स्मृति शेष : भारतीय राजनीति के ‘अरुण’ का अस्त हो जाना

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कुणाल वर्मा

राजनीति में लंबा समय बिताकर, भारतीयों के दिलों में अपनी अमिट छाप छोड़कर राजनीति के ‘अरुण’ का अस्त होना पूरे देश को गमगीन कर गया। हाल के दिनों में उनकी खराब तबियत ने वैसे तो पहले से ही लोगों को अनहोनी की आशंका से ग्रसित कर रखा था, लेकिन कोई दिल यह मानने को तैयार नहीं था कि वो हमसे इस कदर बिछड़ जाएंगे। जिस दिन से अरुण जेटली एम्स में भर्ती थे उस दिन से शायद ही कोई ऐसा बड़ा नेता हो जो एम्स में उनका हाल जानने नहीं पहुंचा हो। क्या विपक्ष और क्या उनके धूर विरोधी, सभी उनके परिवार से मिलने पहुंचे थे। यही पूंजी अरुण जेटली ने कमाई और ताउम्र अपनी इस कमाई पर गर्व किया। जेटली के व्यक्तित्व का यह खास गुण था कि उनके दोस्त हर पार्टी में थे। उनके राजनीतिक विरोधी भी बुरे वक्त में उन्हें अपने सबसे करीब पाते थे। अरुण जेटली का जाना निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति को एक ऐसी क्षति है जिसकी पूर्ति लंबे समय तक संभव नहीं।
छात्र जीवन से ही राजनीति में कदम रखने वाले अरुण जेटली ने अपने राजनीतिक मूल्यों और सुचिता की बदौलत अपना कद इतना बड़ा बना लिया था कि बिना कोई चुनाव जीते भी वो राजनीति के शीर्ष पर काबिज रहे। एक प्रखर राजनेता और देश के वरिष्ठतम वकील के अलावा उनकी पहचान एक ब्लॉगर-लेखक के रूप में भी थी। उनके लिखे ब्लॉग समाचारों की सुर्खियां बन जाती थीं। तमाम मुद्दों पर लिखे गए उनके ब्लॉग इतने सारगर्भित रहते थे कि उसमें जानकारी का अथाह समंदर होता था।
अरुण जेटली को ‘कश्मीर का दामाद’ भी कहा जाता था, क्योंकि उनकी शादी कांग्रेस के पूर्व सांसद और लंबे समय तक जम्मू-कश्मीर के मंत्री रहे गिरधारी लाल डोगरा की बेटी संगीता से हुई थी। उनका ससुराल कठुआ जिले के हीरानगर के पैया गांव में है। 2015 में गिरधारी लाल डोगरा के शताब्दी समारोह में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए थे। इस दौरान उन्होंने अरुण जेटली की तारीफ करते हुए कहा था कि स्व. डोगरा को व्यक्ति की जबर्दस्त परख थी। इसीलिए उन्होंने अपनी विचारधारा से ताल्लुक न रखने वाले अरुण जेटली जैसे व्यक्ति को अपना दामाद बनाया और आज न तो ससुर दामाद के नाम पर जाने जाते हैं और न दामाद अपने ससुर के नाम से। अरुण जेटली ने अपना जो मुकाम बनाया वो अपने दम पर बनाया।
प्रधानमंत्री मोदी की बातें सौ फीसदी सही थी, क्योंकि छात्र जीवन से राजनीति की शुरुआत कर, देश के बड़े वकीलों में शुमार होने के बावजूद राजनीति की मुख्य धारा में इतना बड़ा कद पाना कोई आसान काम नहीं। अरुण जेटली की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि भी नहीं थी। उनके पिता का नाम महाराज किशन जेटली था जो एक वकील थे और जबकि माता रतन प्रभा जेटली एक घरेलू महिला थीं। अरुण जेटली की स्कूली पढ़ाई दिल्ली के सेंट जेवियर स्कूल से हुई। इसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के श्री राम कॉलेज आॅफ कॉमर्स से अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री ली। दिल्ली यूनिवर्सिटी से ही लॉ की डिग्री हासिल की। यहीं से छात्र राजनीति में आए। अरुण जेटली खुद को आपातकाल के पहले सत्याग्रही कहा करते थे। पत्रकार सोनिया सिंह की पुस्तक ‘डिफाइनिंग इंडिया: थ्रू माय आइज’ में उन्होंने बताया है कि तकनीकी रूप से आपातकाल का मैं पहला सत्याग्रही था, क्योंकि 26 जून को आपातकाल के खिलाफ देश का पहला विरोध प्रदर्शन उन्होंने ही किया था। आपातकाल घोषित होने के बाद 26 जून, 1975 की सुबह कुछ युवकों के साथ अरुण जेटली निकले और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का पुतला फूंका। इसके बाद उन्हें अरेस्ट कर लिया गया। इमरजेंसी के दौर में छात्र नेता अरुण जेटली को 1975 से 1977 तक 19 महीने तक हिरासत में रखा गया। पर अरुण जेटली के व्यक्तित्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस इंदिरा गांधी का पहला पुतला अरुण जेटली ने फूंका था, उसी इंदिरा गांधी ने अरुण जेटली की शादी में पहुंचकर उन्हें अपना आशीर्वाद दिया।
