तोड़ते। वे अपने ही कुल के यादवों के परस्पर युद्घ और उनके बीच की तनातनी पर कुछ नहीं बोलते। उन्हें पता था कि सात्यिकी आदि यादव योद्घाओं का दुर्वाशा ऋषि के किया जा रहा मजाक समूचे यादव कुल को मंहगा पड़ जाएगा लेकिन वे चुप रहते हैं। वे चाहते तो अपने को उस बहेलिये से बचा सकते थे जो उन पर तीर इसलिए चला देता है कि लेटे हुए कृष्ण का तलवा उसे हिरण जैसा दिखा पर वे कुछ नहीं बोले और अपने को पंचतत्व में लीन कर लिया। कृष्ण इसीलिए तो महान थे कि वे मानव थे, महामानव और इसीलिए उन्हें ईश्वर का दरजा मिला। साक्षात विष्णु की संपूण कलाओं का अवतार माना गया। कृष्ण का नायकत्व हमें उनके करीब लाता है। उसमें कठोरता नहीं है, कड़े नियम और थोथे आदर्श नहीं हैं। जहां बालपन है, बालहठ है और जब वे किसी को ललकारते हैं तो शत्रु का पूर्ण मानमर्दन करने की क्षमता भी उनके पास है। चाहे वह कालिया नाग का मर्दन हो अथवा आततायी इंद्र के कोप को ध्वस्त करना हो या दुर्योधन को उसकी हैसियत जता देने का मामला, कृष्ण अपने अंदाज में अलग हैं। इसीलिए तो वे कृष्ण हैं और नायक हैं। ऐसे नायक है जो हमारे अंदर आशा की किरण पैदा करते हैं। वे हर दबे-कुचले इंसान के सखा हैं, वे महामानव हैं। ऐसे कृष्ण को उनके जन्मदिन पर बारंबार प्रणाम है।

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