1977 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय सचिव रहे अरुण जेटली लॉ के उत्कृष्ट छात्र थे। यहां तक कि आपातकाल में हिरासत में रहने के दौरान भी उन्होंने वक्त का इस्तेमाल लिखने और पुस्तकों के अध्ययन में किया। जेल में रहने के दौरान ही जेटली का परिचय जनसंघ के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी से हुआ। यहीं पर उनकी मुलाकात आरएसएस के विचारक नानाजी देशमुख से हुई। इसके बाद जेटली ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और राजनीति के शिखर पर पहुंचे। उनकी राजनीतिक हैसियत ऐसी थी कि तमाम विपक्षी दिग्गज नेता भी उनसे सलाह लेने में संकोच नहीं रखते थे।
आज पूरा विश्व जिस भारतीय प्रधानमंत्री की एक झलक पाने को बेताब रहता है उसके सूत्रधार अरुण जेटली ही थे। यह एक महज संयोग ही है कि जिस वक्त अरुण जेटली का देहावसान हुआ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके पास नहीं थे। अरुण जेटली की पत्नी ने प्रधानमंत्री से आग्रह किया कि वो अपना विदेश दौरा जारी रखें क्योंकि यह देशहित में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली के मधुर संबंधों को कौन नहीं जानता। कहा जाता है कि प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में नरेंद्र मोदी का नाम पहली बार अरुण जेटली ने ही सुझाया था। गृह मंत्री अमित शाह के अभयदान में भी अरुण जेटली की अहम भूमिका रही। भले ही अमित शाह का केस जेठमलानी लड़ रहे थे, लेकिन पर्दे के पीछे कानूनी दांव के सूत्रधार अरुण जेटली ही थे। यही नहीं अरुण जेटली के मुवक्किलों में जनता दल के शरद यादव और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के माधवराव सिंधिया और भारतीय जनता पार्टी के लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेता शामिल रहे।
जिस वक्त तमाम आरोपों के कारण नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर संकट के बादल छाए थे, उस वक्त अरुण जेटली ही वह शख्स थे जिन्होंने एक स्वर में इन दोनों का समर्थन किया था। बताया जाता है कि गोधरा दंगे के बाद अटल बिहारी वाजपेयी नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के पक्ष में थे। उस वक्त गोवा में आयोजित पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक्शन होना तय माना जा रहा था। मगर यह जेटली ही थे, जिन्होंने आडवाणी के साथ मिलकर मोदी के पक्ष में पार्टी के ज्यादातर नेताओं को खड़ा कर दिया। अरुण जेटली का राजनीतिक कद इतना बड़ा था कि उनके निर्णय के सामने अटल जी को झुकना पड़ गया।
यह अरुण जेटली की ही पारखी नजर थी जिसने आज भारत को इतना सशक्त प्रधानमंत्री दिया जिससे मिलने में दुनिया के बड़े-बड़े दिग्गज खुद को गौरवांवित महसूस करते हैं। आज अरुण जेटली हमारे बीच में नहीं रहे। भारतीय राजनीति के इतिहास में उनकी गिनती हमेशा एक बेहतर रणनीतिकार के रूप में होगी। जिस राजनीतिक सुचिता की उन्होंने परिभाषा गढ़ी वह भारतीय लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ बनाता है। ऐसे राजनेता को आज पूरा भारत नमन कर रहा है।
(लेखक आज समाज के संपादक हैं )
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